हे विदूषक तुम मेरे प्रियः प्रभाकर चौबे 8 वीं कड़ी – घूसखोरी नहीं सेवाखोरी है यह

सुप्रसिद्ध साहित्यकार,प्रतिष्ठित व्यंग्यकार व संपादक रहे श्री प्रभाकर चौबे लगभग 6 दशकों तक अपनी लेखनी से लोकशिक्षण का कार्य करते रहे । उनके व्यंग्य लेखन का ,उनके व्यंग्य उपन्यासउपन्यासकविताओं एवं ससामयिक विषयों पर लिखे गए लेखों के संकलन बहुत कम ही प्रकाशित हो पाए । हमारी कोशिश जारी है कि हम उनके समग्र लेखन को प्रकाशित कर सकें । हम पाठकों के लिए उनके व्यंग्य उपन्यास  हे विदूषक तुम मेरे प्रियको धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं । विदित हो कि इस व्यंग्य उपन्यास का नाट्य रूपांतर भिलाई के वरिष्ठ रंगकर्मी मणिमय मुखर्जी ने किया है । इसका भिलाई इप्टाद्वारा काफी मंचन किया गया है । 

आज प्रस्तुत है 8वीं कड़ी –  घूसखोरी नहीं सेवाखोरी है यह

राज प्रासाद के सभाकक्ष में महाराज ने मंत्री, दीवान, खजांची, सेनापति को तलब किया। बोले राज्य में व्याप्त घूसखोरी पर आवश्यक विमर्श करना है। विदूषक कहाँ हैं। मंत्री ने बताया कि राज्य में घूसखोरी के खिलाफ जनमत जगाने के लिए विदूषक ने जगह-जगह कवि सम्मेलन का आयोजन किया है, उसमें व्यस्त हैं।

महाराज ने कहा- घूसखोरी के खिलाफ जनमत जागृत करने कवि सम्मेलन, अच्छी युक्ति है। यह किसके दिमाग की उपज है।

दीवान ने कहा- यह विचार खुद विदूषक का है

खजांची ने कहा- राज्य कोष से इन कार्य के लिए धन मुहैया कराया गया है। कवियों को पारिश्रमिक दिया जाता है।

सेनापति ने कहा- महाराज कल मैं एक कवि सम्मेलन में गया था। काफी भीत्रड उमत्रडी थी। प्रजा कविताओं का आनंद उठा रही है।

महाराज ने कहा- तुम भी कविता करते हो सेनापति।

सेनापति ने कहा- नहीं महाराज, मैं विदूषक के एकाधिकार में दखल कैसे दे सकता हूँ। मैं तो सुनने के लिए गया था। हमारे राज्य विदूषक ने घूसखोरी के खिलाफ कविता सुनाई, उसकी दो-तीन पांक्तिंयाँ याद हैं-

पाला की तरह कष्ट देता घूस

जैसे महीना लगा हो पूस

घूसखोर कुछ करते नहीं परहेज

खा रहे हैं माल ठूंस-ठूंस

महाराज ने कहा- बत्रिढया है। विदूषक जी यहाँ पहुँचें तो पूरी कविता सुनी जाए।

मंत्री ने कहा- लीजिए, विदूषक जी पहुँच गए।

महाराज ने कहा- हे विदूषक यह जानकर प्रसन्नता हुई कि राज्य में बत्रढी घूसखोरी के खिलाफ आप जन जागरण कर रहे हो। जगह-जगह घूसखोरी विरोधी कविता सम्मेलन कर रहे हो।

विदूषक ने कहा- हाँ, महाराज, प्रजा खूब आनंद ले रही है। कवि सम्मेलन आयोजित करने से कवियों को कुछ धन मिल रहा है, वे भी प्रसन्न हैं।

महाराज ने कहा- राज्य में घूसखोरी बत्रढी है, प्रजा त्राहि-त्राहि कर रही है। त्रस्त हो गई है प्रजा, हमारे जासूसों ने यह खबर दी है।

