लेनिन की किताब के उस मुड़े हुए पन्‍ने में अटकी देश की जवानी

संदीप राउज़ी

प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी ने बीते रविवार को अपने 69वें मन की बातमें शहीदे आज़म भगत सिंह की बहादुरी और साहस का ज़िक्र करते हुए कहा कि क्या आज कोई कल्पना कर सकता है कि जिस अंग्रेज़ी राज में कभी सूरज नहीं डूबता था, वो 23 साल के नौजवान से भयभीत था!

मोदी ने इस महान क्रांतिकारी के 113वें जन्मदिन के ठीक एक दिन पहले उन्हें मैनेजमेंट गुरु साबित करने की कोशिश करते हुए कहा, “शहीद ‘वीर’ भगत सिंह के जीवन का एक और खूबसूरत पहलू यह है कि वे टीम वर्क की अहमियत बखूबी समझते थे।“

व्यापार को अपने खून में बता चुके मोदी, इस तरह भगत सिंह को आरएसएस की परम्परा वाले ‘वीरों’ की क़तार में ला पटकते हैं।

जिस विचारधारा से मोदी और उनकी पूरी ‘टीम’ आती है उसी की ओर से भगत सिंह को उनके विचारों से काट कर उन्हें साम्प्रदायिक कलेवर देने की बारम्बार कोशिश की जाती रही है। मोदी का भगत सिंह से ताज़ा ज़ाहिर प्रेम उसी का विस्तार भर है।

किसी को ताज्जुब हो सकता है कि भगत सिंह जिन विचारों के लिए जनता के दिलों में बसते हैं, उन पर मोदी ने एक शब्द ज़ाया नहीं किया।

वो ये छिपा गये कि 8 अप्रैल 1929 को पार्लियामेंट में बम फेंकते वक्त भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने जो पर्चा बांटा था उसकी शुरुआती लाइन थी- ‘बहरों को सुनाने के लिए धमाकों की ज़रूरत होती है।’ उन्होंने नहीं बताया कि भगत सिंह कह गये थे कि ‘गोरे अंग्रेज़ चले जाएंगे, उनकी जगह भूरे अंग्रेज़ आ जाएंगे।’

क्रांति, इंकलाब, नास्तिकता, अछूत समस्या, साम्राज्यवाद, साम्प्रदायिकता, बम का दर्शन और ऐसे ही तमाम मुद्दों पर व्यक्त किये गये भगत सिंह के विचार भारत के सत्ताधीशों के लिए उतने ही ख़तरनाक बने हुए हैं, जितने बरतानिया की हुक़ूमत के लिए कभी थे।

अभी-अभी संसद से तीन कृषि अध्यादेश और तीन लेबर कोड अध्यादेश सत्ता के जोर से पास कराकर उठे मोदी ने ये बताने की जहमत नहीं उठायी कि अंग्रेज़ों के लाये पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड्स डिस्प्यूट्स बिल के ख़िलाफ़ संसद में भगत सिंह और उनके साथियों ने बम फोड़ा था।

विडंबना ही है कि गोरों का बनाया पब्लिक सेफ़्टी बिल आज भी अलग अलग नामों और रूपों में आज़ाद भारत में मौजूद है। इसे इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी में मीसा के नाम से लागू किया और बाद की सरकारों ने पोटा, टाडा और यूएपीए के रूप में इसे नयी ऊंचाई दी। यानि, सरकारी मशीनरी की मनमानी के विरोध में उठी आवाज़ को जेल में पहुंचा देने का क़ानून।

इसका ताज़ा और ज्वलंत उदाहरण है कश्मीर जहां अनुच्छेद 370 हटाये जाने के बाद से ही वादी के शीर्ष नेताओं को पब्लिक सेफ़्टी एक्ट के तहत महीनों से घर में नज़रबंद करके रखा गया है। अब भी पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी की पूर्व सहयोगी महबूबा मुफ़्ती इसी एक्ट के तहत बंद हैं।

