70 साल की हो रहीं शबाना आज़मी की पहली फिल्म ‘अंकुर’ देखना कैसा अनुभव है

अंजलि मिश्रा

करीब साढ़े चार दशक पहले रिलीज हुई श्याम बेनेगल की पहली हिंदी फिल्म ‘अंकुर’ के जरिए शबाना आज़मी ने बॉलीवुड में डेब्यू किया था अच्छा खासा बिजनेस करने के साथ-साथ दुनियाभर में सराही गई इस फिल्म का हिस्सा बनीं शबाना आज़मी ने अपनी पहली फिल्म से बता दिया था कि मास्टरपीस ऐसे बनती हैं और वे ऐसे कई मास्टरपीस बनाने के लिए ही इंडस्ट्री में आई हैं (जो बाद में उन्होंने बनाए भी). यह बात उनके आज के कद को देखकर नहीं बल्कि यह मानकर कही जा रही है कि यह उन शब्दों का दोहराव है जो 44 साल पहले ‘अंकुर’ देखकर अभिनय के किसी पारखी के मुंह से निकले होंगे.

श्याम बेनेगल की पहली ट्रिलजी में ‘अंकुर’, ‘निशांत’ और ‘मंथन’ जैसी मास्टरपीस फिल्में आती हैं. साल 1974 में रिलीज हुई ‘अंकुर’ उनकी पहली हिंदी फिल्म होने के साथ-साथ शबाना आज़मी की डेब्यू फिल्म भी थी. इससे ठीक एक साल पहले एफटीआईआई से ग्रेजुएट हुई शबाना तब महज 23 साल की थीं और यह मौका उन्हें कई लोगों से छूटने के बाद मिला था. इस फिल्म से जुड़े किस्सों में अक्सर इस बात का जिक्र किया जाता है कि ‘अंकुर’ के लिए शबाना कभी पहली पसंद नहीं थीं. श्याम बेनेगल पहले इस फिल्म में वहीदा रहमान को लेना चाहते थे जो उन दिनों गाइड के लिए थोक में तारीफें बटोर रही थीं. लेकिन वहीदा ने यह कहते हुए इससे इनकार कर दिया कि वे क्षेत्रीय फिल्मों में काम नहीं करतीं. दरअसल शुरुआत में वे इस फिल्म को मलयालम में बनाना चाहते थे. हालांकि बाद में भी जब उन्होंने इस फिल्म को हिंदी में बनाने का इरादा कर लिया तब भी उनकी पहली चॉइस अंजू महेंद्रू हुईं. एक इंटरव्यू में अंजू महेंद्रू बताती हैं कि यह फिल्म न करने के लिए शबाना आज़मी अक्सर उनका शुक्रिया अदा किया करती हैं. इस तरह शबाना आज़मी को ‘अंकुर’ में लक्ष्मी की यह भूमिका मिली और उसके बाद जो हुआ वह हिंदी सिनेमा के इतिहास में दर्ज है.

‘अंकुर’ अपने दौर में मेनस्ट्रीम भारतीय सिनेमा के समांतर चिंतनपरक फिल्मों के चलन की शुरुआत करने वाली पहली फिल्म थी. इस विधा को बाद में कला सिनेमा कहा गया. सच को उसकी पूरी शुद्धता के साथ दिखाने के लिए इस फिल्म में न सिर्फ लोकेशन और संवादों को वास्तविकता के करीब रखा गया था, बल्कि कलाकार भी न के बराबर मेकअप करके कैमरे के सामने आने वाले थे. फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखने जा रही एक लड़की के लिए पहली बार में ही इतने क्रांतिकारी-प्रयोगवादी सिनेमा का हिस्सा बनना और दर्शकों के सामने बगैर मेकअप के आना उस दौर में लिया गया सबसे बड़ा रिस्क था. यह फिल्म शबाना आज़मी के कमाल के काम के साथ-साथ अपनी प्रतिभा और क्षमताओं पर किया गया उनका भरोसा भी दिखाती है.

सत्य घटनाओं पर आधारित ‘अंकुर’ उस समय के भारत के गांवों को हूबहू दिखाती है और यहां मौजूद जाति प्रथा और खत्म होती जमींदारी पर खासतौर पर ध्यान देती है. इसमें दक्षिण भारत की एक कुम्हार युवती के नॉन-ग्लैमरस किरदार में शबाना आज़मी की चाल-ढाल और उनका व्यवहार निरा देहाती है. उनको देखकर इस बात पर यकीन हो जाता है कि इस लड़की ने कभी शहर जाना तो दूर, इस शय का नाम भी नहीं सुना होगा. फिल्म में संवादों के बजाय ज्यादातर वक्त आंखों और चेहरे से अभिनय करने वाली शबाना आज़मी जब भी स्क्रीन पर पूरी की पूरी नजर आती हैं, उनकी सुंदर देह और उसकी स्पष्ट-प्रभावी देहबोली आपको मोहित कर लेती है.

एक बेहद गंभीर मुद्दे को टटोलने वाली यह फिल्म साइकोलॉजिकल रियलिज्म भी दिखाती है. इसके लिए जिस गहरी समझ और संवेदना की जरूरत होती है, वह भी आपको शबाना आज़मी के काम में नजर आती है. बेचारगी और आत्मविश्वास का जो कॉम्बिनेशन वे फिल्म में ज्यादातर वक्त स्क्रीन पर लाती हैं, वह कई बार आपका दिल निचोड़कर रख देता है. वहीं दूसरी तरफ जब वे हैदराबादी लहजे की दक्खिनी हिंदी बोलती हैं तो बैकग्राउंड में मौजूद ताड़ के पेड़ों और धान के खेतों का हिस्सा लगने लगती हैं. यहां कई बार आप उन्हें थोड़ा और सुनना चाहते हैं. क्लाइमैक्स सीन में जब वे जमींदार को उसी अंदाज में गालियां बरसाती हैं, मगर फिर भी अपनी आक्रामकता में संतुलन बनाए रखती हैं तो आपको अपने गांव की दिए-कुल्हड़ बेचने वाली कुम्हारन की याद आ जाती है.

हिंदुस्तान के गांवों में आपको ऐसे कई किस्से देखने-सुनने को मिल जाएंगे जहां नीची कही जाने वाली जाति के किसी परिवार का कोई बच्चा, गांव के किसी रसूखदार नाम की औलाद होने का ताना सुनते-सुनते ही बड़ा होता है. इन परिवारों के मुखिया (पति) कई बार मजबूर और कमजोर होते हैं तो कई बार दूर होते हैं. ‘अंकुर’ ऐसे ही बच्चे के पैदा होने के पहले की कहानी दिखाती है. उसको पैदाइश देने की जिद ठानने वाली मां के किरदार में शबाना आज़मी औरत होने, युवा औरत होने और नीच जाति की युवा औरत होने को अलग-अलग गहराइयों पर एक साथ जीती हैं और फिल्म की आत्मा बन जाती हैं.

श्याम बेनेगल की इस फिल्म का बजट लगभग पांच लाख रुपए था और इसने अपनी लागत से लगभग बीस गुना कमाई करते हुए बॉक्स ऑफिस पर एक करोड़ रुपए जुटाए थे. अच्छा खासा बिजनेस करने के साथ-साथ दुनियाभर में सराही गई इस फिल्म का हिस्सा बनीं शबाना आज़मी ने अपनी पहली फिल्म से बता दिया था कि मास्टरपीस ऐसे बनती हैं और वे ऐसे कई मास्टरपीस बनाने के लिए ही इंडस्ट्री में आई हैं (जो बाद में उन्होंने बनाए भी). यह बात उनके आज के कद को देखकर नहीं बल्कि यह मानकर कही जा रही है कि यह उन शब्दों का दोहराव है जो 44 साल पहले ‘अंकुर’ देखकर अभिनय के किसी पारखी के मुंह से निकले होंगे.

सौज- सत्याग्रहः लिंक नीचे दी गई है-

https://satyagrah.scroll.in/article/120245/shabana-azmi-first-film-ankur

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