आरबीआई! टॉप डिफॉल्टरों का 62 हज़ार करोड़ का क़र्ज़ा बट्टे खाते में डालने का सबब क्या है?

दीपक के मंडल

बैंक कॉरपोरेट कंपनियों की ओर से लोन का हजारों करोड़ डकार लिए जाने के बावजूद बगैर आह किए इसे बट्टे खाते में डाल दे रहे हैं। लेकिन आपको निगेटिव इंटरेस्ट दे रहे हैं। यह तो वैसा ही हुआ, जैसे आपने किसी को क़र्ज़ दिया और उसने आपका पैसा हड़प लिया।

दो जनवरी को दिल्ली हाईकोर्ट में 4335 करोड़ रुपये के घोटाले में फंसे पीएमसी बैंक के मामले में सुनवाई चल रही थी। बैंक पर प्रतिबंध के बाद ग्राहकों को बड़ी रकम निकालने से रोक दिया गया है। लेकिन ग्राहकों ने अदालत में अपील दायर कर मांग की थी कि कोरोना संकट के इस दौर में इलाज, शादी और पढ़ाई जैसी जरूरत के लिए उन्हें पांच लाख रुपये तक निकालने की इजाजत दी जाए। आरबीआई पीएमसी को तुरंत इसका निर्देश दे। लेकिन आरबीआई ने हाथ झाड़ लिए। कहा, “अच्छा हो यह फैसला पीएमसी बैंक खुद करे कि इमरजेंसी में ग्राहकों को पैसा निकालने की इजाजत देना है या नहीं।” ऐसी उलटबांसी आपने शायद ही देखी होगी। आरबीआई ने बैंक पर खुद प्रतिबंध लगाया और अब जब ग्राहक अपना पैसा मांगने आ रहे हैं तब कह रहे हैं कि जाकर बैंक से पूछो। पैसा मिलेगा या नहीं।

अब, दूसरा वाकया सुनिए। आरबीआई ने बड़े कॉरपोरेट कंपनियों के लोन डिफॉल्ट की जानकारी मांग रहे एक आरटीआई आवेदन को महीनों से दबाए रखा था। लेकिन आरटीआई एक्टिविस्ट विश्वनाथ गोस्वामी डटे रहे। और अब जो खुलासा हुआ है उसके मुताबिक बैंकों ने मार्च 2020 तक देश के टॉप 100 विलफुल डिफॉल्टर्स (जानबूझ कर कर्ज न चुकाने वाले) के 62 हजार करोड़ रुपये का कर्जा बट्टे खाते में डाल दिया है। बैंकों से हजारों करोड़ रुपये कर्ज लेकर खा चुके इन विलफुल डिफॉल्टर्स की लिस्ट में विजय माल्या, मेहुल चोकसी, नीरव मोदी जैसे बिजनेस टाइकून से लेकर रोटोमैक ग्लोबल और डेक्कन क्रॉनिकल होल्डिंग जैसी अखबार निकालने वाली कंपनी भी शामिल है।

क़र्ज़ बट्टे खाते में डालकर बैलेंसशीट साफ़ करने की जुगत

आरबीआई की ही रिपोर्ट में कहा गया है कि वित्त वर्ष 2019-20 में बैंकों ने कुल जितना लोन दिया था उसमें से 2.38 लाख करोड़ रुपये की वसूली नहीं हो सकी और इसे भी बट्टे खाते में डाल दिया गया। इससे बैंकों का एनपीए (फंसा हुआ कर्ज) 9.1 फीसदी से घट कर 8.2 फीसदी हो गया। एनपीए घटने से यह संदेश गया कि बैकों की बैलेंसशीट अच्छी हो गई है। लेकिन हकीकत यह थी कि बैंक इस भारी-भरकम कर्ज को वसूल नहीं पाए और इसे उन्होंने बट्टे खाते में डाल दिया।

सवाल यह है क्या 2.38 लाख करोड़ रुपये की यह विशाल रकम बैंकों की थी? क्या बैंकों ने यह रकम खुद कमाई थी? और अगर कमाई थी तो कैसे?  इसका जवाब जानने के लिए न तो अर्थशास्त्र की समझ जरूरी है और न ही वित्तीय मामलों की जानकारी। दरअसल यह पैसा जनता का था। हम और आप जैसे आम डिपोजिटरों का, जो बैंकों पर भरोसा कर अपनी गाढ़ी कमाई इनमें जमा रखते हैं। बैंकों के पास यह रकम बहुत कम लागत में आती है। इस वक्त आपके रेगुलर सेविंग अकाउंट में जमा पैसे पर ढाई से साढ़े तीन फीसदी तक और फिक्स डिपोजिट पर पांच से छह फीसदी का ब्याज मिल रहा है। फिक्स डिपोजिट के ब्याज पर तो इनकम टैक्स भी लगता है और मेच्योरिटी से पहले निकालने पर पेनल्टी भी लगती है। तो पूरा मामला यह है आपका पैसा बेहद सस्ते में लेकर बैंक मोटा इंटरेस्ट कमाने के चक्कर में बड़े कॉरपोरेट घरानों को हजारों करोड़ रुपयों का लोन देते हैं। लेकिन आम डिपोजिटर से पैसा वसूलना जितना आसान है, कॉरपोरेट कंपनियों से उतना ही कठिन। खास कर ऐसी कंपनियों के मालिकों से तो और कठिन, जिनकी सरकार में बैठे मंत्रियों से यारी-दोस्ती हो। तो अब आपके सामने यह बात साफ हो गई होगी कि देश के 100 डिफॉल्टरों पर बकाया 62 हजार करोड़ रुपये को बट्टे खाते में डालने से किस कदर जनता की जेब कट गई।

बैंकों का आम डिपोजिटरों से बर्ताव अलग होता है। वे उन आम डिपोजिटरों को कोई खास तवज्जो नहीं देते हैं, जो उनके फंड का सबसे बड़े स्रोत हैं। उन्हें ऊंची दरों पर लोन मिलता है। कर्ज न चुकाने पर वसूली के लिए मसलमैन भेजे जाते हैं। क्रेडिट स्कोर खराब कर दिया जाता है। मुकदमे लाद दिए जाते हैं। बैंकों से कर्ज लेकर खेती करने वाले किसानों की हालत तो और खराब रहती है। देश में किसानों की खुदकुशी के पीछे बैंकों की सख्ती एक अहम वजह रही है।

आम जनता को निगेटिव ब्याज और अमीरों को क़र्ज़ सब्सिडी

वर्षों से आम डिपोजिटरों के सेविंग खातों पर मिलने वाले ब्याज को डी-रेगुलेट करने की मांग हो रही है। क्योंकि कुछ साल पहले इस पर चार-पांच फीसदी ब्याज मिलता था और अब यह घट कर और नीचे यानी ढाई से तीन फीसदी हो गया है। अगर महंगाई से एडजस्ट (खुदरा महंगाई दर 6.95 फीसदी है) किया जाए तो यह ब्याज दर -4 फीसदी बैठती है। यानी बैंक आपके डिपोजिट के दम पर करोड़ों का मुनाफा कमा रहे हैं। कॉरपोरेट कंपनियों की ओर से लोन का हजारों करोड़ डकार लिए जाने के बावजूद बगैर आह किए इसे बट्टे खाते में डाल दे रहे हैं। लेकिन आपको निगेटिव इंटरेस्ट दे रहे हैं। यह तो ऐसा ही हुआ है जैसे आपने किसी को कर्ज दिया और उसने आपका पैसा हड़प लिया।

