शानी के मानी -जाहिद खान

16 मई, कहानीकार शानी की जयंती

शानी के मानी यूं तो दुश्मन होता है और गोयाकि ये तखल्लुस का रिवाज ज्यादातर शायरों में होता है। लेकिन शानी न तो किसी के दुश्मन हो सकते थे और न ही वे शायर थे। हां, अलबत्ता उनके लेखन में शायरों सी भावुकता और काव्यत्मकता जरुर देखने को मिलती है। शानी अपने लेखन में जो माहौल रचते थे, उससे ये एहसास होता है कि कवि हृदय हुए बिना ऐसे जानदार माहौल की अक्काशी मुमकिन नहीं। जी हां, हम हम बात कर रहे हैं छठवे-सातवे दशक के प्रमुख कथाकार गुलशेर अहमद खां की, जिन्हें हिंदी कथा साहित्य में सिर्फ उनके उपनाम शानी के नाम से जाना-पहचाना जाता है। अपने बेश्तर लेखन में मध्यम, निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम समाज का यथार्थपरक चित्रण करने वाले शानी पर ये इल्जाम आम था कि उनका कथा संसार हिंदुस्तानी मुसलमानों की जिंदगी और उनके सुख-दुख तक ही सीमित है। और हां, शानी को भी इस बात का अच्छी तरह से एहसास था। अपने आत्मकथ्य में शानी इसके मुताल्लिक लिखते हैं-‘‘मैं बहुत गहरे में मुतमईन हूं कि ईमानदार सृजन के लिए एक लेखक को अपने कथानक अपने आस-पास से और खुद अपने वर्ग से उठाना चाहिए।’’ जाहिर है कि शानी के कथा संसार में किरदारों की जो प्रमाणिकता हमें दिखाई देती है, वह उनके सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की वजह से ही है।
शानी के कालजयी उपन्यास ‘काला जल’ की ‘सल्लो आपा’, संस्मरण ‘शाल वनों का द्वीप’ की ‘रेको’, हो या फिर ‘जनाजा’, ‘युद्ध’ कहानी का ‘वसीम रिजवी’ ये किरदार पाठकों की याद में गर आज भी बसे हुए हैं, तो अपनी विश्वसनीयता की वजह से। शानी ने इन किरदारों को सिर्फ गढ़ा नहीं है, बल्कि किरदारों में जो तपिश दिखाई देती है, वह उनके तजुर्बे से मुमकिन हुई है। ‘काला जल’ की ‘सल्लो आपा’ को तो कथाकार राजेन्द्र यादव ने हिंदी उपन्यासों के अविस्मरणीय चरित्रों में से एक माना है। हिंदी में मुस्लिम बैकग्राउंड पर जो सर्वश्रेष्ठ कहानियां लिखी गई हैं, उनमें ज्यादातर शानी की हैं। ‘युद्ध’, ‘जनाजा’, ‘आईना’, ‘जली हुई रस्सी’, ‘नंगे’, ‘एक कमरे का घर’, ‘बीच के लोग’, ‘सीढ़िया’ं, ‘चहल्लुम’, ‘छल’, ‘रहमत के फरिश्ते आएंगे’, ‘शर्त का क्या हुआ’, ‘एक ठहरा हुआ दिन’, ‘एक काली लड़की’, ‘एक हमाम में सब नंगे’ वगैरह कहानियों में शानी ने बंटवारे के बाद के भारतीय मुस्लिम समाज के दुख-तकलीफों, डर, भीतरी अंतर्विरोधों, यंत्रणाओं और विसंगतियों को बड़ी ही खूबसूरती से दर्शाया है। शानी की कहानियों में प्रमाणिकता और पर्यवेक्षित जीवन की अक्काशी है। लिहाजा ये कहानियां हिंदी साहित्य में अलग ही मुकाम रखती हैं। उन्होंने वही लिखा, जो देखा और भोगा। पूरी साफगोई, ईमानदारी और सच्चाई के साथ वह सब लिखा जो, अमूमन लोग कहना नहीं चाहते।