मोदी के कार्यकाल में बहुत सारे मानवाधिकार कार्यकर्ता, सामाजिक कर्मी, बुद्धिजीवी, छात्र और शिक्षक, जिनमें अधिकांश भगत सिंह के विचार मानने वाले हैं, इन्हीं क़ानूनों के तहत जेल में बंद हैं और बाकी लगातार जेल भेजे जा रहे हैं। भीमा कोरेगांव और दिल्ली दंगों के मामले में यूएपीए, अंग्रेज़ी हुकूमत के पब्लिक सेफ़्टी बिल से ज़्यादा दमनकारी साबित हुआ है।
1929 में लाये गये ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल का विरोध इसलिए हो रहा था क्योंकि आवश्यवक सेवा क्षेत्रों में हड़ताल का अधिकार ख़त्म कर दिया गया और औद्योगिक विवाद के अलावा किसी और राजनीतिक उद्देश्य के लिए हड़ताल को प्रतिबंधित कर दिया गया था।

ठीक 91 साल बाद सितम्बर 2020 में मोदी सरकार ने 44 श्रम क़ानून ख़त्म कर जो चार लेबर कोड बिल पास कराये हैं, उसमें ट्रेड डिस्प्यूट बिल की पूरी आत्मा मौजूद है। ट्रेड यूनियन के अधिकार इसमें इतने सीमित कर दिये गये हैं कि श्रम विभाग का कोई कारिंदा भी यूनियन की मान्यता को रद्द कर सकता है।

इन लेबर कोड में काम के घंटे 9 कर दिये गये, मज़दूरी और वेतन मालिक तय करेंगे, बोनस-भत्ता का ख़ात्मा हो चुका है और परमानेंट नौकरियों का बस ख़्वाब बचा रहेगा।

क्या अब भी इस बात का शक़ है कि गोरों के पब्लिक सेफ़्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल से भी ख़तरनाक़ क़ानून आज़ाद भारत की हकीक़त बन चुके हैं!

मज़दूर यूनियनें और किसान संगठन इन अध्यादेशों को ग़ुलामी का दस्तावेज़ बता रहे हैं, लेकिन ये ग़ुलामी कॉरपोरेट की है। अंग्रेज़ी राज की जगह भारत पर कंपनी राज पूरी तरह कायम हो चुका है। आने वाले समय में इस कंपनी राज के किले को सुरक्षित रखने के लिए और दमनकारी क़ानून बनेंगे, अंग्रेज़ी राज से भी भीषण।

हैरानी की बात नहीं है कि संसद के केंद्रीय कक्ष में सावरकर की तस्वीर तो है, जिन्होंने अंग्रेज़ों से रिहाई की बार-बार भीख मांगी थी और अंततः इस मुचलके पर छोड़े गये कि वे अंग्रेज़ी हुक़ूमत का सहयोग करेंगे। इसके लिए गोरों ने उन्हें पेंशन तक से नवाज़ा।

इसके उलट माफ़ी मांगने के बजाय ‘फांसी के बदले से गोली से उड़ा देने’ की अपील करने वाले भगत सिंह की तस्वीर आज तक संसद के केंद्रीय कक्ष में नहीं लगी। सत्ताधारी वर्ग का ये प्रेम है या छल, समझना मुश्किल नहीं।

बहुत दिलचस्प है कि आजकल जनमानस में अंग्रेज़ी राज की यादें ताज़ा हो रही हैं। किसानों, मज़दूरों, बेरोज़गारों, दलितों, आदिवासियों के संघर्षों में आम तौर पर एकबात सुनने को मिल ही जाएगी- हालात अंग्रेज़ी गुलामी से भी बदतर हो गये हैं।स्वाभाविक है कि क्रांतिकारियों की याद भी उसी मात्रा में तीव्रतर है। भगत सिंह पहले से अधिक प्रासंगिक लगने लगे हैं, उनकी याद और विचार जनता में और गहरे पैठ रही है।

इसे रोकना बेहद ज़रूरी है। उनके विचार को अप्रासंगिक बना देना आज के सत्ताधारियों की पहली प्राथमिकता है।
क्या मोदी, भगत सिंह के साथ वैसा ही करने वाले हैं जैसा महात्मा गांधी के साथ किया, उनके विचारों से काट कर उन्‍हें स्वच्छता अभियान के मिशन में लगा दिया गया!

विचारों को मारने की कला व्यापारियों से अधिक किसके पास होगी भला। जिस अनुपात में भारतीय अर्थव्यवस्था मिस-मैनेज हो रही है, हो सकता है कि आने वाले दिनों में किसी 15 अगस्त या 26 जनवरी को मोदी, बिड़ला की जागीर हो चुके लाल किले की प्राचीर से भगत सिंह को ‘टीम वर्क’ का गुरु घोषित कर दें और शहीदे आज़म भगत सिंह सरकारी कार्यालयों में मैनेजमेंट गुरू के फ्रेम में दिखना शुरू हो जाएं।

बस कल्पना ही की जा सकती है कि अगर आज भगत सिंह ज़िंदा होते तो मौजूदा हालात पर क्या प्रतिक्रिया देते और उनके विचारों के लिए भारत के सत्ताधारी उनके साथ क्या सुलूक करते!