मंत्री ने कहा- महाराज, खबर सही है, पिछले वर्षों से पाठशालाओं में आचार्यों की भर्ती की जाती रही है। यह समाचार आया कि आचार्यों की भर्ती में घूसखोरी चल रही है।

महाराज ने कहा- बेरोजगारों के साथ घूसखोरी। अनर्थ हो रहा है। पाप हो रहा है।

दीवान ने कहा- महाराज, पाठशालाओं में आचार्य बनने के लिए किसी ने खेत बेचे, किसी ने घर के गहने। किसी ने साहूकार से ॠण लिया।

महाराज ने कहा- अंधेरगर्दी है। हमें बताया क्यों नहीं गया।

सेनापति ने कहा- महाराज, क्षमा मिले तो कुछ निवेदन करूँ।

महाराज ने कहा- करो निवेदन, बताओ।

सेनापति ने कहा- महाराज, प्रजा के बीच यह बात चली कि इसमें महाराज का भी हिस्सा है।

महाराज ने कहा- यह बात प्रजा से किसने कहा। राजमहल की गोपनीय बातें प्रजा तक कैसे जा रही हैं। हमारी सुरक्षा में सेंध लग रही है। सेनापति आप कुछ कर नहीं रहे। हमारी सुरक्षा का कार्य किसी और को देकर आपका स्थानांतरण कर दिया जाएगा।

दीवान ने कहा- महाराज, गत वर्ष राज्य की सत्रडकों के किनारे रसदार-छायादार वृक्ष लगाने का निर्णय हुआ था।

खजांची ने कहा- महाराज, इस कार्य हेतु राजकोष से पाँच लाख स्वर्ण मुद्राएँ दी गई।

महाराज ने कहा- उत्तम, अति उत्तम। वृक्ष लगे होंगे।

दीवान ने कहा- महाराज, महारानी की आज्ञा से सारे पौधे महल के बगीचे में रोप दिये गए, ऐसी सूचना दी गई।

मंत्री ने कहा- चलो, पौधे कहीं तो रोपे गए।

दीवान ने कहा- नहीं, पौधे रोपे ही नहीं गए, पाँच लाख स्वर्ण मुद्राएँ खर्च होना बताया गया।

महाराज ने कहा- महारानी भी सरकारी तौर-तरीका सीख गईं। उन्हें अब राज्य के प्रशासन में कुछ महत्त्वपूर्ण पद दिया जाना चाहिए।

मंत्री ने कहा- महाराज, महारानी महोदया को राज्य की प्रजा के स्वास्थ्य पर ध्यान देने का कार्य दिया जा सकता है।

सेनापति ने कहा- हाँ, महाराज, प्रजा का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। वह कुपोषण की शिकार है। महारानी उस विभाग की प्रमुख रहें तो प्रजा का स्वास्थ्य सुधरे। अभी तो सेना में भर्ती करने हट्टे-कट्टे जवान नहीं मिल रहे।

महाराज ने कहा- मंत्री जी, आप महारानी को प्रजा-स्वास्थ्य और मुख्य शिक्षा अधिकारी का भार ग्रहण करने राजी करें।

मंत्री ने कहा- महाराज, और राज्य के प्रमुख अधिकारियों की पात्निंयों को लेकर एक स्वयंसेवी संस्था बना देते हैं। यह स्वयंसेवी संस्था प्रजा के स्वास्थ्य और शिक्षा पर काम करें, राज्य कोष में इस संस्था को भरपूर अनुदान देने की व्यवस्था हो।

दीवान ने कहा- उत्तम विचार। नाम भी ठीक। महाराज इस संस्था का नाम अखिल विश्व राज्य स्वयंसेवी संगठन रखा जाए। आज ही राजाज्ञा जारी की जा सकती है। इससे राज्य के प्रमुख अधिकारियों की पात्निंयाँ समाजसेवा से जुत्रडेंगी, उन्हें अपने लाभ के लिए कुछ आय हो जाएगी।