16 मई 1933 को बस्तर जैसे धुर आदिवासी अंचल के जगदलपुर में जन्मे शानी को बचपन से ही पढ़ने का बेहद शौक था। पाठ्यपुस्तकों की बजाय उनका मन साहित्य में ज्यादा रमता था। किताबों का ही नशा था, कि वे अपने स्कूली दिनों में बिना किसी प्रेरणा और सहयोग के एक हस्तलिखित पत्रिका निकालने लगे थे। बहरहाल बचपन का यह जुनून शानी की जिंदगी की किस्मत बन गया। शानी ने खुद इस बारे में एक जगह लिखा है,‘‘जो व्यक्ति सांस्कृतिक, साहित्यिक या किसी प्रकार की कला संबधी परंपरा से शून्य बंजर सी धरती बस्तर में जन्मे, घोर असाहित्यिक घर और वातावरण में पले-बड़े, बाहर का माहौल जिसे एक अरसे तक न छू पाए, एक दिन वह देखे कि साहित्य उसकी नियति बन गया है।’’ जवान होते ही शानी का साबका जिंदगी की कठोर सच्चाईयों से हुआ। निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म और पढ़ाई पूरी नहीं करने के चलते, उनकी शुरूआती जिंदगी बेहद संघर्षमय गुजरी। जीवन के अस्तित्व के लिए उन्होंने कई नौकरियां बदलीं। मगर जिंदगी की कश्मकश के इस दौर में भी अदब से उनका नाता बरकरार रहा। शानी की अच्छी कहानियां और उपन्यास का जन्म प्रतिकूल हालात में हुआ। शानी का पहला कहानी संग्रह ‘बबूल की छांव’ साल 1956 में आया और महज नौ साल के छोटे से अंतराल में उनकी सभी खास कृतियां साहित्यिक पटल पर आ चुकी थीं। कहानी संग्रह ‘डाली नहीं फूलती’-1959, ‘छोटे घेरे का विद्रोह’-1964, और उपन्यास ‘कस्तूरी’-1960, ‘पत्थरों में बंद आवाज’-1964, ‘काला जल’-1965’ में आ कर धूम मचा चुके थे। यही नहीं उनका दिल को छू लेने वाला संस्मरण ‘शाल वनों का द्वीप’ भी इन्हीं गर्दिश के दिनों में लिखा गया।
जिंदगी के जानिब शानी का नजरिया किताबी नहीं बल्कि अनुभवसिद्ध था। यही वजह है कि वे ‘युद्ध’, ‘जनाजा’, ‘बिरादरी’, ‘जगह दो रहमत के फरिश्ते आएंगे’, ‘हमाम में सब नंगे’, ‘जली हुई रस्सी’ जैसी दिलो-दिमाग को झंझोड़ देंने वाली कहानियां और काला जल जैसा कालजयी उपन्यास हिंदी साहित्य को दे सके। शानी के कथा संसार में मुस्लिम समाज का प्रमाणिक चित्रण तो मिलता ही है, बल्कि हिंदू-मुस्लिम संबधों पर भी कई मर्मस्पर्शी कहानियां हैं, जो कि भुलाए नहीं भूलतीं। उनकी कहानी ‘युद्ध’ को तो आलोचकों ने हिंदू-मुस्लिम संबधों के सर्वाधिक प्रमाणित और मार्मिक साहित्यिक दस्तावेजों में से एक माना है। समाज में बढ़ता विभाजन हमेशा उनकी अहम चिंताओं में एक रहा। शानी खुद, अपनी वास्तविक जिंदगानी में भी इन सवालों से जूझे थे। लिहाजा उन्होंने कई कहानियों में अंतर साम्प्रदायिक संबधों के नाजुक सवालों को बड़ी ईमानदारी और संजीदगी से उठाया है। कथानक और तटस्थ ट्रीटमेंट इन कहानियों को खास बनाता है। मसलन कहानी ‘युद्ध’ भय और विषाद के मिश्रित माहौल से शुरु होती है और आखिर में पाठकों के सामने कई सवाल छोड़ जाती है। फिर कहानी का विलक्षण अंत भला कौन भूल सकता है ? शानी कहानी के अंत में किरदारों के मार्फत कुछ नहीं कहलाते और न ही अपनी ओर से कुछ कहते हैं। बस ! एक लाईन में कहानी बहुत कुछ बयान कर जाती है। इस लाईन पर गौर फरमाएं, ‘‘दालान में टंगे आईने पर बैठी एक गौरैया हमेशा की तरह अपनी परछांई पर चोंच मार रही थी।’’
शानी आदिवासी अंचल में पैदा हुए और उनका शुरुआती जीवन जगदलपुर में बीता लेकिन उन्होंने आंचलिक कहानियां सिर्फ पांच लिखीं। ‘चील’, ‘फांस’, ‘बोलने वाले जानवर’, ‘वर्षा की प्रतीक्षा’ और ‘मछलियां’ कहानियों में वे आदिवासी जीवन के अर्थाभाव, विषमताओं, पीढ़ाओं को पूरी संवेदनशीलता से उकेरते हैं। आदिवासी लोक जीवन को देखने-महसूसने की दृष्टि उनकी खुद की अपनी है। संस्मरण ‘शाल वनों के द्वीप’ शानी की बेमिसाल कृति है। हिंदी में यह अपने ढंग की बिल्कुल अलहदा और अकेली रचना है। इस रचना को पढ़ने में उपन्यास और रिपोर्ताज दोनों का मजा आता है। शानी के कथा साहित्य में प्रकृति का अनुपम चित्रण मिलता है। प्रकृति के माध्यम से वे मन के कई भावों को प्रकट करते हैं। जहां तक शानी की भाषा का सवाल है, उनकी भाषा सरल एवं सहज है। हिंदी में वे उर्दू-फारसी के अल्फाजों के इस्तेमाल से परहेज नहीं