हो सकता है कि जिस पब्लिक सेफ़्टी बिल का उन्होंने विरोध किया, उसी जैसे क़ानूनों यूएपीए या एनएसए के तहत जेल में होते या नज़रबंद कर दिये गये होते। या फिर लेबर कोड बिल और कृषि अध्यादेशों पर बहरों को सुनाने के लिए कोई और युक्ति तलाशते?

शुरू में फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वैलियाँ से प्रभावित भगत सिंह और उनके साथियों को इसकी सीमाएं समझ आ गयी थीं। जिस हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातान्त्रिक सेना (एचएसआरए) के भगत सिंह सदस्य थे, उसके अन्य सदस्यों पर रूस में 1917 की मज़दूर क्रांति का काफ़ी प्रभाव पड़ा था। अशफ़ाकउल्ला खां और रामप्रसाद बिस्मिल बोल्शेविक क्रांति की ओर उम्मीद भरी नज़रों से देख रहे थे।

एचएसआरए के घोषणापत्र को अंतिम रूप देते हुए भगत सिंह ने लिखा, “क्रांतिकारियों का विश्वास है कि देश को क्रांति से ही आज़ादी मिलेगी।” उनके लिए ‘मनुष्य के द्वारा मनुष्य के शोषण का ख़ात्मा’ ही असली आज़ादी थी। अपने तमाम लेखों में वे देश के किसानों और मज़दूरों में क्रांतिकारी विचारों को ले जाने की सलाह देते नज़र आते हैं।

भगत सिंह को जब फांसी दी गयी, उस समय वो रूसी क्रांति के नायक लेनिन की किताब ‘राज्य और क्रांति’ पढ़ रहे थे। पंजाब के क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह पाश ने भगत सिंह पर कविता लिखी है-

जिस दिन फांसी दी गई
उसकी कोठरी में
लेनिन की किताब मिली
जिसका एक पन्‍ना मुड़ा था।
पंजाब की जवानी को
उसके आखिरी दिन से
इस मुड़े पन्‍ने से बढ़ना है आगे
चलना है आगे।

दुर्भाग्य है कि जेल में लिखी भगत सिंह की जेल डायरी, भारत के आज़ाद होने के दो दशक बाद सामने आयी। उनके लिखे लेख आज भी किसी पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं हैं। इनके जन्मदिवस और शहादत दिवस के लिए सरकार कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं करती। जिस पार्लियामेंट में बम फेंका, वहां उनका नामोनिशां तक नहीं है।

भगत सिंह के शरीर को अंग्रेज़ी हुकूमत ने बोटी-बोटी काट कर नष्ट करने की कोशिश की थी, भारतीय सत्ताधारियों ने उनके विचारों को नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

अगर नरेंद्र मोदी के शब्दों को ही उधार लें, तो कहा जा सकता है कि क्या ये कल्पना की जा सकती है कि जिस भारतीय सत्ताधारी वर्ग का सूरज कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक नहीं डूबता, वो 90 साल पहले शहीद हो चुके 23 साल के नौजवान से इतना भयभीत है!

 सौज-न्यूजक्लिकः लिंक नीचे दी गई है https://junputh.com/column/politically-correct-on-bhagat-singh-and-modis-attempts-to-dilute-his-thought/  

2 thoughts on “लेनिन की किताब के उस मुड़े हुए पन्‍ने में अटकी देश की जवानी

  1. बहुत शानदार तर्कयुक्त विश्लेषणात्मक संग्रहणीय लेख। अनेक धन्यवाद।

  2. कितनी दुःखद स्थिति ! तब गोरे विदेशी भयभीत थे अब भूरे देशी भी भयभीत हैं । निश्चित रूप से उस मुड़े हुये पन्ने से आगे बढ़ना है आज के युवा वर्ग को पर उससे पहले उन्हें चेतना होगा ,जागना होगा , अपने को पहचानना होगा और अपनी ज़िम्मेदारी को अहसासना होगा । पर कैसे !

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