व्यंग्य पुरोधा हरिशंकर परसाई के लेखन पर उन्हीं की परम्परा के प्रतिष्ठित व्यंग्यकार प्रभाकर चौबे का आलेख – “मैं ऐसा मानता हूँ कि परसाई जी का लेखन भी एक्टीविज्म का एक जरूरी हिस्सा रहा । वे अपने लेखन को एक्टीविज्म के एक हिस्से के रूप में लेते थे और इसी कारण उनका लेखन मनोरंजन के लिये न होकर जनशिक्षण के लिये था, यह उनके लेखन से स्पष्ट होता है । उनके लेखन में शास्त्रों से उधार ली गई बौद्धिकता नहीं है, वरन समाज में जो है उसका विश्लेषण वैज्ञानिक तरीके से किया गया है और वह जन साधारण के लिये विचार देने वाली तथा समझ पैदा करने वाली व स्थितियों से निपटने की ताकत देने वाली सामाजिक बौद्धिकता है । हरिशंकर परसाई इस अर्थ में एक सामाजिक जनवादी लेखक है । व समाज से ही लेते हैं और समाज को ही देते हैं । “
हरिशंकर परसाई भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ व्यंग्यकार हैं । हिन्दी में हास्य ने जो जड़ जमा लिया था और लोगों को गुदगुदाने तथा हंसाने का काम कर रहा था, उसे परसाई ने अपने धारदार व्यंग्य लेखन से साहित्य-बाहर किया । वे हास्य के खिलाफ नहीं थे, लेकिन समाज में व्याप्त विसंगतियों पर सीधा प्रहार करने का जब समय उपस्थित हो, तब हास्य या विनोद में ही समाज को उलझाकर रखना अपने सामाजिक दायित्वों से मुँह मोड़ना हुआ, ऐसा मानना था हरिशंकर परसाई का और वे अपने लेखन के माध्यम से हर मानव विरोधी काम के खिलाफ भिड़े । हरिशंकर परसाई बौद्धिक तेजस्विता के साकार स्वरूप थे । वे चाहते तो शिक्षा विभाग में प्रमोशन पाते हुए जीवन बिता सकते थे । लेकिन उन्होंने वैचरिकता की ऊर्जा का उपयोग समाज में व्याप्त विसंगतियों तथा शोषण के खिलाफ लड़ाई करने में लगे रहने की ठानी और जीवनभर वे कलम के मजदूर बनकर शोषितों में जन चेतना जगाने का काम करते रहे । वास्तव में हरिशंकर परसाई एक एक्टविस्ट थे । वे शिक्षक रहे तो शिक्षकों को संगठित किया और उनके संघर्ष का नेतृत्व किया। वे टे्रड यूनियन के साथ रहे और मजदूरों की लड़ाई लड़ी । वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे और वर्गहीन समाज को समझकर जनता को जागृत करने का काम करते रहे । घाकड़ बुद्धिजीवियों और सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे ताकतवर लोगों से वे बौद्धिक लोहा लेते रहे और उन्हें अपनी उपस्थिति का एहसास कराते रहे । किसी भी बुद्धिजीवी में साहस नहीं था कि वह हरिशंकर परसाई की उपस्थिति की उपेक्षा कर दे या उन्हें कमतर आंके । इसके विपरीत हम कह सकते हैं कि हरशिंकर परसाई की उपस्थिति सत्ता प्रतिष्ठान के बुद्धिजीवियों में दहशत पैदा करती थी तो दूसरी ओर उपेक्षित वास्तविक बुद्धिजीवियो में साहस का और भरोसे का संचार करती थी । यहाँ तक कि कलावादियों में यह हिम्मत नहीं हुई कि वे हरिशंकर परसाई की प्रगतिशील संलग्नता के साथ तार्किक बहस कर सकें, इसलिये कलावादियों ने कभी भी हरशिंकर परसाई को नहीं छेड़ा। कह सकते हैं कि हरिशंकर परसाई को न छेड़ने में ही अपनी भलाई समझी । इस तरह