भारत में ज्ञान की मौत पर आँसू कौन बहायेगा!- अपूर्वानंद

शिक्षा संस्थानों पर लगाम लगाने के नए सरकारी फरमान की हिंदी की अखबारी दुनिया में कोई चर्चा नहीं है। क्या इसपर हम ताज्जुब करें? आखिर हिंदी अखबारी रवैया हिंदी पाठकों को बेखबर करने का ही रहा है। ज्ञान के संसार में क्या हो रहा है, किस किस्म की उथल-पुथल है, इसपर कोई चर्चा हिंदी मीडिया में शायद ही कभी की जाती हो। तो हिंदी का गुणगान और भारतीय संस्कृति का कीर्तन। लेकिन अभी हमारा विषय यह नहीं है। 

अभी तो हम भारत सरकार के उस हुक्म की तरफ ध्यान दिलाना चाहते हैं जिसके मुताबिक़ अब किसी भी ऐसे विषय पर जो सीमा या राज्य की सुरक्षा, जम्मू कश्मीर, लद्दाख, उत्तर पूर्वी राज्य से या कोई भी ऐसा विषय जो भारत के अंदरूनी मामलों से जुड़ा कोई भी ऑनलाइन कार्यक्रम नहीं किया जा सकता। राजनीतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, व्यक्तिगत, प्रत्येक प्रसंग इस दायरे में ले आया गया है।  

अपने परिपत्र में उसने सारे आयोजकों को पाबंद किया है कि वे किसी भी संवेदनशील विषय पर चर्चा से पहले सरकार की अनुमति ज़रूर लें।  राज्य सरकारों के मंत्रियों और राजकीय अधिकारियों को किसी भी ऐसी चर्चा में शामिल होने से पहले सरकार की इजाजत लेना अनिवार्य बना दिया गया है। 

इसके साथ ऐसे ऑनलाइन कार्यक्रमों के लिए वैसे जरिए से परहेज करने को कहा गया है जिनके सर्वर भारत से बाहर, विशेषकर भारत के प्रतिकूल देशों में स्थित हैं। इशारा जाहिरा तौर पर सबसे लोकप्रिय ज़ूम की तरफ है। संवेदनशील जानकारियों के आदान प्रदान या आंकड़ों की साझेदारी पर भी निगरानी रखी जाएगी।  

यह हुक्म सिर्फ विश्वविद्यालयों या शिक्षण संस्थानों के लिए नहीं है। शोध संस्थान, प्रयोगशालाएँ भी इसके घेरे में हैं। इस परिपत्र का अर्थ होगा व्यावहारिक रूप में किसी भी अकादमिक विचार विमर्श का अंत।

क्योंकि शायद ही कोई विषय हो जो भारत के अंदरूनी मामलों के दायरे से बाहर हो और संवेदनशील न मान लिया जाए! मसलन हम हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के रिश्ते पर बात कर सकते हैं? या भारतीय सभ्यता या संस्कृति से जुड़े विवादों पर? या कोरोना वायरस संक्रमण से जुड़े किसी प्रसंग पर? या पंजाबी भाषा के विकास या इतिहास पर? इनमें से हरेक भारत का अंदरूनी मसला है और कोई किसी से कम संवेदनशील नहीं है।  

शिक्षण संस्थाओं के प्रमुख अब शायद ही अकादमिक चर्चा या विचार विमर्श के किसी प्रस्ताव पर खुद निर्णय लें! जो समझदार भी हैं वे हर प्रस्ताव को अब सरकारी विभागों की इजाजत के लिए भेजना सुविधाजनक समझेंगे। खुद इजाजत देकर बाद में किसी शिकायत की सफाई के झमेले में पड़ना कौन चाहेगा? 

अगर इसके साथ आप उस प्रस्ताव को भी याद कर लें जो इस सरकार का है जिसके सहारे वह साइबर संसार की हर गतिविधि पर नज़र रखने के लिए स्वयंसेवकों की भर्ती करना चाहती है तो आपको पूरा परिदृश्य समझ में आयेगा। 

हजारों आँखों की निगरानी

हर ऑनलाइन गतिविधि अगर हजारों आँखों की निगरानी में है तो हर अधिकारी फूँक फूँक कर कदम उठाएगा। कोरोना वायरस संक्रमण के दौरान पैसे की कमी से जूझ रहे भारतीय शिक्षण संस्थानों के लिए एक दरवाजा खुला। ऑनलाइन माध्यम से वे बिना खर्चे के दुनिया के किसी भी विद्वान या विदुषी के ज्ञान का लाभ अपने छात्रों, शोधकर्ताओं को दे सकते थे। यह सिर्फ महानगरों तक सीमित न था। 

