हे विदूषक तुम मेरे प्रियः प्रभाकर चौबे 10 वीं कड़ी – नाक रगड़ने पर बौध्दिक चर्चा

सुप्रसिद्ध साहित्यकार,प्रतिष्ठित व्यंग्यकार व संपादक रहे श्री प्रभाकर चौबे लगभग 6 दशकों तक अपनी लेखनी से लोकशिक्षण का कार्य करते रहे । उनके व्यंग्य लेखन का ,उनके व्यंग्य उपन्यासउपन्यासकविताओं एवं ससामयिक विषयों पर लिखे गए लेखों के संकलन बहुत कम ही प्रकाशित हो पाए । हमारी कोशिश जारी है कि हम उनके समग्र लेखन को प्रकाशित कर सकें । हम पाठकों के लिए उनके व्यंग्य उपन्यासहे विदूषक तुम मेरे प्रियको धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं । विदित हो कि इस व्यंग्य उपन्यास का नाट्य रूपांतरभिलाई के वरिष्ठ रंगकर्मी मणिमय मुखर्जी ने किया है । इसका भिलाई इप्टाद्वारा काफी मंचन किया गया है ।आज प्रस्तुत है 

नाक रगड़ने पर बौध्दिक चर्चा

सेनापति ने कहा-महाराज, आप पिछले सप्ताह से नाक पर रुमाल रखे हुए हैं।

महाराज ने कहा-पिछले हफ्ते से नहीं, दो साल से नाक पर रुमाल रखे घूम रहा हूँ। हर रोज पाँच रुमाल लगते हैं। महीने में एक सौ पचास रुमाल। साल भर में…।

खजांची ने बीच में ही कहा-अट्ठारह सौ रुमाल।

दीवान ने कहा-खजांची जी हिसाब रखते हैं इसलिए खर्च का पता है।

महाराज ने कहा-ये तो मेरे रुमाल का हिसाब हुआ।

महारानी भी पांच साल में अट्ठारह सौ रुमाल उपयोग करती हैं।

खजांची ने कहा-और युवराजों के लिए रुमाल पर जो खर्च है सो अलग।

महाराज ने कहा-लेकिन क्या करें। नाक पर रुमाल रखना ही पडता है, पूरे राज्य में गंदगी फैली है। आप लोग भी नाक में रुमाल रखिए।

दीवान ने कहा-महाराज, हमारी नाक ही नहीं है।

विदूषक ने कहा-महाराज, दरबारियों की नाक नहीं होती। नाक तो प्रजा के पास होती है।

महाराज ने कहा-विदूषक जी, आप कह रहे हैं, तो ठीक ही होगा, लेकिन इनकी नाक तो दिखाई दे रही है।

विदूषक ने कहा-ये सो सांस लेने के लिए राजा ने छोत्रड रखी है।

नाक से सांस लें, नाक ऊँची न रखें। महराज दरबार में जो शामिल हो वह अपनी नाक घर में छोत्रडकर यहाँ आए। दरबारी, कवि या साहित्यकार बनने वालों की नाक केवल घिसने के लिए होती है।

महाराज ने कहा-लेकिन ऐसे साहित्यकारों को दरबार में मैं देखता हूँ, उनकी नाक की नोंक ही चमकदार होती है।

विदूषक ने कहा-महाराज वह नाक की नहीं, आपकी कृपा की चमक है जो उनकी नाक पर बैठ जाती है।

महाराज ने कहा-जैसे नाक पर मक्खी बैठती है।

विदूषक ने कहा-दरबारी कवि, साहित्यकार अपनी नाक पर मक्खी बैठने नहीं देते, उनकी नाक की नोक आपकी कृपा के बैठने के लिए आरक्षित है।

महाराज ने कहा-लेकिन प्रजा तो इनका सम्मान करती है दरबारी कवियों को देखकर प्रजा राजा की ताकत का लोहा माने, बात हमारी समझ में नहीं आ रही। जरा स्पष्ट करें, विदूषक जी।

विदूषक ने कहा-महाराज, इन दरबारी कवियों की नाक देखकर प्रजा मन ही मन कहती है कि देखा राजा की ताकत, अच्छे-अच्छे कवियों की नाम घिसवा दीा। नाक रगडते रहते हैं दरबार में। ऐसा सोचकर, आपकी ताकत पर तालियाँ बजाती हैं। प्रजा और ये दरबारी कवि समझते हैं कि प्रजा उनका स्वागत-सम्मान कर रही है।

महाराज ने पूछा-विदूषक जी, आप बहुत विद्वान हैं। आज नाक पुराण हो जाए।

विदूषक ने कहा-जो आज्ञा महाराज। आप क्या जानना चाहते हैं, पता चले तो बखान करूँ।

महाराज ने कहा-ये बताइए विदूषकजी कि क्या नाक लेकर कोई दरबारी बन सकता है।

विदूषक जी ने कहा-यह तो पूर्व में ही स्पष्ट किया जा चुका है। महाराज नाक नीची कर ही दरबारी बना जा सकता है।

महाराज ने कहा-लेकिन हे विद्वान विदूषक यह जिज्ञासा शांत कीजिए कि दरबारी बनना है तो दरबार में आने से पहले नाक घिसाओ या दरबार में शामिल होने के बाद नाक घिसाओ।

विदूषक ने कहा-महाराज, आपने अच्छा सवाल पूछा। जब से राजा का जन्म हुआ तब से यह प्रथा चलाई गई है कि दरबार में शामिल होने का इच्छुक व्याक्तिं अपनी नाक छोटी कराकर आए। महाराज दरबार में शामिल होने पर अगर नाक ऊँची रखी तो नाक नहीं घिसी जाती…।

दीवान ने पूछा-तो ऐसे ऊँची नाक वाले दरबारी के साथ क्या बर्ताव किया जाता है?

