नेटफ्लिक्स पर ‘अखोनी’ फिल्म देखी। उत्तर-पूर्व के जो लोग देश की राजधानी में आकर बसे हैं, उनके साथ काफी भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है। संविधान में वर्णित नागरिकों के मूल अधिकार उनके जैसे और लोगों की पहुँच से दूर हैं। दिखने, बोलने, चलने में अलग दिखने वाले लोग किसतरह अन्य लोगों के मज़ाक या नफरत का टार्गेट बन जाते हैं, आए दिन हम पढ़ते-सुनते रहते हैं। यह फिल्म एक छोटी सी कहानी के माध्यम से बहुत गहराई के साथ इस बात का अहसास कराती है कि ‘हम सब भारत के लोग’ लोकतांत्रिक भारत के ज़िम्मेदार नागरिक की तरह व्यवहार करने की बजाय अलग-अलग कबीलों की तरह बँटकर व्यवहार करते हैं। फिल्म पर बात शुरु करने से पहले मैं अपने दो अनुभवों की चर्चा कर लूँ!
छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल जिले जशपुर के एक सयाने आदमी ने सामान्य बोलचाल के दौरान कह दिया कि ‘छत्तीसगढ़ी लोग ऐसा करते हैं, हम नहीं।’ सुनते ही मैं चौंक गई थी। छत्तीसगढ़ और झारखंड की सीमा पर बसा जशपुर जिला छोटा नागपुर क्षेत्र में समाहित है। वहाँ के आदिवासी वाकई छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्र के लोगों से काफी अलग दिखाई देते हैं। समूचे देश के असमान और अतार्किक विकास के कारण इसतरह की अलगाववादी दरारें और गहरी हो रही हैं। राजनीतिक-आर्थिक कारणों से भले ही प्रदेशों की सीमाओं का विभाजन किया जाता है परंतु सांस्कृतिक समानता और विभेद लोगों के दिल-दिमाग से मिटाना बहुत मुश्किल है।
दूसरा अहसास तब हुआ जब मैं फिल्म ‘पिंक’ देख रही थी। उसमें जिन तीन लड़कियों की कहानी है, उसमें एक उत्तर-पूर्व की लड़की है। उसके साथ जिसतरह के सवाल-जवाब होते हैं, उसने मुझे झकझोर दिया था। किसतरह मातृसत्तात्मक व्यवस्था को मानने वाली जनजातियों की स्त्रियों की स्वतंत्रता को पितृसत्तात्मक समाज का मर्दवादी हिस्सा स्वच्छंदता मानकर उन्हें मर्द के भोग के लिए सहज उपलब्ध मान लेता है और हिंसा का अश्लील और क्रूर चेहरा सामने आता है। ‘अनेकता में एकता’ का नारा यहाँ और भी खोखला नज़र आने लगता है जहाँ पूर्वोत्तर या अन्य आदिवासी क्षेत्रों की लड़कियों का यौन शोषण अन्य प्रदेशों के लोग अपना विशेषाधिकार मानने लगते हैं।
‘अखोनी’ दिल्ली के हुमायूँपुर इलाके में फिल्माई गई है, जहाँ पूर्वोत्तर के कुछ युवा अपने रोज़गार-कैरियर की खोज में आकर दिल्ली में फ्लैट लेकर रहते हैं। उन पर ढेर सी पाबंदियाँ उनके घर मालिकों द्वारा लगाई गई हैं। वे अपने पारंपरिक भोजन को भी खुलेआम नहीं पका सकते। कहानी इसी के इर्दगिर्द बुनी गई है। एक पंजाबी बूढ़ी महिला माताजी के एक फ्लैट में उपासना (usikyh(] चांबी (मणिपुरी) तथा मिनम ;नागा; रहते हैं। अन्य लड़कियाँ और लड़के भी उसी गली में रहते हैं जो असम, सिक्किम, मणिपुर, मेघालय के मूल निवासी हैं। यहाँ वे एक परिवार की तरह एकदूसरे के सुख-दुख में शामिल होते हैं।
मूल कहानी छोटी-सी है। मिनम की जिस दिन शादी है, उसका उसी दिन आईएएस का इंटरव्यू है। फिल्म के आरम्भ में चांबी, उपासना और ज़ोरेम ;मिज़ो; शादी की खुशी में रखी गई पार्टी के लिए पूर्वोत्तर के एक दुकानदार से पोर्क और ‘अखोनी’ ;सोयाबीन के फर्मन्टेड केक; खरीदने जाते हैं। चूँकि उस पकवान के पकते समय बहुत तेज़ गंध आसपास फैलती है इसलिए वे सोचते हैं कि उस बिल्डिंग के सभी लोग बाहर जाने पर अखोनी पकाया जाएगा। पकाने के लिए चढ़ाते ही गैस सिलेन्डर खत्म हो जाता है और यहीं से शुरु होती है फिल्म में भागदौड़। अनेक जगह बदलते हुए अंत में घर मालिक के नाती की मदद से वे छत पर अखोनी पकाते हैं। लगभग पूरी फिल्म की पृष्ठभूमि में पूर्वोत्तर राज्यों का मनमोहक सुरीला लोकसंगीत क्षेत्रीय मधुरता का अहसास कराता रहता है। पर्दे पर हिंदी के सबटाइटल्स अनेक क्षेत्रीय विशिष्टताओं से दर्शक को रूबरू कराते हैं। पूर्वोत्तर की खासी, बोड़ो, तांगखुई, सेमा आदि भाषाओं की झलक इन लोकगीतों में मिलती है। आपसी बातचीत में भी कहीं-कहीं इन भाषाओं का उपयोग हुआ है।
नेपाली लड़की उपासना की भूमिका में शायोनी गुप्ता, माताजी डॉली अहलूवालिया, उनका दामाद विनय पाठक, नाती शिव रोहन जोशी, हुक्केवाला आदिल हुसैन के अलावा सभी एॅक्टर्स पूर्वोत्तर के हैं। लिन लैशरम, तेनज़िन दलहा, लनुआकम अओ, जिम्पा भूटिया और अन्य कलाकारों के तमाम मनोभाव और उनकी समस्याएँ उनकी बॉडी लैंग्वेज से बखूबी सम्प्रेषित होती हैं। निर्देशक निकोलस खेरकांगोर ने हिंदी फिल्मों के लिए अछूती कथा को बहुत सक्षमता के साथ प्रस्तुत किया है।
कहानी में कुछ रहस्य-रोमांच, हास्य और कुछ भावनात्मक दृश्य भी हैं मगर पूरी फिल्म में पूर्वोत्तर के लोगों के साथ अधिकांश लोगों द्वारा किया जाने वाला भेदभावपूर्ण व्यवहार बार-बार सुई चुभोता जाता है। भारत एक संघ है। इसकी सीमा के भीतर ऐसे अनेक प्रदेश हैं, जिनकी संस्कृति अन्य प्रदेशों की संस्कृति से काफी भिन्न है और इन पृथक् संस्कृति वाले प्रदेशों से शेष प्रदेशों के लोग एकप्रकार की दूरी बनाए रखते हैं। उत्तर भारत और दक्षिण भारत के लोगों के बीच इसीतरह की अदृश्य दूरी है। आदिवासियों, दलितों और पूर्वोत्तर प्रदेशों की संस्कृति के प्रति शेष भारत के लोग अपरिचय से देखते हैं। उनके खान-पान, रहन-सहन, पहनावे-ओढ़ावे को लेकर न केवल नाक-भौं सिकोड़ते रहते हैं बल्कि अक्सर उनकी परम्पराओं और उनके अस्तित्व के प्रति गैरज़िम्मेदाराना शत्रुतापूर्ण व्यवहार करते हैं। इसके अलावा जातियों, धर्म-सम्प्रदायों, वर्ण-वर्ग की दूरियाँ बहुत तकलीफदेह हैं। अभी कोविड 19 के कारण लॉकडाउन के दौरान मज़दूरों के साथ किया गया व्यवहार इस भयावह यथार्थ को उजागर करता है। इसके पहले समय-समय पर फैलाई गई साम्प्रदायिक नफरत तो अनेक अमानवीय उदाहरण प्रस्तुत करती ही आई है।
इसके अलावा देशवासियों में क्षेत्रीय विभिन्नताओं के प्रति घृणा का जज्बा भी जब-तब दिखाई पड़ता है। यह आपसी बोलचाल में, व्यवहार में, निषेधों-पाबंदियों में सांस्कृतिक वर्चस्ववाद की तरह देखा जा सकता है। इसमें ‘हमारे यहाँ’ और ‘तुम्हारे यहाँ’ का विभाजन जाने-अनजाने अभिव्यक्त होता है। कुछ क्षेत्र और प्रदेश, भौतिक विकास में आगे बढ़कर सत्ता की ऊँची पायदानों पर कब्ज़ा जमा चुके हैं और अन्य क्षेत्रों तथा प्रदेशों को पिछड़ा हुआ मानकर उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं। इसीतरह पितृसत्तात्मकता के वर्चस्ववादी विचारों की जद में स्त्रियों को और आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़े समूहों को भोगवादी नज़रिये और हिकारत से देखा जाता है।
फिल्म को समझने के लिए कुछ दृश्यों और संवादों पर गौर करना ज़रूरी है, जिसमें पितृसत्तात्मकता और क्षेत्रवाद का वर्चस्व दिखाई देता है –
- अखोनी पकाने के पहले जिस तरह सब पड़ोसियों की अनुमति लेने के लिए चांबी और उपासना व्यग्र दिखते हैं, उससे ऐसा लगता है मानो वे कोई आपराधिक कार्य करने जा रहे हों। उसके बाद भी अकुनी की गंध फैलने पर जिसतरह माताजी और अन्य पड़ोसियों द्वारा उन्हें धमकाया जाता है, उससे चांबी को पैनिक अटैक आता है, वह बुरीतरह हाँफने लगती है।
- चांबी और उपासना पकाने के लिए जगह खोजने के सिलसिले में अपनी एक पूर्वोत्तरी दोस्त मार्था ;जिसने एक सरदार से शादी कर ली है; के पास जाते हैं। उससे हुई बातचीत संवैधानिक समानता के सिध्दांत और व्यवहार की समस्या को सामने लाती है –
मार्था : इन सब चीज़ों में तनाव होता है, इन लोगों में और हम लोगों में।
चांबी : हमें हमारा खाना बनाने का अधिकार है।
मार्था : और उन्हें अधिकार है कि वे हमारे खाने की बू को सहन न करें। अब तेरा अधिकार सही है या इनका अधिकार, बता?
इस बातचीत में ‘इन लोगों’ और ‘हम लोगों’ के बीच जो असमानता की लकीर खींची जाती है, वह बहुत सी समस्याओं को जन्म देती है।
- चांबी और बेंदांग सब्जी खरीद रहे हैं। वहीं पास में खड़े दो लड़के आपस में बात करते हुए चांबी को ‘मलाई’ कहते हुए कई अश्लील टिप्पणियाँ करते हैं। चांबी से जब बर्दाश्त नहीं होता तो वह उनसे पूछती है ‘एक्स्यूज़ मी! अभी क्या बोला आपने?’ वे मासूम बनते हुए इंकार करने लगते हैं। वहीं खड़ा सब्जीवाला भी कुछ भी देखे-सुने जाने से इंकार करता है और हद तब होती है जब बेंदांग भी मना कर देता है। वह लड़का चांबी को ही पागल कहता है। चांबी बहुत गुस्से में उस लड़के पर झपट पड़ती है। लड़का उसे झापड़ मार देता है। चांबी अपनेआप को अकेला देखकर बहुत अपमानित महसूस करती है। बाद में यह बात सामने आती है कि बेंदांग के साथ भी उसकी अलग शक्ल के कारण दिल्ली में ही बहुत मारपीट हुई थी, जिसमें वह मरते-मरते बचा था। उसके बाद उसका सारा आत्मविश्वास निचुड़ गया था। इस दृश्य में एक-दो लोग आकर चांबी का पक्ष लेते हैं मगर उसी को समझाते हैं कि उसे ऐसी बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए। समाज में कई लोग ऐसे होते हैं जो किसी प्रकार के वर्चस्ववाद के शिकार तो नहीं होते। वे बाकायदा सहानुभूति रखते हैं परंतु अन्याय का विरोध वे भी नहीं कर पाते।
- दिल्ली के हुमायूँपुर की उस गली के अधिकांश लोग पूर्वोत्तर के इन युवाओं को संदेह की नज़र से देखते हैं। उनकी दृष्टि में ‘वे सब एक-से दिखाई देते हैं।’ चांबी की दोस्त एक पड़ोसी से चिढ़कर पूछती भी है कि ‘जब हम सब एक से हैं तो तुझे कैसे पता चलता है कि रोज़ नए-नए लोग आते हैं?’ दूसरी ओर ज़ोरेम की दुकान के पास गली में एक पुराने ज़मींदार जैसा आदमी हुक्का गुड़गुड़ाते हुए खाट पर दिन भर बैठा रहता है, जो वहाँ आने-जाने वाले हरेक व्यक्ति की गतिविधि को नि:शब्द अपनी खोजी ऑंखों से देखता-परखता रहता है। पिछले कुछ वर्षों में मीडिया और कुछ खास लोगों द्वारा अल्पसंख्यकों के प्रति जानबूझकर उभारी गई नफरत और संदेह के ज़हर को हरेक संवेदनशील व्यक्ति महसूस कर रहा है। उसके खिलाफ अनेक संगठन और व्यक्ति असहमति दर्शाते हुए रचनात्मक काम भी कर रहे हैं मगर परस्पर संदेह और नफरत की आग इस बहुसांस्कृतिक देश को बार-बार झुलसा रही है। इस पृष्ठभूमि पर ‘अखोनी’ का महत्व बढ़ जाता है।
- घर मालकिन का नाती शिव बचकाने हास्य चरित्र के रूप में गढ़ा गया है। मगर उसकी विशेषता यह है कि वह बिना किसी नफरत या टैबू के इन सभी पूर्वोत्तरी युवाओं से घुलने-मिलने की कोशिश करता है, उन्हें हरसंभव मदद करता है। मिनम की शादी को लेकर वह विस्मय से भरा हुआ है। न घराती न बाराती, न बैंड-बाजा… वह बेंदांग के पीछे उसके कमरे में शराब पीने पहुँचता है और उसकी बकबक से चिढ़कर बेंदांग उसे ‘तुम साले भारतीय’ गाली देता है। शिव सन्न रह जाता है। वह ज़ोरेम से पूछता है – ‘तुम लोग अपनेआप को इंडियन नहीं मानते क्या?’ यहीं पर चांबी बेंदांग को समझाते हुए पूछती है, ‘तुमने इतने वर्षों में एक भी दोस्त नहीं बनाया है बल्कि तुमने अपना पूर्वोत्तर यहीं बना लिया है।’ भारत में अनेक लोग एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश बेहतर जीवन की तलाश में जाते हैं और वहीं रच-बस जाते हैं। मगर या तो वे अपनेआप को बेगाने मानते रहते हैं या उन्हें ‘बाहरी’ कहते हुए वैसा ही मनवाया जाता है। इसलिए वे अलग-अलग मोहल्लों में अपने प्रदेश या क्षेत्र के लोगों के बीच ही रहना पसंद करते हैं। यहाँ वे अपने ‘देस’ और अपनी संस्कृति को और भी शिद्दत से जीना चाहते हैं।
यह फिल्म अनेक सवाल खड़े करती है। भारतीय संविधान ने भारत के हरेक नागरिक को कहीं भी, कभी भी रहने-बसने का अधिकार दिया है। इसके बावजूद हर प्रदेश में रहने वाले लोग अनेक लोगों को ‘बाहरी’, ‘घुसपैठिये’, ‘प्रवासी’ जैसी पदवियों से नवाजते हैं। ये विशेषण प्राय: मध्यवर्गीय या निम्नवर्गीय लोगों के लिए ही उपयोग में लाए जाते हैं। जो बड़े उद्योगपतियों को, बड़े सितारों को, चाहे वे फिल्म इंडस्ट्री के हों या खेल जगत के या व्यवसायों में प्रसिध्दि पा चुके हों, उनकी तरफ प्राय: उँगली नहीं उठाते। यह ‘बाहरी’, ‘घुसपैठिये’, ‘प्रवासी’ जैसे अपमानजनक परस्पर दूरियाँ बढ़ाने वाले विशेषण समाज में बड़ी संख्या में प्रयुक्त किये जाते हैं। अलग-अलग आदिवासियों, दक्षिण भारतीय लोगों, उत्तर-पूर्व के लोगों, अनेक प्रदेशों के दलित लोगों के खिलाफ जिस वर्चस्ववादी मानसिकता से क्रूर, हिंसक, अमानवीय और मूर्खतापूर्ण व्यवहार दिखाई देता है, वह किसी भी लोकतांत्रिक देश के सभ्य नागरिक को शर्मसार ही करता है। ‘अखोनी’ देखकर इसीतरह की शर्मसार करने वाली तकलीफ का अहसास होता है।
अखौनी के बहाने महत्वपूर्ण सवाल उठाए गए हैं । यह भेदभाव हमारे समाज में गहरे तक है । पूर्वोत्तर ही क्यों हमारे आस-पास भी । तुम यूपी बिहार वाले आकर हमारे छत्तीसगढ़ को लूट रहे हो या कि तुम मारवाड़ी लोग हमारे ओड़िसा,प. बंगाल में लूट मचाए हुए हो । समाज में विभाजन के बीच उप विभाजन लगातार बढ़ ही रहा है । सामाजिक या सांस्कृतिक संबंधों के बजाय जाति सबंध बन रहे हैं । हर जाति के अपने संगठन है , भवन है । लोग पहले ब्राह्मण, ठाकुर हैं फ़िर भारतीय है । कुछ इस तरह का समाज गढ़ दिया गया है । राजनीति ने इसे गढ़ने में वीभत्स भूमिका ही निभाई है । साहित्य की दुनिया भी इससे अछूती कहां रही ? यह ज्यादा भयावह है । दुखद यह कि अब तो बहुत भीतर तक , बहुत गहरे तक रच-बस गया है ।
पिछले दिनों एक फ़िल्म रिलीज़ हुई थी “चिंटू का बर्थडे ” ईराक के एक शहर में रह रहे परिवार की कहानी । विनय पाठक की इस फिल्म में उस दिन चिंटू के जन्मदिन की तैयारी और उसमें वहां के ईराकी दोस्त की उत्साह पूर्वक भागीदारी । उसी दौरान गोलियां चलना । पुलिस का आना और फिर वही पुलिस की बर्बरता । किसी का साथ न देना । ऊषा वैरागकर आठले का उक्त लेख पढ़ते हुए यह फिल्म भी याद आ गई । अमेज़न या नेटफ्लिप्स पर थी ।
ऐसे भयावह समय में इन सवालों से जूझना ही /भी चुनौती
है। बहरहाल फ़िल्म के बहाने ऊषा वैरागकर आठले ने जरूरी सवाल उठाए हैं । ऐसे सवाल वही उठा सकता है जो वैचारिक ताप में तपा हो और उस पर चलने का साहस भी रखता हो ।
– नथमल शर्मा
बहुत अच्छी समीक्षा है। मैं फिल्म देखने के लिए प्रेरित हुआ। दुर्भाग्य से उत्तर -पूर्व की सांस्कृतिक विविधता के बारे में ही नहीं, समूचे देश की विलक्षण सांस्कृतिक विविधता के प्रति आम तौर पर लोग अनजान हैं। यहां तक की हिंदू पौराणिक मिथकों में असम और मणिपुर की उपस्थिति के विषय में भी भीषण अज्ञान व्याप्त है। कई बार उत्तर-पूर्व के लोगों को चीनी समझ लिया जाता है। मौजूदा माहौल में भारतीय सीमा के भीतर चीन के अतिक्रमण को ध्यान में रखें तो उत्तर-पूर्व के लोग अन्यत्र घृणा के माहौल का शिकार हो सकते हैं। यह विकट स्थिति है। मुझे लगता है हिंदी क्षेत्र की सांस्कृतिक विपन्नता बहुत दयनीय सीमा तक पहुंच चुकी है। इस अज्ञान और उत्तर-पूर्व से अलगाव के कुछ भू-राजनीतिक पहलू भी हैं।
बहरहाल, बहुत अच्छी टिप्पणी के लिए उत्तर फ़िल्म देखने की उत्सुकता उत्पन्न करने के लिए उषा जी के प्रति आभार।