करते। स्वभाविक रुप से जो शब्द आते हैं, उन्हें वे वैसा का वैसा रख देते हैं। हिंदी और उर्दू में वे कोई फर्क नहीं करते। इस मायने में देखें, तो उनकी भाषा हिंदी-उर्दू से इतर हिंदुस्तानी है। शानी ने कुल मिलाकर छह उपन्यास लिखे-‘कस्तूरी’, ‘पत्थरों में बंद आवाज’, ‘काला जल’, ‘नदी और सीपीयां’, ‘सांप और सीढ़िया’ं, ‘एक लड़की की डायरी’। इनमें ‘काला जल’ उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति है। हिंदी साहित्य में भारतीय मुस्लिम समाज और संस्कृति को बेहतर समझने के लिए जिन तीन उपन्यासों का जिक्र अक्सर किया जाता है, ‘काला जल’ उनमें से एक है। काला जल की व्यापक अपील और लोकप्रियता के चलते ही इस पर बाद में टेलीविजन धारावाहिक बना, जो उपन्यास की तरह ही काफी मकबूल हुआ। इस उपन्यास का भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी और रुसी भाषा में भी अनुवाद हुआ।
 शानी के कई कहानी संग्रह आए मसलन, ‘बबूल की छांव’, ‘एक से मकानों का घर’, ‘युद्ध’, ‘शर्त का क्या हुआ’, ‘बिरादरी’, ‘सड़क पार करते हुए’, ‘जहांपनाह जंगल’, ‘मेरी प्रिय कहानियां’। उनकी संपूर्ण कहानियां ‘सब एक जगह’ संग्रह में दो खंडो में संकलित हैं। ‘एक शहर में सपने बिकते हैं’ उनका निबंध संग्रह है। इस बात का बहुत कम लोगों को इल्म होगा कि सदाबहार फिल्म ‘शौकीन’ के संवाद भी शानी के लिखे हुए हैं। शानी अपनी आत्मकथा भी लिखना चाहते थे, मगर वह अधूरी ही रह गई। अलबत्ता, आत्मकथा का एक हिस्सा मासिक पत्रिका ‘सारिका’ में ‘गर्दिश के दिन’ नाम से प्रकाशित हुआ। शानी ने कथा साहित्य के अलावा साहित्यिक पत्रकारिता भी की और यहां भी वे कामयाब रहे। ‘साक्षात्कर’, ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ पत्रिकाओं के वे संस्थापक संपादक थे। अपने समय की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘कहानी’ का भी उन्होनें संपादन किया। शानी जब तलक ‘साक्षात्कार’ में रहे, पत्रिका का नाम देश में चर्चित रहा। अपने संपादन में उन्होने नए रचनाकारों को हमेशा तवज्जो दी। नए हों या पुराने सभी रचनाकारों से उनका सामंजस्य बहुत अच्छा था। साहित्य पत्रकारिता से होते हुए वे ‘मध्यप्रदेश साहित्य परिषद्’ के सचिव पद पर पहुंचे। साल 1972 से लेकर मार्च 1978 तक वे इस पद पर लगातार रहे। इस दौरान परिषद् में उन्होंने कई नवाचार किए। नई योजनाएं बनाई और उन्हें तत्परता से लागू किया।
 शानी की जिंदगी में साहित्य का मुकाम बहुत ऊंचा था। उन्होंने अपनी सारी जिंदगानी, हिंदी साहित्य के नाम कर दी, तो साहित्य ने भी उन्हें सब कुछ दिया। शानी की कई कहानियों का आकाशवाणी द्वारा नाट्य रूपांतरण किया गया। दिल्ली दूरदर्शन ने उन पर पैंतालीस मिनिट का एक वृतचित्र बनाया। मध्यप्रदेश सरकार ने उनके साहित्यिक अवदान का मूल्यांकन करते हुए, अपने सर्वोच्च सम्मान ‘शिखर सम्मान’ से नवाजा। शानी की कई कहानियां विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं। 9 फरवरी, 1995 को शानी इस जहान से रुखसत हुए। शानी के मानी भले ही दुश्मन हो, लेकिन वे सही मायने में अवाम दोस्त लेखक थे। उनके संपूर्ण कथा साहित्य का पैगाम इंसानियत और मुहब्बत है। हिंदी कथा साहित्य में इंसानी जज्बात को पूरी संवेदनशीलता और ईमानदारी से पेश करने के लिए कथाकार शानी हमेशा याद किए जाएंगे।

संपर्क – जाहिद खान- महल कॉलोनी, शिवपुरी मप्र मोबाईल  94254 89944 

3 thoughts on “शानी के मानी -जाहिद खान

  1. शानी के जीवन से जुड़े प्रसंगों,उनकी रचना यात्रा औऱ साहित्यिक अवदान पर बहुत बढ़िया लेख।ज़ाहिद की आंखों हमने शानी को एक नये और मुक़म्मल रूप में देखा।ज़ाहिद भाई को धन्यवाद।

  2. शानी के जीवन से जुड़े प्रसंगों,उनकी रचना यात्रा औऱ साहित्यिक अवदान पर बहुत बढ़िया लेख।ज़ाहिद की आंखों हमने शानी को एक नये और मुक़म्मल रूप में देखा।ज़ाहिद भाई को धन्यवाद।

  3. शानी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर जाहिद जी ने बहुत सारगर्भित लेख लिखा है जो शानी के रचनात्मक अवदान से रुबरु कराता है

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