विदूषक ने जोर से ठहाका लगाया, फिर बोला-महाराज, लगता है दीवानजी नए-नए नियुक्त हुए हैं। उन्हें पता होना चाहिए कि दरबार में नाक ऊँची रखने वाले की नाक नहीं घीसी जाती, उसकी गर्दन उत्रडा दी जाती है। दरबारों में गर्दन उत्रडाने का आंकत्रडा रखा गया होता तो महाराज पता चलता कि दरबार में ऊँची नाक के कारण ही हजारों की गर्दन भरे दरबार में उत्रडा दी गई।

महाराज ने कहा-वाह विदूषक जी, आपका ज्ञान अद्भुत है। हमारे दरबार में एकाध ऊँची नाक वाला है।

विदूषक ने कहा-कोई नहीं है महाराज, सबकी नाक नाप ली गई है। कुछ की नाक तो दिन-ब-दिन छोटी होते जा रही है। जिसकी नाक जितनी घिसती है, दरबार में वह उतना ज्यादा सम्मान और पुरस्कार का अधिकारी होता है।

महाराज ने कहा-हमने अपने राज में कितने नाक घिसों को पुस्कृत किया होगा विदूषक जी।

विदूषक ने कहा-यह तो खजांची बता सकते हैं। लेकिन इतना सत्य है कि नाक घिसे बिना दरबार में नहीं रह सकते। पुरस्कार पाना है तो नाक घिसो। कुछ साहित्यकार नाक घिसाकर सब पा रहे हैं।

महाराज ने कहा-एक जिज्ञासा और है विदूषक जी।

विदूषक ने कहा-व्यक्त करें महाराज।

महाराज ने कहा-नाक घिसाने की प्रक्रिया कैसी होती है। मतलब तरीका क्या है नाक घिसाने का।

विदूषक ने कहा-महाराज, सच तो यह कि जिसे नाक रगडना ही हो उसके लिए तरीका कष्टदायी नहीं है। प्रक्रिया सरल है।

महाराज ने मचलते हुए-सा कहा-बताइए न विदूषक जी हमें बडी उत्सुकता है यह जानने की कि नाक कैसे घिसी जाती है।

विदूषक ने कहा-महाराज जिन्हें अपनी नाक घिसानी होती है वे नाक घिसा चुके अनुभवी के पास पहुँच जाते हैं। वे अनुभवी ऐसे इच्छुकों को अपना शिष्य बना लेते हैं और अपनी घिसी नाक तथा दरबार से मिले सम्मान दिखाते हैं। नाक घिसाने के इच्छुक समझते चलते हैं और धीरे-धीरे सीख जाते हैं। इसके बदले पुरस्कार का कुछ अंश प्रशिक्षण देने वालों को मिल जाता है। साहित्य, कला, विद्वानों के समाज में ऐसे लोग होते हैं जो नाक घिसा चुके होते हैं। वे ऊँची नाक रखने वालों को रद्दा मार-मारकर नाक घिसाऊ बना देते हैं। जहाँ किसी कवि की नाक घिसी कि उसे तुरंत दरबार में प्रवेश दिला देते हैं। उनका काम सबको दरबारी बनाना होता है।

महाराज ने कहा-दरबारी बनाने के काम में लगे विद्वानों, साहित्यकारों को राजकोष से कुछ पारिश्रमिक दिया जाता है क्या?

मंत्री ने कहा-हां, महाराज, दरबारी बनना राजकाज का अनिवार्य कार्य है और ऐसे काम में लगे विद्वानों को राजकोष पूरा ध्यान रखता है। उन्हें खूब सम्मान प्राप्त है। सारी राजकीय सुविधाएँ उन्हें मुहैया कराई जाती हैं।

महाराज ने कहा-बहुत बत्रिढया। अच्छा दीवानजी आज हमारा मन हो रहा है कि सारे दरबारियों की नाक छूकर देखें। कवियों की नाक छुएं। किसी की नाक ऊँची तो नहीं हो गई। सारे दरबारी अपनी नाक छूने लगे।

विदूषक ने कहा-महाराज, हर एकादशी को दरबारियों की नाक नापी जाती है। सबकी नाक मर्यादा में है। पूर्णिमा को कवियों की नाक नापी जाती है। इस बार सब की नाक एकदम निर्धारित नाप की मिली।

महाराज ने कहा-कवियों की नाक पूर्णिमा को क्यों नापी जाती है?

विदूषक ने कहा-पूर्णिमा की चांदनी रात में कवि ज्यादा उत्साहित होकर काव्य रचना करने लगते हैं। ऐसा न हो कि काव्य रचना करते हुए नाक ऊँच करें इसलिए कवियों की नाक पूर्णिमा की रात में नापी जाती है।

महाराज ने कहा-वाह! विदूषक, वाह! आपने नाक को मर्यादा में रखने की पूरी व्यवस्था कर ली। हम खुश हुए। दरबारी कवि भी खुश हैं। अपनी नाक नीची रखने का पूरा पुरस्कार पा रहे हैं।

विदूषक ने कहा-हाँ, महाराज, इसीलिए हर साल पुरस्कारों की संख्या बढाई जा रही है। ज्यादा से ज्यादा कवि दरबारी बनें, यशगान लिखें।

महाराज ने कहा-आज हम बहुत खुश हुए। अब सभा को यहीं खत्म ज्ञारो।

अगले अंक में जारी….

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