अपर क्लास एलीट कल्चर से सजे धजे तनिष्क एड के प्रेम संदेश पर ट्विटर ने नहीं बल्कि भारत के कड़वी हक़ीक़त ने हमला बोला है! टाटा ग्रुप ने वही किया जो नहीं करना चाहिए था। असल सवाल यही है कि अगर करोड़ों और अरबों की संपत्ति से जुड़े टाटा ग्रुप के लोग ऐसे नफरत से नहीं लड़ेंगे तो क्या 10 हजार से कम की आमदनी पर जीने वाला हिंदुस्तान का 90 फ़ीसदी से अधिक अवाम इन नफरतों से लड़ेगा?
भारत में ट्विटर पर अपनी राय रख कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का फायदा और नुकसान उठाने वाले लोगों की कुल संख्या तकरीबन 1 करोड़ 70 लाख है। भारत की कुल आबादी में महज 2 फ़ीसदी से भी कम। लेकिन इनकी अभिव्यक्ति की ताकत बहुत ज्यादा है। अगर अपने पर आ जाएं तो कभी कभार भारत की सबसे कड़वी सच्चाई दिखा देते हैं और कभी कभार भारत की सबसे सतही और ब्रांडेड मन: स्थिति में उलझे रहते हैं।
अबकी बार ट्विटर पर भारत की कड़वी सच्चाई एक विज्ञापन के बहाने दिखी है। टाटा ग्रुप के ज्वेलरी ब्रांड तनिष्क ने पिछले हफ्ते ‘एकत्वम’ नाम से 45 सेकंड का एक विज्ञापन जारी किया था। जिस तरह की मार्केटिंग स्ट्रेटजी का इस्तेमाल विज्ञापन में किया जाता है, ठीक उन्हीं पैमानों का इस्तेमाल कर हिंदू मुस्लिम एकता का संदेश लिए हुए एक खूबसूरत और आकर्षक विज्ञापन पिछले हफ्ते से चल रहा था।
इस विज्ञापन को थोड़ा शब्दों के जरिए भी भांप लेते हैं। इस विज्ञापन में आलीशान बंगला है। आलीशान बंगले में हरा-भरा बड़ा सा लॉन है। एक मुस्लिम घर में हिन्दू बहू की गोद भराई की रस्म हो रही है। पूरे अपनत्व और लगाव के साथ मुस्लिम परिवार बहू का स्वागत कर रहा है। रस्में निभा रहा है।पूरे अपनत्व और लगाव के साथ मुस्लिम परिवार दुल्हन का स्वागत कर रहा है। मुस्लिम परिवार में स्वागत का तौर तरीका पूरी तरह से हिंदू रीति रिवाज के तहत हो रहा है। दुल्हन दूल्हे की मां से पूछती है यानी हिंदू घर की लड़की मुस्लिम परिवार से जुड़ी अपनी सास से पूछती कि यह रस्म तो आपके घर में होते भी नहीं है ना? तब मुस्लिम धर्म से जुड़ी मां जवाब देती है कि लेकिन बिटिया को खुश रखने के रस्म तो हर घर में होती हैं। और इसके बाद अंत में एक लाइन संदेश का चलता है कि ‘अगर एक हो जाएं हम तो क्या ना कर जाएं हम’।
दस हजार से कम की आमदनी पर जीने वाले हिंदुस्तान के 90 फ़ीसदी से अधिक लोगों के लिए इस विज्ञापन का इस्तेमाल कर कई तरह की बहसें छेड़ी जा सकती थीं। ट्विटर पर यह भी पूछा जा सकता था कि इतना महंगा घर कितने हिंदुस्तानियों के पास होता है? यह भी पूछा जा सकता था कि हर बार ऐसे विज्ञापनों में लंबी गोरी महिलाएं ही क्यों नजर आती हैं? क्या सांवली औरतें विज्ञापनों के लायक नहीं होती हैं? यह भी पूछा जा सकता था कि सामाजिक समरसता से जुड़े इस खूबसूरत विज्ञापन में हिंदुस्तान कि कई तरह की बदसूरतें क्यों छिपा ली जाती हैं? ट्विटर वाली 2% जनता अगर चाहती तो ऐसे सवालों की झड़ी लगाकर विज्ञापन की दुनिया की पूरी सोच बदल सकती थी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। तकरीबन 17 हजार से अधिक ट्वीट कर हमला इस बात पर किया गया कि यह विज्ञापन हिंदू विरोधी है। यह विज्ञापन हिंदुओं के संस्कृति पर हमला करता है। यह विज्ञापन लव जिहाद फैला रहा है।
