सोनिया यादव
सरकार के इस फैसले के पक्ष और विपक्ष में कई तर्क सामने आ रहे हैं। एक ओर मैटरनल मॉर्टेलिटी रेट को कम करने से लेकर बराबरी के हक़ तक की बात कही जा रही है तो वहीं दूसरी ओर लड़की के पसंद की शादी और एज ऑफ़ कन्सेंट को लेकर डर भी जाहिर हो रहा है।
“हमने लड़कियों की शादी की उम्र पर विचार करने के लिए एक कमिटी बनाई है। उस पर रिपोर्ट आने के बाद केंद्र इस पर फैसला लेगा।”
ये बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्रचीर से अपने संबोधन में कही थी। उन्होंने कहा था कि लड़कियों की शादी की उम्र को लेकर समीक्षा की जा रही है। समिति की रिपोर्ट आते ही बेटियों की शादी की उम्र को लेकर सही फ़ैसला किया जाएगा।
बता दें कि देश में शादी करने की न्यूनतम उम्र लड़कों के लिए 21 और लड़कियों के लिए 18 साल है। बाल विवाह रोकथाम क़ानून 2006 के तहत इससे कम उम्र में शादी ग़ैर-क़ानूनी है। अब सरकार लड़कियों के लिए इस सीमा को बढ़ाकर 21 करने पर विचार कर रही है। सांसद जया जेटली की अध्यक्षता में 10 सदस्यों की टास्क फ़ोर्स गठित हुई है, जो इस पर जल्द ही अपने सुझाव नीति आयोग को देगी। हालांकि अभी भी बड़ा सवाल यही है कि क्या शादी की उम्र बदलने से लड़कियों के जीवन में भी बदलाव आएगा?
हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, ठीक उसी तरह इस बात के भी पक्ष और विपक्ष में अपने- अपने तर्क हैं। बात अगर बड़े शहरों की हो, तो यहां अब लड़कियां पढ़ाई और करियर को लेकर ज्याद गंभीर दिखाई देती हैं जिसकी बदौलत उनकी शादी अमूमन 21 साल की उम्र के बाद ही होती है। लेकिन ग्रामीण भारत यानी छोटे शहरों, क़स्बों और गाँवों को देखा जाए, तो यहां लड़कों के मुक़ाबले लड़कियों को पढ़ाने और आगे बढ़ने के कम अवसर मिलते हैं। स्वास्थ्य सेवाओं तक भी उनकी पहुँच मुश्किल हा होती है। इन इलाकों में ज्यादातर लड़कियों की शादी जल्दी ही हो जाती है। बाल विवाह के मामले भी यहीं अधिक देखने को मिलते हैं।
यूनिसेफ़ के मुताबिक़ 18 साल से कम उम्र में शादी मानवाधिकारों का उल्लंघन है। इससे लड़कियों की पढ़ाई छूटने, घरेलू हिंसा का शिकार होने और प्रसव के दौरान मृत्यु होने का ख़तरा बढ़ जाता है। इसलिए अब सरकार के टास्क फ़ोर्स को लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाने पर फ़ैसला उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के हित को ध्यान में रखते हुए करना है।
मैटरनल मॉर्टेलिटी रेट
शादी की न्यूनतम उम्र बढ़ाने को लेकर सबसे बड़ा तर्क मैटरनल मॉर्टेलिटी रेट यानी मातृ मृत्युदर को कम करना बताया जा रहा है। कम उम्र में शादी को जल्दी की शादी कहा जाता है। इसकी वजह से लड़कियां गर्भवती भी जल्दी होती हैं, जिसके लिए शायद कई बार वो मानसिक या शारीरिक रूप से तैयार नहीं होती। ऐसे में प्रसव के दौरान या उससे जुड़ी समस्याओं की वजह से माँ की मौत तक हो जाती है।
यूनिसेफ़ के मुताबिक़ भारत में ऐसी माताओं के मौत का आंकड़ा साल 2000 में 1,03,000 था, जो साल 2017 में गिरकर 35,000 तक आ गया। फिर भी ये देश में किशोरावस्था में होने वाली लड़कियों की मौत की सबसे बड़ी वजह है।
नीति आयोग की वेबसाइट के मुताबिक भारत में सबसे ज्यादा मातृ मृत्यु दर आसाम में है। जहां पर एक लाख महिलाओं में बच्चे पैदा करते वक्त या उसके तुरंत बाद 237 महिलाओं की मौत हो जाती है। वहीं केरल में मैटरनल मॉर्टेलिटी रेट सबसे कम है। यहां प्रति लाख महिलाओं में 46 महिलाएं मौत हो जाती है।