दस साल पहले आरबीआई के तीन डिप्टी गवर्नरों एस.एस. तारापोर, किशोरी उदेशी और उषा थोराट ने सेविंग अकाउंट पर मिलने वाले ब्याज को रेगुलेशन और कार्टलाइजेशन से मुक्त करने की मांग रखी थी। 1996-97 से लेकर अब तक कई बार आरबीआई ने डिपोजिटरों को कम ब्याज मिलने के मामले पर अंदरखाने चर्चा की है। लेकिन ज्यादा ब्याज देने की सिफारिश करने का इसने साहस नहीं किया। इसके उलट 100 बड़े डिफॉल्टरों पर बकाया 62 हजार करोड़ रुपये इसने बैंकों को चुपचाप बट्टे खाते में डालने की इजाजत दे दी। यही नहीं, अपने इस कदम पर पर्दा डालने की भी कोशिश की। क्या इसके लिए आरबीआई के आला अफसरों को भी कभी कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की जाएगी? आखिर जनता के इस पैसे को हड़पने के लिए किसी को सजा भी मिलेगी?  शायद ऐसा कभी नहीं होगा। उल्टे जब बैंकों के डूबने की नौबत आएगी तो सरकार टैक्स और सेस लगाएगी और डूब रहे बैंकों की तिजोरी भर दी जाएगी। आम जनता को कहा जाएगा कि बैंकों का री-कैपिटलाइजेशन किया जा रहा है। इससे बैंक ज्यादा मजबूत होंगे और जनता की ज्यादा अच्छी तरह से सेवा कर सकेंगे।

जनता का पैसा है, क्या फ़र्क़ पड़ता है?

पिछले कुछ वर्षों के दौरान हमने देखा कि डूबते बैंकों को बचाने के लिए किस तरह जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा झोंका जा रहा है और अब बैड बैंक बनाने की बात जोर-शोर से हो रही है। यानी सारे बैंकों का घाटा जनता के मत्थे मढ़ने की एक और जबरदस्त तैयारी है। सरकार की शह पर एक बैड बैंक यानी एक री-कंस्ट्रक्शन कंपनी बनेगी। बैंकों का सारा एनपीए उसमें ट्रांसफर कर दिया जाएगा। उनका बही-खाता चकाचक हो जाएगा और वे जनता का पैसा अमीर कर्जदारों पर लुटाने के आरोप से मुक्त हो जाएंगे। फिर एसेट कंस्ट्रक्शन कंपनी फंसे हुए कर्ज की वसूली कर पाए या नहीं, यह न तो आरबीआई की चिंता होगी और न सरकार की। और जहां तक जनता का सवाल है तो उसकी भी याददाश्त कमजोर ही मानी जाती है। तमाम गमों की तरह इसे भी भूल जाएगी कि हमारे हजारों करोड़ रुपये किस तरह एक एसेट री-कंस्ट्रक्शन कंपनी बना कर बट्टे खाते में डाल दिए गए।

जब बैंक फेल हो जाते हैं तो आप आम डिपोजिटरों को पैसा निकालने से रोक दिया जाता है। कर्मचारियों को जबरदस्ती वीआरएस देकर नौकरी से निकालने का सिलसिला शुरू हो जाता है। दो-तीन कमजोर बैंकों को मिलाकर एक कर दिया जाता है। मुट्ठी भर कर्मचारियों को रखा जाता है और बाकियों को नमस्ते कर दिया जाता है….. और फिर ‘पिंक पेपर’ सरकार और आरबीआई की वाहवाही करने लगते हैं, देखिये! सरकार ने बैंकिंग सेक्टर में सुधार की रफ्तार तेज कर दी है।

क्या जनता को थोड़ा सी सहूलियत मिलते देख उसे सब्सिडीखोर कहने वाला इस देश का गोदी मीडिया सरकार और आरबीआई से सवाल पूछेगा कि बैंकों में जमा उसकी अमानत पर किसने खयानत की है? क्या कोई पूछेगा कि आरबीआई आखिर आपकी पॉलिसी क्या है?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) सौज- न्यूजक्लिक

One thought on “आरबीआई! टॉप डिफॉल्टरों का 62 हज़ार करोड़ का क़र्ज़ा बट्टे खाते में डालने का सबब क्या है?”

  1. कैसे सवाल कर सकते है अंधभक्त क्योंकि बट्टा खाते में जो करोड़ों रुपये डाले गये वे सरकार की शह पर डाले गये । भक्त सवाल पुछ ही नही सकते की जनता की गाढ़ी कमाई के रुपये यूँ बर्बाद क्यों हो रहे है ।

Leave a Reply to Deeksha Dongre Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *