शरिया, मुस्लिमों के लिए धार्मिक संहिता है, जिसमें उनकी ज़िंदगी के हर पहलू, उनकी रोज़ की दिनचर्या, धार्मिक और पारिवारिक कर्तव्य, शादी और तलाक़ जैसे विवाह संबंधी प्रावधान के साथ-साथ वित्तीय लेन-देन पर निर्देश दिए गए हैं। लैंगिक स्तर पर निष्पक्ष सुधार किए जाने की जरूरत है, ताकि लैंगिक भेदभाव को ठीक किया जा सके, लेकिन इन सुधारों की मंशा साफ होनी चाहिए।
समान नागरिक संहिता के विमर्श पर काफी हो-हल्ला हुआ है। समान नागरिक संहिता, मुस्लिम क़ानूनों को ही हर बुराई की जड़ मानती है। खासकर महिला सशक्तिकरण में यह मुस्लिम क़ानूनों को बाधा मानती है। मोइन काजी समान नागरिक संहिता के पक्ष में दिए जाने वाले तर्कों के भ्रम को सामने रख रहे हैं।
हम सभी को समझने की जरूरत है कि मुस्लिम क़ानून किसी कठोर पत्थर पर उतारे गए नियम या बंदिशों के समूह से बहुत अलग हैं। मुस्लिम क़ानून या शरिया, बहुत सारी व्याख्याओं और लिखित दस्तावेज़ों का बड़ा संगम है, जो पांच बड़े और कई छोटे क़ानूनी संप्रदायों में समानांतर तरीके से विकसित हुए हैं।
शरिया मुस्लिमों के लिए वह संहिता है, जो उनके जीवन के सभी पहलुओं को छूती है, जिसमें प्रतिदिन की दिनचर्या, धार्मिक और सामाजिक कर्तव्य, शादी-विवाह से संबंधित मुद्दे जैसे शादी संपन्न कराना या तलाक देने और वित्तीय लेनदेन से संबंधित है।
लैंगिक स्तर पर निष्पक्ष सुधार किए जाने की जरूरत है, ताकि लैंगिक भेदभाव को ठीक किया जा सके, लेकिन इन सुधारों की मंशा साफ होनी चाहिए।
सुधार का समर्थन करने वालों का कहना है कि यह सुधार राज्य द्वारा किए जाने चाहिए। महान संसद सदस्य एडमंड बुर्के के शब्दों में बयां करें तो यह “एक निष्पक्ष जज की ठंडी तटस्थता” वाली स्थिति है। बुर्के ने कहा, “कोई भी व्यक्ति अपने अन्याय को अपनी ईमानदारी के प्यादे की तरह इस्तेमाल नहीं कर सकता।” राज्य मुस्लिमों से अपने विश्वास के अहम तत्वों को बदलने की उम्मीद नहीं कर सकता।
मुस्लिमों के लिए शरीयत में बदलाव, अगर वे वैधानिक हैं, तो सिर्फ कुरान की सीखों के हिसाब से ही हो सकते हैं। ऐसी वैधानिकता प्रदान करने वाले धार्मिक बुद्धिजीवियों के सहयोग के बिना आम मुसलमान बड़ी संख्या में इन बदलावों को स्वीकार नहीं करेंगे। इस पूरे घटनाक्रम में मौलवियों की भूमिका अहम हो जाती है। इनमें जो कट्टरपंथी हैं, वे सुधारवादियों के साथ आभासी और नागरिक युद्ध में मशगूल हैं।
महिलाओं के शोषण के लिए इस्लाम एकमात्र कारण नहीं हो सकता। स्थानीय सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षणिक ताकतों के साथ-साथ संबंधित क्षेत्र में मुस्लिम धर्स से पहले जारी रहने वाली परंपराओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
समान नागरिक संहिता को लैंगिक न्याय के लिए रामबाण के तौर पर पेश किया जा रहा है, जबकि ऐसा नहीं है।
कुछ समाजों में इनका व्यापक प्रभाव हो सकता है। लेकिन कई मामलों में मुस्लिम क़ानून लागू करने में आने वाली दिक्कतें अहम हैं, जिससे महिलाओं का विकास रुक जाता है।
मुस्लिमों को राज्य की उस जिद से चिंता है, जिसके तहत राज्य एक खास तरह का मुस्लिम पैदा करना चाहता है। राज्य नहीं चाहता कि यह लोग सामान्य तौर पर खुश रहें और अपने विश्वासों, परंपराओं, संस्कृतियों और दूसरे क्रियाकलापों को सामन्य तरीके से करें।
समान नागरिक संहिता महिलाओं की शिक्षा की गारंटी नहीं
मुस्लिम, समान नागरिक संहिता को चालाक हस्तक्षेप की तरह देखते हैं, जिस पर लैंगिक कल्याण का लबादा ओढ़ाया गया है, उन्हें लगता है इसके ज़रिए उनके धार्मिक और सांस्कृतिक विश्वासों में आगे औऱ हस्तक्षेप किया जाएगा।
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आर्थिक तौर पर सशक्त मुस्लिमों में उत्पीड़न वाली प्रथाएं कम ही पाई जाती हैं। मुस्लिम परिवारों में गरीबी रुढ़िवाद की मूल वज़ह है। आर्थिक मजबूती वह तरीका है, जो बहुत तरह का सशक्तिकरण कर सकता है। यह आपको बेहतर शिक्षा, बेहतर आवास और बेहतर स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करवाता है।
यह एक ऐसा आभासी चक्र बनाता है, जो दुनिया को देखने का आपका नज़रिया बदल देता है। आज मुस्लिम महिलाएं के सामने सबसे बड़ी समस्या आर्थिक है। इन नागरिक अधिकार समाधानों से सुलझने के आसार कम ही हैं। लेकिन आर्थिक विकास के लिए सार्वजनिक और निजी हस्तक्षेप से इन समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। धार्मिक मुक्ति से ज़्यादा आज मुस्लिम महिलाओं को आर्थिक मुक्ति की जरूरत है।
समान नागरिक संहिता को लैंगिक न्याय लाने के लिए रामबाण की तरह पेश किया जा रहा है, जबकि ऐसा नहीं है। निश्चित तौर पर यह उन आदर्श स्थितियों को पैदा नहीं कर पाएगा, जिनका वायदा किया जा रहा है।
आज सबसे ज्यादा जरूरत मुस्लिम गरीबी के दलदल को साफ करने की है। यह दलदल अशांति और कुंठा पैदा करता है, जो शारीरिक और मानसिक हिंसा की वज़ह बनता है।
मुस्लिम महिला नेताओं का मानना है कि बुनियादी तौर पर इस्लाम महिलाओं के लिए प्रगतिशील है और पुरुष व महिलाओं के लिए समान मौके उपलब्ध करवाता है।
विरोधियों का तर्क है कि पारंपरिक क़ानूनों से उलट बहुत सारे विकल्प मौजूद हैं। इनमें ‘भारतीय विवाह अधिनियम’, ‘इंडियन डॉयवोर्स एक्ट’, ‘इंडियन सक्सेशन एक्ट’, ‘इंडियन वार्ड्स एंड गार्जियनशिप एक्ट’ जैसे क़ानून शामिल हैं, जो धर्मनिरपेक्ष विकल्प सामने रखते हैं।
यह क़ानून भारतीयों को शादी करने की अनुमति देता है, साथ ही नागरिकों के ऊपर धर्मनिरपेक्ष तरीके से सीधे नागरिक क़ानूनों से प्रशासन की व्यवस्था बनाते हैं। इसलिए हर किसी पर धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता के पालन की बाध्यता को नहीं थोपा जाना चाहिए।
मुस्लिम नेताएं मानती हैं कि बुनियादी तौर पर इस्लाम महिलाओं के लिए प्रगतिशील है और पुरुष व महिलाओं को समान मौके देता है। वह लोग उस क़ानून से कभी सहमत नहीं होंगे, जो उनके इस्लामी विश्वासों को दूर करता हो।
वह गहरे तौर पर धार्मिक हैं और काफ़ी दृढ़निश्चयी हैं। हर मायने में यह महिलाएं आधुनिक हैं। यह महिलाएं ना केवल अपने समाज द्वारा लगाई गई बंदिशों को चुनौती दे रही हैं, बल्कि पश्चिम की दुनिया द्वारा अपने बारे में किए गए सामान्यीकरण और थोपी गई राय को ललकार रही हैं। यह महिलाएं अपने अधिकारों के लिए एक इस्लामी विमर्श में ही जगह खोजती हैं।
यह महिलाएं कोशिश कर रही हैं कि शताब्दियों के इस्लामी न्यायशास्त्र को कांटछांट उनके धर्म के प्रगतिशील पहलू को दिखाया जाए।
मुस्लिम महिला नेत्रियां, महिलाओं के लिए आधुनिक भूमिका और दुनिया भर में एक अरब से ज़्यादा लोगों द्वारा माने जाने इस्लामी मूल्यों के बीच जगह खोज रही हैं।
इस विमर्श के कुछ नेता पुरुष हैं, यह विशेष शोधार्थी और बुद्धिजीवी हैं, जिनका कहना है कि इस्लाम क्रांतिकारी तरीके से समतावादी है, जो इसके धार्मिक दस्तावेज़ों में भी झलकता है।
श्रीलंका में मुस्लिम खूब अच्छे ढंग से एकता सूत्र में बंधे हैं, वहां उनका अलग पर्सनल लॉ है, जिसकी न्यायविदों ने भी तारीफ की है। सिंगापुर और इज़रायल में भी मुस्लिम पर्सनल लॉ को मान्यता दी गई है।
सुधार एक ऐसा बिगड़ैल घोड़ा होता है, जिसे काफ़ी नियंत्रित करने की जरूरत होती है, नहीं तो यह बहुत नुकसान पहुंचा सकता है।
अहरॉन लेयिश ने जुलाई, 1973 में “द शरिया इन इज़रायल” नाम से एक पेपर लिखा। इज़रायल का शरिया कोर्ट सिस्टम वहां के सामान्य नागरिक क़ानून वाले विकल्प से ज़्यादा बेहतर है। यह व्यवस्था वहां आधुनिक और विकसित समाज की मांग के साथ मेल करते हुए विकसित हो रही है। इज़रायल के धार्मिक कोर्ट वहां के न्यायिक ढांचे का हिस्सा हैं। यहां आवेदन लगाने वालों के पास धार्मिक या नागरिक कोर्ट, दोनों में से किसी एक में मुक़दमा दायर करने का विकल्प होता है।
इज़रायल में शरिया कोर्ट सुन्नी न्यायशास्त्र के हनाफ़ी क़ानूनी संप्रदाय का पालन करते हैं, वहीं उस्मानिया सल्तनत के दिनों से जारी कुछ क़ानून आज भी मौजूद हैं।
दोबारा विचार करने की ज़रूरत
सुधार एक बिगड़ैल घोड़ा होता है, जिसे नियंत्रित करने की जरूरत होती है, नहीं तो यह बहुत नुकसान पहुंचा देता है। आधुनिक रवैया, विविधता को स्वीकार करने का है।
चाहे वह धार्मिक निगरानी, सांस्कृतिक निगरानी, पारिवारिक निगरानी या सामुदायिक निगरानी की बात हो, मुस्लिम धार्मिक नेताओं को अपनी भूमिका को ठीक ढंग से समझने की जरूरत है।
मुस्लिम द्वारा सरकार के तीन तलाक क़ानून का मुख्य विरोध, क़ानून के ज़रिेए तीन तलाक के आपराधिकरण की वज़ह से था। यह विरोध एक कुत्सित एजेंडे के चलते, जरूरत से ज़्यादा सुधारवादी प्रवृत्ति के सुधार का था।
अलग-अलग तरह के लोग सिर्फ एक दृष्टिकोण रखते हैं: एक मानवीय, दयाभाव रखने वाले और सांस्कृतिक तौर पर परिष्कृत ढांचे का विकास हो, जिसमें महिलाओं की स्थिति बेहतर करने की मंशा हो। जो उनके लिए सम्मान रखता हो। खासकर तब जब कुरान और उसके पैगंबर ने महिलाओं को बहुत ऊंचा दर्जा दिया है।
आज के मुस्लिम प्रगतिशील पीढ़ी से हैं। आज वे अपनी कई बाध्यकारी रुढियों और परंपराओं, जिनका समर्थन कुरान नहीं करता, उन्हें दूर करने का हिमायती हैं।
धार्मिक नेतृत्व का एक बड़ा हिस्सा तीन तलाक को लाने का हिमायती है, लेकिन मुख्यधारा का आम मुसलमान उस घृणित प्रथा का समर्थक कभी नहीं रहा। मुस्लिम द्वारा सरकार के तीन तलाक क़ानून का मुख्य विरोध, क़ानून के ज़रिेए तीन तलाक के आपराधिकरण की वज़ह से था। यह विरोध एक कुत्सित एजेंडे के चलते, जरूरत से ज़्यादा सुधारवादी प्रवृत्ति के सुधार का था।
काज़ी सैय्यद करीमुद्दीन समान नागरिक संहिता पर चर्चा के दौरान संविधान सभा में इसके सबसे बड़े विरोधी थे। जबकि वे खुद एक बहुत प्रगतिशील और आगे की ओर नज़र रखने वाले मुस्लिम थे, जिन्होंने अपने बच्चों को देश के प्रमुख संस्थानों से शिक्षा दिलवाई थी।
धार्मिक विविधता, स्वतंत्रता और विकास के बीच आपस में संबंध होता है। अगर यह चीजें आपस में सामंजस्य बनाकर नहीं रह पाती हैं, तो धार्मिक समुदाय कभी एक ऐसा समाज नहीं बना पाएंगे, जो एक होकर काम कर सके।
एक सांस्कृतिक और नैतिक शक्ति के तौर पर धार्मिक स्वंतत्रता बेहद अहम होती है। हम सभी को समझना होगा कि सभी धर्मग्रंथ में मानवीय अध्यात्मिकता को सुरक्षित रखने का ही संदेश दिया गया है।
किसी भी तरह का सामाजिक विकास, भौतिक खुशहाली या मानवाधिकार धार्मिक ग्रंथों के अनंत प्रभाव को कम नहीं कर सकता। धार्मिक ग्रंथों से निर्देशात्मक भटकाव केवल क्षणिक होता है। अध्यात्मिकता के लिए जरूरी होता है कि दैवीय ग्रंथ की बातें स्थायी हों। कुरान के साथ भी ऐसा ही है, जिसका आम मुसलमान की जिंदगी पर बहुत ज़्यादा नैतिक प्रभाव होता है।
यह लेख मूलत: द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।
(मोइन क़ाज़ी एक डिवेल्पमेंटल प्रोफेशनल हैं। यह उनके निजी विचार हैं।) सौज- न्यीजक्लिक-
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