हम मिनियापोलिस की घटना से आहत हैं, हमें तमिलनाडु नहीं दिखता

प्रीति सिंह

जब पिछड़े वर्ग या अनुसूचित वर्ग के लोगों के संवैधानिक हकों पर डकैती पड़ती है तो सवर्ण समाज को खुशी महसूस होती है. उन्हें इस बात का अहसास नहीं हो पाता कि ताकतवर तबका उनके भी हकों को लूट रहा है.

तमिलनाडु के तूतीकोरिन जिले में मोबाइल फोन कारोबारी जयराज और उनके बेटे इमैनुअल फेनिक्स को पुलिस ने एक अस्थायी जेल में ले जाकर बुरी तरह पीटा उनके गुदा में लाठी घुसा दी गई. गुप्तांगों को इतनी बुरी तरह काटा गया था कि 20 जून 2020 को सुबह 7 बजे से 12 बजे के बीच 7 लुंगियां खून से लथपथ हो गईं. दोनों की मौत हो गई. उनका अपराध ये बताया गया कि उन्होंने लॉकडाउन के दौरान दुकान खुली रखी थी.

यह कुछ उसी तरह की या उससे भी ज्यादा वीभत्स घटना है, जैसे कुछ माह पहले अमेरिका के मिनियापोलिस में अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस द्वारा हत्या कर दी गई थी. उस घटना के खिलाफ अमेरिका ही नहीं, पूरी दुनिया में आक्रोश थमने का नाम नहीं ले रहा है. यहां तक कि इस आक्रोश के बीच भारत के लिए फेयर ऐंड लवली क्रीम बनाने वाली कंपनी ने एचयूएल ने क्रीम के नाम से फेयर निकालने और लॉरेल ने फेयर ऐंड व्हाइट में से फेयर निकालने का फैसला किया है. वहीं, भारत में 19 जून को हुई तमिलनाडु की घटना के बाद देश में कोई आक्रोश नहीं है. स्थानीय कारोबारियों व कार्यकर्ताओं की मांग भी थाने के उन 13 पुलिस कर्मियों के खिलाफ कार्रवाई तक सीमित है, जिन्होंने कथित रूप से कारोबारी को पीटा. उत्तर भारत संभवतः इस खबर से पूरी तरह बेखबर है. केवल उत्तर भारत ही नहीं, जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या से तिलमिलाए बॉलीवुड से लगायत उद्योग जगत भी खामोश है.

भारत में यह इकलौती घटना नहीं है, जब आम नागरिक पुलिस की बेरहमी के शिकार बने हैं. हाल के वर्षों की घटनाओं को देखकर लगता है कि उत्तर प्रदेश दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की कब्रगाह बन चुका है. नोएडा के जिम ट्रेनर जितेंद्र कुमार यादव, लखनऊ में ऐपल कंपनी के कर्मचारी विवेक तिवारी को गोली मारने, नगीना में बच्चों की बेरहमी से पिटाई ,मुजफ्फरनगर में हॉस्टल प्रभारी व विद्यार्थियों की पिटाई और गुदा में लाठी डालकर मारने के आरोप, हापुड़ में सिक्योरिटी गार्डप्रदीप तोमर को पेंचकस से गोंदने और बिजली के झटके देने, उन्नाव में कथित रेप पीड़िता के पिता की थाने में बर्बर पिटाई और मौत, प्रतापगढ़ में घर में घुसकर महिलाओं की पिटाई और पीड़ितों पर ही पुलिस कार्रवाई जैसे अनेक मामले हैं, जो हाल के वर्षों में हुए हैं. इन घटनाओं के खिलाफ भारतीय समाज में कहीं कोई हलचल नहीं नजर आती.

दलित, पिछड़े और मुस्लिम हो रहे हैं शिकार

इन घटनाओं में एक साझा बात होती है कि पुलिस उत्पीड़न के शिकार ज्यादातर दलित, पिछड़े और मुस्लिम समुदाय के लोग रहे हैं. लखनऊ के विवेक तिवारी का मामला इसमें अपवाद माना जा सकता है, जिस घटना के बाद भरपूर हंगामा हुआ और विवेक तिवारी के परिजन को न केवल मोटी आर्थिक मदद दी गई. बल्कि पीड़ित के परिजन को क्लास वन की पक्की सरकारी नौकरी भी दी गई.

वहीं, अमेरिका में अश्वेत की हत्या के खिलाफ पूरे अमेरिका में प्रदर्शन हुए. घुटने पर बैठी, क्षमा मांगती पुलिस की तस्वीरें आईं. यूरोप के कई देशों में कोरोना के खौफ से दूर होकर हजारों की संख्या में लोग सड़कों पर उतरे. इंग्लैंड के ब्रिस्टल शहर में लगी 17वीं सदी के गुलाम व्यापारी एडवर्ड कोल्सटन की मूर्ति को ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलनकारियों ने उखाड़ डाला. अमेरिका को उपनिवेश बनाने के लिए 4 अभियानों का नेतृत्व करने और नरसंहार कराने वाले क्रिस्टोफर कोलंबस की मूर्तियों को तोड़ा जाना जारी है और हाल में 23 जून 2020 को वारसेस्टर में उसकी मूर्ति को क्षतिग्रस्त किया गया.

आंदोनलकारियों ने फ्रांस की राजधानी पेरिस में भी 23 जून 2020 को फ्रांस के संसद भवन में लगी ज्यां बैप्टिस्ट कोलबर्ट की मूर्ति को लाल रंग पोत दिया, जिसने 17वीं सदी में रॉयल मिनिस्टर रहते दासों पर शासन करने के नियम तैयार किए थे.

वहीं, भारत में राजस्थान उच्च न्यायालय में लगी मनु की मूर्ति के खिलाफ कोई नहीं बोलता, जिसने निम्न जातियों के खिलाफ भारत का कानून बनाया था. भारत में जब मनु के खिलाफ बोला जाता है, तो उसके उग्रवादी समर्थक तो सीधा विरोध करते हैं और जो कथित रूप से उदारवादी होते हैं, उनका तर्क यह होता है कि वह इतिहास की बात है. उसे दोहराने की क्या जरूरत है.

दलितों और पिछड़ों पर होने वाले मौजूदा उत्पीड़नों पर कोई सामूहिक आंदोलन नहीं चलाया जाता. बल्कि उसे स्थानीय परिघटना मानकर उसे कुछ सिपाहियों या कुछ लोगों की गलती मान ली जाती है. इस पर विचार भी नहीं होता कि अगर इसके पीछे कोई मानसिक सोच नहीं है तो एक ही साल में देश के कोने-कोने में बार-बार इस तरह की घटनाएं क्यों होती हैं? अक्सर इसके शिकार दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक क्यों बनते हैं, जो भारत की शासन प्रणाली और मलाई से वंचित रखे गए हैं. विरोध करने वाले अमेरिका में फ्लॉयड की हत्या को नाजायज, घृणित मानते हैं. उसके खिलाफ ट्वीट करते हैं, वहीं भारत मेंदलितों, आदिवासियों के मामलों में संभवतः वे यथास्थितिवादी हैं और मानकर चलते हैं कि जो चल रहा है, वह पीड़ितों की नियति है.

उत्पीड़न का खतरा हर समाज तक पहुंचेगा

सामूहिक विरोध न करने की एक संभव वजह यह हो सकती है कि भारत का सवर्ण या इलीट तबका अभी खतरे को भांप नहीं पाया है, जो यूरोप या अमेरिका का सभ्य समाज भांप रहा है. अमेरिका व यूरोप के सभ्य समाज में अब इतनी जागरूकता आ गई है कि जिससे उसे लगता है कि किसी अश्वेत को मारना गलत है और अगर पुलिस या नस्लवादी या ताकतवर लोगों को कानून हाथ में लेने की छूट मिली तो वह श्वेत लोगों को भी शिकार बना सकते हैं, जो ताकतवर नहीं हैं और आम नागरिक हैं. वहीं भारत में अब भी जब पिछड़े वर्ग या अनुसूचित वर्ग के लोगों के संवैधानिक हकों पर डकैती पड़ती है तो सवर्ण समाज को खुशी महसूस होती है. उन्हें इस बात का अहसास नहीं हो पाता कि ताकतवर तबका उनके भी हकों को लूट रहा है.

इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है. मान लीजिए कि किसी विश्वविद्यालय में 20 रिक्तियां आती हैं. उसमें नियमतः 10 सीटें एससी-एसटी-ओबीसी के लिए आरक्षित किए जाने की संवैधानिक बाध्यता है. लेकिन न्यायालय के फैसलों से लगातार विश्वविद्यालय के अप्वाइंटिंग अथॉरिटी एकल सीट बनाकर या रोस्टर प्रणाली में बदलाव कर ऐसी तिकड़म लगाते हैं कि एससी-एसटी-ओबीसी को एक भी सीट न मिले. आरक्षण न पाने वाला कथित सवर्ण तबका यह सोचकर खुश हो जाता है कि यह सीटें सामान्य हो गईं और इन पर किसी कथित प्रतिस्पर्धा से उन्हें जगह मिल सकती है. लेकिन हकीकत कुछ और है. जो प्राधिकारी इस तरह के कानून की धज्जियां उड़ाते हैं, वह साफ सुथरी परीक्षा और साक्षात्कार की भी धज्जियां उड़ाते हैं और उन 20 सीटों पर फेयर सेलेक्शन नहीं होता. उसका परिणाम विश्वविद्यालय से न्यायालय तक देखा जा सकता है, जिसमें कुछ ही परिवार के लोगों ने लंबे समय से कब्जा जमा रखा है.

संभवतः भारत के समाज और विकसित पश्चिमी सभ्य समाज के लोगों में यही अंतर है कि वह कानून की धज्जियां उड़ाने वाले संप्रभु वर्ग की चालों को समझ गए हैं. भारतीय समाज की कथित उच्च जातियां यह नहीं समझ पाई हैं और उन्हें वंचित तबकों के लिए बने कानूनो की धज्जियां उड़ाए जाने पर मानसिक खुशी मिलती है. अभी संभवतः उत्पीड़न का शिकार होने वाले विवेक तिवारियों की संख्या उतनी नहीं पहुंची है कि भारत का कथित सवर्ण समाज यह समझ पाए कि खतरा उसके बहुत नजदीक तक पहुंच गया है.

भारत का समाज भी संभवतः जिस दिन यह समझ जाएगा कि कानूनों के पालन पर आम नागरिकों की असुरक्षा है तो यहां भी तमिलनाडु के जयराज और इमैनुअल फेनिक्स की हत्या के खिलाफ एक सामूहिक आक्रोश उठ सकता है. जब तक आम नागरिक दर्द को साझा करना नहीं सीख जाते, न तो देश मजबूत हो सकता है, न देशवासी सुरक्षित रह सकते हैं, न भारत को सभ्य देशों की श्रेणी में रखा जा सकता है.

(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.) सौज- दप्रिंट

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