नवभारत टाइम्स में छपी रिपोर्ट के मुताबिक़ बीते 5 सालों में देश के भीतर 3 करोड़ 76 लाख लड़कियों की शादियां हुईं। इनमें से 2 करोड़ 55 लाख शादियां ग्रामीण क्षेत्र में तो वहीं 1 करोड़ 21 लाख शादियां शहरी इलाकों में हुईं। आंकड़ों के अनुसार करोड़ों की संख्या में लड़कियों ने 18 से 19 साल के बीच में शादी की, तो वहीं 75 लाख लड़कियों ने 20 से 21 की उम्र में शादी की। इस रिपोर्ट की माने तो कुल ग्रामीण महिलाओं में से 60 फीसद 21 की उम्र के पहले ही ब्याह दी जाती हैं।
मैरिटल रेप को कम करना
एक अनुमान ये भी है कि सरकार की इस कवायद के पीछ सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला भी हो सकता है। जिसमें कोर्ट ने कहा था कि वैवाहिक बलात्कार यानी मैरिटल रेप से बेटियों को बचाने के लिए बाल विवाह को पूरी तरह से अवैध माना जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने विवाह के लिए न्यूनतम उम्र के बारे में फैसला लेने का काम सरकार पर छोड़ दिया था।
कई लोगों का मानना है कि शादी की उम्र बढ़ाने से मैरिटल रेप को कम किया जा सकता है। बाल विवाह की सूरत में लड़की दिमागी रूप से शारीरिक संबंधों के लिए तैयार नहीं होती। कई बार उसकी खुद की शारीरिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं होती की पति की ख्वाहिशों को पूरा कर सके। ऐसे में कई बार उसके साथ ज़ोर-जबरजस्ती का तरीका अपनाया जाता है। जिसके चलते लड़की के मान-सम्मान को ठेस तो पहुंचती ही है, उसकी जान तक पर बन आती है।
बराबरी का अधिकार
बराबरी के अधिकार की बात सामने रखते हुए वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने दिल्ली हाई कोर्ट में एक याचिका दायर करके मांग की थी कि लड़कियों और लड़कों के लिए शादी की उम्र का क़ानूनी अंतर ख़त्म किया जाए। इस याचिका पर केंद्र सरकार से जवाब मांगा गया था जिस पर सरकार ने बताया कि इस विषय पर गहन विश्लेषण के लिए टास्क फ़ोर्स का गठन किया गया है।
विधि आयोग ने भी समान नागरिक संहिता पर अपनी रिपोर्ट में शादी की उम्र पर विचार करते हुए कहा था, अगर बालिग़ होने की सभी यानी लड़का-लड़की के लिए एक ही उम्र मानी गयी है और वही उम्र नागरिकों को अपनी सरकारें चुनने का हक़ देती है तो निश्चित तौर पर उन्हें अपने जोड़ीदार/पति या पत्नी चुनने के लायक़ भी माना जाना चाहिए।
हालांकि कई लोगों का ये भी मानना है कि शादी जोड़े की मर्ज़ी से होनी चाहिए, उनका फ़ैसला, किसी सरकारी नियम का मोहताज नहीं होना चाहिए। टास्क फ़ोर्स के साथ इन्हीं सरोकारों पर ज़मीनी अनुभव बाँटने और प्रस्ताव से असहमति ज़ाहिर करने के लिए कुछ सामाजिक संगठनों ने ‘यंग वॉयसेस नेशनल वर्किंग ग्रुप’ बनाया।
बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा आदि पर 15 राज्यों में काम कर रहे 96 संगठनों की मदद से 12 से 22 साल के 2,500 लड़के-लड़कियों से उनकी राय जानने की क़वायद की गई। इसमें कई लोगों का कहना है कि महज़ कागज पर कानून बदलने से कुछ नहीं होगा, जब तक समाज में लड़कियों के प्रति सोच नहीं बदल जाती। उन्हें पढ़ने और बढ़ने के अवसर समान नहीं मिलने लगते, तब तक घर में लड़की की आवाज़ दबी ही रहेगी।
‘यंग वॉयसेस नेशनल वर्किंग ग्रुप’ की दिव्या मुकंद का मानना है कि माँ का स्वास्थ्य सिर्फ़ गर्भ धारण करने की उम्र पर निर्भर नहीं करता, “ग़रीबी और परिवार में औरत को नीचा दर्जा दिए जाने की वजह से उन्हें पोषण कम मिलता है, और ये चुनौती कुछ हद तक देर से गर्भवती होने पर भी बनी रहेगी।”
विपक्ष में क्या हैं तर्क?
शादी की न्यूनतम उम्र बढ़ाए जाने से जुड़ा एक डर ये भी है कि लड़कियों की जगह उनके माँ-बाप अपने मतलब के लिए इसका ग़लत इस्तेमाल कर सकते हैं। यानी अगर 18 साल की वयस्क लड़की जब परिवार के ख़िलाफ़ अपनी पसंद के लड़के से शादी करना चाहेगी, तो मां-बाप को उनकी बात ना मानने के लिए क़ानून की आड़ में एक रास्ता मिल जाएगा। ऐसे में शायद ये कानून लड़की की मदद की जगह ये उनकी मर्ज़ी को और कम कर देगा और उनके लिए जेल का ख़तरा भी बन जाएगा।
एज ऑफ़ कन्सेंट
भारत में ‘एज ऑफ़ कन्सेंट’, यानी यौन संबंध बनाने के लिए सहमति की उम्र 18 है। अगर शादी की उम्र बढ़ गई, तो 18 से 21 के बीच बनाए गए यौन संबंध, ‘प्री-मैरिटल सेक्स’ की श्रेणी में आ जाएँगे। ऐसे में गर्भ निरोध और अन्य स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं तक औरतों की पहुँच और कम होने का भी खतरा है।
गौरतलब है कि बजट 2020-21 को संसद में पेश करने के दौरान वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस संबंध में एक टास्क फोर्स बनाने का प्रस्ताव दिया था। इस दौरान उन्होंने शारदा अधिनियम का भी जिक्र किया था। जिसमें बदलाव की मांग को लेकर चर्चा ज़ोरो पर है।
शारदा एक्ट क्या है?
बाल विवाह की कुप्रथा को रोकने के लिए आज़ादी के पहले से ही कई बार शादी की उम्र में बदलाव किया गया। साल 1927 में राय साहेब हरबिलास शारदा, जोकि एक शिक्षाविद, न्यायाधीश, राजनेता और समाज सुधारक थे, उन्होंने बाल विवाह रोकने का विधेयक पेश किया और इसमें लड़कों के लिए न्यूनतम उम्र 18 और लड़कियों के लिए 14 साल करने का प्रस्ताव था। जिसके बाद 1929 में यह क़ानून बना। इसे ही शारदा एक्ट के नाम से जाना जाता है।
इस क़ानून में 1978 में संशोधन हुआ। इसके बाद लड़कों के लिए शादी की न्यूनतम उम्र 21 साल और लड़कियों के लिए 18 साल हो गयी। मगर तब भी कम उम्र की शादियां नहीं रुकीं। साल 2006 में इसकी जगह बाल विवाह रोकथाम क़ानून लाया गया। इस क़ानून में बाल विवाह कराने वालों के विरुद्ध दंड का भी प्रावधान किया गया।
शारदा एक्ट में ख़ामियां
वक़ील आर्शी जैन के मुताबिक शारदा एक्ट में एक बड़ी खामी ये थी कि इसमें बहुत कम सज़ा का प्रावधान था। सिर्फ 15 दिन जेल की सज़ा और एक हज़ार रुपये जुर्माना या दोनों ही हो सकते थे। जबकि मौजूदा क़ानून में दो साल जेल की सज़ा और एक लाख रुपये जुर्माने का प्रावधान है।
इसमें दूसरी समस्या ये थी कि इसमें कभी ये नहीं बताया गया कि जो शादी हुई है उसकी आगे क्या स्थिति होगी। यानी इसमें नाबालिगों की शादी कराना दंडनीय अपराध तो था लेकिन शादी वैध है या नहीं इस पर स्थिति स्पष्ट नहीं थी।
इसके अलावा शादी रुकवाने को लेकर कोर्ट का आदेश मिलने की प्रक्रिया का लोग आसानी से फायदा उठा लेते थे। नाबालिगों की शादी रुकवाने के लिए आप कोर्ट से आदेश तो ले सकते हैं। लेकिन, इसके लिए पहले अभियुक्त को नोटिस दिया जाएगा और उसका पक्ष सुना जाएगा। शिकायत सही साबित होने पर ही निषेधाज्ञा दी जाएगी। इन्हीं, सभी खामियों को देखते हुए बाल विवाह रोकथाम क़ानून, 2006 लाया गया।
जानकार क्या कह रहे हैं?
सेंटर फॉर सोशल रिसर्च से जुड़ी रही सीमा श्रीवास्तव का कहना है कि लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ने से उनके बेहतर विकास का दायरा बढ़ने की उम्मीद तो है लेकिन समाज में जब तक लड़कियों को जिम्मेदारी या बोझ मानने की प्रथा नहीं खत्म होती, तस्वीर बदलनी मुश्किल है।
गैर सरकारी संगठन वूमन प्रोटेक्शन ऑर्गनाइजेशन की ममता सिंह कहती हैं, “कानून में सिर्फ एक लाइन बदलने से कुछ नहीं होगा, जब तक लोगों की सोच नहीं बदलेगी। क्योंकि कानून और सज़ा तो आज भी है बावजूद इसके लड़कियों का शोषण नहीं रुक रहा। जरूरत है लोगों को समझने की कि लड़कियां सिर्फ शादी करने और बच्चा पैदा करने के लिए दुनिया में नहीं आती हैं, वो भी लड़कों की तरह ही आगे बढ़ना चाहती हैं।
सौज- न्यूजक्लिक