छपरा या बैतूल, कहीं से भी आप अमेरिका या स्वीडन या अफ्रीका की किसी विदुषी से बात कर सकते थे। इसने साधनों की कमी के बीच एक रास्ता खोला था। सरकार इससे बेखबर कैसे रह सकती थी? बस्तर के किसी कॉलेज से ऑस्ट्रेलिया के किसी पर्यावरण विशेषज्ञ की चर्चा धरती के भीतर छिपे धन से पूँजी पैदा करने का सपना देखनेवाले किसी कॉरपोरेट घराने के लिए असुविधाजनक हो सकती है। ज्ञान की साझेदारी कार्रवाई की एकजुटता में भी बदल सकती है। 

मनीला में लेखकों के एक सम्मलेन में कही गई एक बात याद आती है। लेखक भले एक-दूसरे से बात न करते हों, दुनिया के सारे तानाशाह ज़रूर एक दूसरे से बात करते रहते हैं और चर्चा करते रहते हैं। इसीलिए वे यह भी चाहते हैं कि जनता एक-दूसरे से बात न करे।

भारत सरकार के इस फरमान की विद्या जगत में ठीक ही आलोचना हो रही है। कोई इसे आज़ाद भारत में ज्ञान पर सबसे बड़ा हमला कह रहा है तो कोई भारत सरकार की दयनीय असुरक्षा भावना की अभिव्यक्ति कह रहा है। 

अकादमिक स्वतंत्रता पर बंदिश 

यह ज्ञान की या अकादमिक स्वतंत्रता का गला घोंट देने की कार्रवाई तो है, भारत के ज्ञान जगत को और इस तरह युवा दिल और दिमागों को बाहरी दुनिया से काट देने की साजिश भी है। वैसे भी पिछले 6 सालों में हर युवा को यही बतलाया जा रहा है कि शिक्षा का उद्देश्य राष्ट्रवाद पैदा करना है।  युवा छात्रों को शर्मिन्दा किया जा रहा है कि वे सीमा पर खड़े सैनिकों के मुकाबले कितने आरामतलब हैं। यह तो एक समझ है ही कि हमारे पूर्वजों ने सारा ज्ञान आविष्कृत कर लिया था। अब हमारा काम सिर्फ उसके कीर्तन का है।  

इतिहास हो या समाज शास्त्र या कोई और विषय, अब प्रत्येक शोध को राष्ट्रवाद और भारतीय गौरव की कसौटी पर कसा जाना है। ऐसी हालत में ईमानदार शोध संभव नहीं है। बाहर के विश्वविद्यालयों में भारत से संबंधित शोध हो रहे हैं और वहाँ कोई बंदिश नहीं है।

औरंगजेब हो या शिवाजी, इनपर जो किताब अमेरिका में मिलेगी, उसका संपादित संस्करण ही भारत में बिक सकेगा क्योंकि राष्ट्रवादी सेंसर अनेक प्रसंगों को खतरनाक ठहरा देगा। पिछले कुछ वर्षों में लेखकों का पाला संपादकों से ज्यादा अब प्रकाशनगृहों के वकीलों से पड़ता है जो एक-एक वाक्य की राष्ट्रवादी निगाहों से जांच करते हैं। 

ज्ञान को लेकर उदासीनता 

भारत में वैसे भी ज्ञान को लेकर एक सामाजिक और राजनीतिक उदासीनता की परम्परा रही है। ज्ञान सृजन में श्रेष्ठता की कोई महत्वाकांक्षा इस क्षेत्र में कभी भी नीति के स्तर पर दिखलाई नहीं पड़ी है। सहज बोध विचलित न हो, यह ख्याल रखा जाता है। ऐसी हालत में ज्ञान चर्चा का स्थान ही कहाँ है क्योंकि ज्ञान तो हमें अस्थिर करता है, अपने आपसे सवाल पूछने का नाम ही तो ज्ञान की तरफ आगे बढ़ना है!

इस भारत में टैगोर के उस सपने को कौन याद करे जो ज्ञानशाला को विश्वभारती मानते थे। विश्व से काट कर किसी आतंरिक सुरक्षा को निश्चित करनेवाले ज्ञान की कल्पना उनके लिए हास्यास्पद थी। विश्वविद्यालय का अर्थ ही है ब्रह्मांडीय मस्तिष्क। वह राष्ट्र के संकुचन में कैसे प्रस्फुटित हो सकता है?

ये सवाल करे कौन? सारे शिक्षण संस्थानों के प्रमुख असुरक्षित, औसत से भी कम दर्जे के दिमाग हैं।  जो बेहतर है वे भीरु और आत्मोत्थान चिंता में ग्रस्त हैं। समाज राष्ट्रवाद के नशे में चूर है। घिसटते भारत में ज्ञान की इस धीमी लेकिन निश्चित मृत्यु पर आँसू भी कौन बहाएगा? 

अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं।ये उनके निजी विचार हैं। सौज- सत्यहिन्दी

One thought on “भारत में ज्ञान की मौत पर आँसू कौन बहायेगा!- अपूर्वानंद”

  1. यही है तुग़लकी फ़ैसला सरकार का । यह समझने की बात है की सरकार ने यह फ़रमान जारी क्यों किया ।

Leave a Reply to Deeksha Dongre Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *