एक मैथ्स जीनियस पर बनी होने के बावजूद ‘शकुंतला देवी’ संवेदनाओं और भावनाओं को खुद में शामिल करते हुए कोई कंजूसी नहीं बरतती है
डिजिटल प्लेटफॉर्म – एमेजॉन प्राइम ,निर्देशक – अनु मेनन ,लेखक – अनु मेनन, नयनिका महतानी,कलाकार – विद्या बालन, सान्या मल्होत्रा, अमित साध, जीशु सेनगुप्ता, शीबा चड्ढा,रेटिंग – 3.5/5,
‘मुझे कोई चैलेंज नहीं करता, मैं ही खुद को चैलेंज करती रहती हूं.’ यह बात ‘ह्यूमन कम्प्यूटर’ कही जाने वाली शकुंतला देवी ने साल 1996 में एक साक्षात्कार के दौरान कही थी. दिलचस्प यह है कि इस समय तक वे करियर के लिहाज से अपना चरम देख चुकीं थीं और गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में अपना नाम दर्ज करवाने समेत दुनिया के तमाम बड़े सम्मानों से सम्मानित की जा चुकीं थीं. ऐसे में किसी को भी उनका यह बयान उनकी अपार सफलता से उपजा अहंकार लग सकता था. लेकिन अगर इससे तीन-चार दशक पहले रिकॉर्ड किए गए शकुंतला देवी के कुछ दूसरे साक्षात्कारों और वीडियोज पर गौर करें तो उनमें भी उनका यही मिजाज़ नजर आता है. इन्हें देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि खुद को चैलेंज करने की बात कोई गर्वोक्ति नहीं बल्कि वह आत्मविश्वास था जिसने शकुंतला देवी को इतने ऊंचे मुकाम तक पहुंचाया. हालांकि यह लाइन उनकी बायोपिक ‘शकुंतला देवी’ का हिस्सा नहीं बन पाई है, लेकिन इसके असर को फिल्म के हर दृश्य पर अनुभव किया जा सकता है.
फिल्म ‘शकुंतला देवी’ के बनने पर थोड़ी बात करें तो इसका निर्देशन अनु मेनन ने किया है जो इससे पहले ‘लंदन, पेरिस, न्यूयॉर्क’ सरीखी एंटरटेनिंग रॉम-कॉम और ‘वेटिंग’ जैसी हिलाकर रख देने वाली फिल्में बना चुकी हैं. अनु मेनन के साथ इस फिल्म को नयनिका महतानी ने लिखा है. फिल्म से जुड़ी ध्यान खींचने वाली एक जानकारी यह भी है कि इसे सिनेमैटोग्राफर कीको नाकाहारा ने शूट किया है और अंतरा लाहिड़ी ने संपादित किया है. इसके साथ ही इसके संवाद इशिता मोइत्रा ने लिखे हैं. यानी, यह कहा जा सकता है कि ‘शकुंतला देवी’ न सिर्फ परदे पर महिलाओं के मजबूत होने की कहानी कहती है बल्कि उसके बाहर भी सिनेमा से जुड़ी महिलाओं की सफलता का एक बेहद चमकीला और बुलंद किस्सा कह सकती है. अभी तक ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं थी जिनमें किसी फिल्म के बनने में महिलाओं ने बड़ी भूमिकाएं निभाई थीं. लेकिन इनमें से ज्यादातर में ये भूमिकाएं नायिका, निर्माता, निर्देशक और लेखिका होने तक ही सीमित रहीं. ‘शकुंतला देवी’ में इनके साथ-साथ कैमरा और एडिटिंग की जिम्मेदारी भी महिलाओं ने ही संभाली है.
‘शकुंतला देवी’ के कथानक की खासियत यह है कि यह एक अनोखी जीनियस की कहानी कहते हुए उसे दुनिया की सबसे आदर्श महिला नहीं बनाती है. शकुंतला देवी के स्वाभाव की जिस खासियत का जिक्र ऊपर किया गया है, उसे फिल्म भी दिखाती है. यानी, फिल्म शकुंतला देवी की काबिलियत को दिखाने के साथ-साथ फिल्म यह भी दिखाती है कि उन्हें इस बात का एहसास था कि जो उनके पास है, वह किसी और के पास नहीं है. वे अक्सर दूसरों के साथ इसके मुताबिक व्यवहार ही किया करती थीं. इसके आसपास फिल्म में कई ऐसे सीक्वेंस रखे गए हैं जिनमें वे कुछ हद तक स्वार्थी, अभिमानी और जिद्दी लगती हैं. लेकिन ऐसा करने के साथ-साथ फिल्म उनके निजी संघर्षों को पूरी ईमानदारी के साथ परदे पर लाती लगती है.
फिल्म में कथा की सूत्रधार शकुंतला देवी की बेटी अनुपमा बनर्जी को बनाया गया है. लेकिन मां-बेटी के इस एंटरटेनिंग, इमोशनल ड्रामे में दो बड़ी कमियां भी हैं. पहली यह कि बीसवीं सदी के पांचवे दशक से अंतिम दशक यानी लगभग 1950 से 2000 तक के वक्त में फैली इस कहानी में टाइम पीरियड्स के बीच का अंतर बहुत स्पष्ट नहीं दिखता है. कहने का मतलब यह कि फिल्म यह नहीं दिखा पाती है कि चुनौतियों के लिहाज से 50 या 60 का दशक शकुंतला देवी जैसी महिला के लिए 80 या 90 के दशक से किस तरह अलग रहा होगा. दूसरा यह कि फिल्म शकुंतला देवी के मैथ्स जीनियस बनने, उपलब्धियां हासिल करने और दुनिया भर में लोकप्रिय होने के दौरान आए संघर्षों को शुरूआती चालीस मिनट में ही समेट देती है. बाद के हिस्से में फिल्म परिवार और महत्वाकांक्षा के बीच के संघर्षों को तो दिखाती है लेकिन उस दौरान हासिल की गई उपलब्धियों का जिक्र यहां पर नहीं मिलता है.
अभिनय की बात करें तो शकुंतला देवी के अवतार में विद्या बालन ने एक बार फिर हर दृश्य पर अथाह वाह-वाह बटोरने वाला काम किया है. 20 साल की बड़बोली, मसखरी और टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने वाली लड़की से लेकर 70 की उम्र में भी अपनी जिद मनवाने वाली मां और दुनिया भर में मशहूर हस्ती तक, शकुंतला देवी का सफर उन्होंने अपने अद्भुत अभिनय के जरिए बहुत ही विश्वसनीयता के साथ दिखाया है. फिल्म में कई बार तो ऐसा भी होता है कि कहानी किस टाइम पीरियड में है, इसका अंदाजा उनकी बॉडीलैंग्वेज और चेहरे की गंभीरता को देखकर भी समझ में आता है. हंसाने वाले कुछ बेहद मनोरंजक दृश्यों के अलावा वे उन दृश्यों में खास तौर पर कमाल करती हैं जिनमें गुस्से या विवशता को चेहरा देने की कोशिश की जाती है. इसके अलावा, अंग्रेजी और हिंदी बोलते हुए वे दो अलग-अलग तरह के उच्चारण पकड़ती हैं. उनकी अंग्रेजी से जहां यह पता चलता है कि उन्होंने किताबों से नहीं बल्कि माहौल से यह भाषा सीखी है. वहीं, उनकी हिंदी उनके दक्षिण भारतीय होने की याद बखूबी दिलाती रहती है. अपने किरदार को ये बेहद ज़रूरी बारीकियां देने के लिए विद्या बालन की जितनी हो सके तारीफ की जा सकती है.
विद्या बालन से उम्र में महज 13 साल छोटी सान्या मल्होत्रा ने फिल्म में उनकी बेटी का किरदार निभाया है. इसके लिए उन विद्या की एक बात फिर तारीफ की जा सकती है जो अमिताभ बच्चन की भी मां का किरदार निभा चुकी हैं. वहीं, सान्या मल्होत्रा को इसलिए सराहा जाना चाहिए कि वे फिल्म में बहुत सधे हुए तरीके से विद्या जैसी अभिनेत्री को टक्कर देती दिखती हैं. इन दोनों के साझे दृश्य, इनके किरदारों के समीकरणों के चलते कुछ अलग ही तरह की खासियत लिए हुए लगते हैं. इनमें प्रेम, अधिकार और नाराज़गियों का गज़ब मिश्रण दिखाई देता है. इन कमाल अभिनेत्रियों को दो कमाल अभिनेताओं, अमित साध और जीशु सेनगुप्ता का वजनदार साथ मिलता है. इन दोनों की भूमिकाएं अपेक्षाकृत छोटी हैं लेकिन प्रभाव पूरा डालती हैं.
कहने के लिए कहा जा सकता है कि ‘शकुंतला देवी’ एक बार फिर उस घिसी-पिटी कहानी को दोहराती है जिसमें महिलाओं की तमाम उपलब्धियों के बाद भी उनके घर-संसार की खुशहाली को ही उनकी सफलता का प्रतीक माना जाता है. लेकिन ऐसा करना शायद बेजा बौद्धिक जुगाली के अलावा कुछ नहीं क्योंकि बड़े उद्देश्यों के लिए काम कर रहे पुरुषों के सामने आने वाली सबसे बड़ी चुनौतियां भी अक्सर उनके परिवार या बेहद करीबी लोगों से ही जुड़ी होती हैं. और, शायद इनसे पार पाना ही सही मायनों में किसी की हार या जीत तय करता है. शकुंतला देवी की यह कहानी इस मायने में खास और प्रेरक बन जाती है कि यह आपको संतुलन साधने के अतिरिक्त दबाव के साथ खुद को साबित करने की सीख नहीं देती है बल्कि अपने-पराए लोगों की नज़र में बुरा बनकर भी जो कर सकते हैं उसे करने और जी-भर कर जीने का पाठ पढ़ाती है. इसके साथ ही, धीरे से फुसफुसाकर यह भी बता जाती है कि पहले अपने हिस्से की गलतियां कर लेना और बाद में उन्हें सुधार लेना भी, कोई बुरी बात नहीं है.
सौज- सत्याग्रह