हरिशंकर परसाई एक तरफ प्रगतिशील विचार धारा के साहित्यकारों के बीच गौरव थे तो कलावादियो के लिए आतंक रहे । परसाई ने कहा भी है ÒÒमैं लेखक छोटा हूँ लेकिन संकट बड़ा हूँ ।” हिन्दी में किसी साहित्यकार का इस तरह ”राष्ट्रीय मान” पा लेना कभी आसान नहीं रहा । हरिशंकर परसाई ने अपने कलमों की ताकत से राष्ट्रीय स्वीकृति का हक हासिल किया, यह शायद भारतीय भाषाओं में भी बिरल उदाहरण है । हरिशंकर परसाई एक्टिविस्ट थे और न केवल मजदूर संगठनों तथा शिक्षक संगठनों व लेखक संगठन से जुड़े थे वरन मनुष्य के सरोकार से सम्बन्धित और भी जनवादी संगठनों के साथ सक्रियता से जुड़े रहे । वे शांति एवं एकता संगठन तथा भारत सोवियत मैत्री संगठन के सक्रिय सदस्य रहे । भोपाल के बुधवारा के चौक में शांति एवं एकता संगठन की विशाल सभा को हरिशंकर परसाई ने सम्बोधित किया और उपस्थित जन की तालियां ही नहीं उनमें परसाई जी के प्रत्येक शब्द के अर्थ की गहराई तक पहुँचने की चेष्ठा भी प्रदर्शित हो रही थी । उस दिन हरिशंकर परसाई ने शांति के रास्ते पर साम्रयवादी ताकतों द्वारा बिछाए जा रहे कांटों पर जमकर प्रहार किया था और शांति कामी जनता को एक जुटता पर जोर दिया था । उनका भाषण महज औपचारिकता का न होकर एक एक्टिविस्ट के दिलो-दिमाग से निकलने वाली भावना थी । उस दिन गौरवर्ण हरिशंकर परसाई मंच से नीचे उतर रहे थे तो उनका चेहरा लाल हो गया था ।
मैं ऐसा मानता हूँ कि परसाई जी का लेखन भी एक्टीविज्म का एक जरूरी हिस्सा रहा । वे अपने लेखन को एक्टीविज्म के एक हिस्से के रूप में लेते थे और इसी कारण उनका लेखन मनोरंजन के लिये न होकर जनशिक्षण के लिये था, यह उनके लेखन से स्पष्ट होता है । उनके लेखन में शास्त्रों से उधार ली गई बौद्धिकता नहीं है, वरन समाज में जो है उसका विश्लेषण वैज्ञानिक तरीके से किया गया है और वह जन साधारण के लिये विचार देने वाली तथा समझ पैदा करने वाली व स्थितियों से निपटने की ताकत देने वाली सामाजिक बौद्धिकता है । हरिशंकर परसाई इस अर्थ में एक सामाजिक जनवादी लेखक है । व समाज से ही लेते हैं और समाज को ही देते हैं ।
हरिशंकर परसाई ने भारतीय बुर्जुआ जनतांत्रिक व्यवस्था का वैज्ञानिक अध्यन किया और मार्क्सवादी चिन्तन-विश्लेषण परम्परा का सहारा लेकर उसकी सही स्थिति प्रस्तुत की । उन्होंने भारतीय जनतांत्रिक व्यवस्था की विसंगतियों के सूक्ष्म अध्ययन व अवलोनक के बाद कुछ सार्थक निष्कर्ष दिए व उन्होंने इस अध्ययन के बाद साहित्कारों को समझाया कि साहित्यकारों को अपनी रचनात्मक भूमिकातय करने के लिये राजनीतिक चिन्तन से सम्पृक्त होना होगा । हरि शंकर परसाई मानते थे कि राजनीति की समझ के बिना साहित्य कर्म केवल भाववादी बनकर रह जाता है इसलिये परसाई जी ने यह भी कहा कि एक रचनाधर्मी के नाते राजनीतिक विसंगतियों की सही व कठोर आलोचना करते हुये उन पर प्रहार करना होगा । उन्होंने यह भी कहा कि गैर बराबरी का समाज बने इसके लिये जरूरी है कि लेखक निरन्तर जनता के साथ सम्पर्क में रहे और बदलती स्थितियों पर नजर