मंत्री ने कहा- और घर में दिनभर चौसर खेलना तो बंद होगा।

महाराज ने कहा- ये सब तो ठीक लेकिन राज्य में घूसखोरी कैसे बंद हो, यह बताओ।

सब एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे।

महाराज ने विदूषक से कहा- विदूषक जी, आप कुछ सुझाइए।

विदूषक ने कहा- महाराज, पहली बात तो यह कि राज्य में घूसखोरी है ही नहीं।

महाराज ने कहा- घूसखोरी नहीं है, यह क्या कह रहे हो। घटिया सत्रडकें बन रही हैं। हर सरकारी योजना में घूसखोरी चल रही है, और आप कह रहे हैं कि राज्य में घूसखोरी नहीं है।

विदूषक ने कहा- महाराज, आप जिसे घूसखोरी कह रहे हैं, वह घूसखोरी नहीं है।

महाराज ने कहा- आज कैसी बातें कर रहे हैं आप विदूषक जी। कोई भी काम करने के लिए रुपए माँगना क्या घूसखोरी नहीं है। छोटे-छोटे, रोज के काम करने के लिए धन की माँग की जा रही है।

विदूषक ने कहा- महाराज, काम करने के बदले धन माँगना घूसखोरी नहीं है।

मंत्री ने कहा- तो क्या पुण्याई है।

विदूषक ने कहा- हाँ, काम करने के एवज में पैसे लेना पुण्याई है, यह धरम का काम है।

महाराज ने कहा- विदूषक जी, हास-परिहास न करें, साफ बताएं।

विदूषक ने कहा- महाराज, आपने नियम बनाया है कि मुफ्त में कुछ न लो न दो।

महाराज ने कहा- हाँ बनाया है।

विदूषक ने कहा- हम बाजार से सामान खरीदते हैं तो मुद्राएँ देते हैं।

मंत्री ने कहा- हाँ देते हैं।

विदूषक ने कहा- पाठशाला में ज्ञान लेने जाते हैं तो कुछ न कुछ देते हैं।

दीवान ने कहा- हाँ, दान देते हैं, शुल्क भी देते हैं।

विदूषक ने कहा- इसी तरह सरकारी दफ्तर में काम कराने जाने पर शुल्क देना वाजिब है। सरकारी लोग काम करके देते हैं, तो काम करके देने का शुल्क लेते हैं। मुफ्त में न लेते न मुफ्त में कुछ देते।

महाराज ने कहा- काम करना उनकार् कत्तव्य है।

विदूषक ने कहा- महाराज, काम कराने या करने के बदले कुछ लेना भी उनकार् कत्तव्य है।

महाराज ने कहा- यह घूसखोरी है।

विदूषक ने कहा- नहीं महाराज यह सेवा शुल्क है या इसे सेवाखोरी कह सकते हैं।

महाराज ने कहा- तो राज्य में घूसखोरी नहीं है। राज्य में सेवाखोरी चलती है। सेवा-शुल्क देना होता है। न मुफ्त कुछ दो, न मुफ्त कुछ लो के नियम का पालन किया जा रहा है।

विदूषक ने कहा- हाँ महाराज, अपना राज्य आदर्श राज्य है। यहाँ घूसखोरी नहीं है, यहाँ सेवाखोरी है।

महाराज ने कहा- लोगों ने मुझे बेकार ही डरा दिया था कि राज्य में घूसखोरी चल रही है। हे विदूषक आपने मेरे मन का बोझ हलका किया। अब मन शांत हुआ। वाह! यहाँ सेवाखोरी चलती है। मंत्रीजी, राज्य में मुनादी करा दो कि यहाँ सेवाखोरी को और बत्रढाया जाए। सेवाखोरी को राजश्रय प्राप्त है।

अगले अंक में जारी—–

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