रखते हुए जनता को संघर्ष के लिये प्रेरित करे । उनका यह भी मानना रहा कि मार्क्सवाद का पुस्तकीय व महज सैद्धान्तिक ज्ञान ही समाजवाद नहीं ला देगा, इसके लिये साहत्यिकारों का अपने अंदर बैठे संकोच को मारना होगा और खुले रूप में जनता के साथ संघर्ष में भागीदारी निभानी होगी । इसलिये हरिशंकर परसाई का व्यक्तित्व एक सचेतक रचनाकार का व्यक्त्तिव था और इस व्यक्त्तिव के सामने बौद्धिकता के भार से दबे दिगर बुद्धिवादी दबे से लगते थे और इसीलिये हरिशंकर परसाई हर संघर्षशील तथा बदलाव के लिये छटपटाने वाले वर्ग के बीच स्वीकार्य रहे ।
हरिशंकर परसाई एक जागरूक स्तम्भ लेखक थे । स्तम्भ लेखन में भी परसाई जी की रचना-दृष्टि परिवर्तन की रही । उनकी नजर हर विसंगति की ओर जाती रही । जाति व्यवस्था की क्रूरता अगर उनके प्रहार के घेरे में रही । तो चुनाव में व्याप्त जाति, धर्म, धन व बाहुबल भी उनकी पैनी नजर रही और भारत के चुनावों पर उन्होंने जमकर प्रहार किया । ”जन-प्रतिनिधियों के निर्वाचन के समय उपजे स्वरूप को देखकर, भगवान बेचारे गुमसुम हो गए। तरह-तरह के देवी-देवता चुनाव में खड़े हैं वे जो एकांत में बैठकर चिन्तन करते थे, एकाएक जननेता बनकर खड़े हो गये । अखबारों में कीचड़ उछाला जा रहा है । गाली गलौच हो रही है, कुबेर के खजाने से कर्ज लेकर पैसा बांटा जा रहा है, सोमरस पिलाकर बेहोशी में वोट का वचन लिया जा रहा है … ।” चुनावों पर उनका व्यंग्य कितना धारदार है । परसाई जी ने एक जगह लिखा कि ”क्रांति कभी रूकती नहीं, वह भूखी होकर आक्रमक हो जाती हैं।”
हरिशंकर परसाई रचनाकार थे, सच्चे बौद्धिक इसलिए मार्क्सवाद को ”डाग्मेटिक” बनाने वाले मार्क्सवादियों को कड़ी आलोचना की । परसाई जी ने मार्क्सवाद के विकासशील रूप को स्वीकार किया था । उनकी दृष्टि व्यक्ति चेतना और समष्टि चेतना के विकास के लिये सकरात्मक जीवन-दृष्टि ही रही । परसाई जी ने तर्क की कसौटी पर मार्क्सवाद को देखा-परखा था इसलिये उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन की विकासशील और प्रगतिशील स्थितियों को समझ कर उसे अपनाया था । इसी समझ को उन्होंने अपनी रचनाधर्मिता का अभिन्न हिस्सा बना लिया था ।
हरिशंकर परसाई का लेखन कटाक्ष नहीं है न किसी की खिल्ली उड़ाने के लिए लिखा गया व्यंग्य है । उनका व्यंग्य विसंगतिओं पर है और इसीलिये परसाई के व्यंग्य में करूणा की अंतरधारा प्रभावित होती रही है । उनका व्यंग्य यू ही व्यंग्य करने के लिये नहीं है वरन सोद्दोश्य है और इसीलिये आज भी 21 सदी में हरिशंकर परसाई व्यंग्यकार के रूप में याद किए जा रहे है । उनकी किताबें आज भी बड़ी संख्या में छप रही है, पढ़ी जा रही है । उनके कालम में समय झांकता है और पाठक उन्हें पढ़कर उस काल विशेष के उथल-पुथल से रूबरू हो सकता है । उनके व्यंग्य विसंगतियों पर है इसलिये जब तक समाज वर्ग आधारित रहेगा, बुर्जुआ समाज रहेगा, तब तक विसंगतिया रहे और इसीलिये परसाई जी आज भी प्रासंगिक है ।
(प्रभाकर चौबे का दैनिक देशबंधु में पूर्व प्रकाशित लेख)