एक लाइन में तो इन सारे बकवास मानवता विरोधी ट्वीट का जवाब यह दिया जा सकता है कि इन लोगो का प्यार और इंसानियत से कोई नाता नहीं है। इन लोगों ने गंदी राजनीति और कुछ लालच में आकर इंसानियत को बर्बाद करने के कारोबार में खुद को लगा रखा है। लेकिन यह एक लाइन का जवाब बिल्कुल कमजोर है। कमजोर इसलिए है क्योंकि केवल यह कह देने मात्र से कि इंसानियत से पनपने वाले प्रेम अपनत्व और समरसता के रंग इस दुनिया में फैलने चाहिए से इस दुनिया में भेदभाव, अलगाव और नफरत की दीवारें नहीं टूटती हैं। इन्हें तोड़ने के लिए हर वक्त काम करना होता है। इसकी सबसे अधिक जिम्मेदारी उन लोगों की होती है जिनकी आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक हैसियत दूसरों के मुकाबले मजबूत होती है।
यहां पर यह जिम्मेदारी टाटा ग्रुप की थी। टाटा ग्रुप की जिम्मेदारी थी कि चाहे कुछ भी हो जाए गिनती के चंद नफरती ट्वीट के चलते वह कोई ऐसा कदम ना उठाए जिससे यह लगे कि नफरत करने वाले लोग अपने मकसद में कामयाब रहे। लेकिन टाटा ग्रुप ने वही किया जो नहीं करना चाहिए था। दबाव में आकर इस विज्ञापन को मेन स्ट्रीम जगह जैसे फेसबुक यूट्यूब और ब्रॉडकास्टिंग से जुड़े प्लेटफार्म से हटा लिया। असल सवाल यही है कि अगर करोड़ों और अरबों की संपत्ति से जुड़े टाटा ग्रुप के लोग ऐसे नफरत से नहीं लड़ेंगे तो क्या 10 हजार से कम की आमदनी पर जीने वाला हिंदुस्तान का 90 फ़ीसदी से अधिक अवाम इन नफरतों से लड़ेगा?
क्या हम केवल यह चाहते हैं कि दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में दिन भर हाड़ तोड़ मेहनत करके जिंदगी से महरूम रहने वाला हिंदू मुस्लिम नफरत से फैलने वाले दंगों में मरता रहे और जब जिम्मेदारी उनकी आए जिनके पास इन नफरत और उन्माद से लड़ने के पर्याप्त संसाधन हैं वह भाग खड़े हो जाएं। अगर ऐसा है तो यह बिल्कुल गलत है। अगर मजबूत लोग अपनी मजबूती के साथ इस नफरत से नहीं लड़ेंगे तो फिर कौन लड़ेगा, क्यों लड़ेगा!
यहां पर आप सोचेंगे और कहेंगे सर जी बिजनेस का मामला है। बिजनेस बचाने के लिए यह सब करना पड़ता है। लेकिन ऐसे तर्कों को तर्क नहीं बल्कि छलावा कहते हैं। हर पेशे की बुनियाद होती है। बुनियाद से ऊपर मोलभाव की छूट दी जा सकती है। लेकिन बुनियाद पर हमला किया जाए और यह कहा जाए कि यह सब चलता है या बिजनेस बचाने के लिए यह किया जा रहा है। तो इसे अपने आसपास के गलतियों के आगे झुकना या गुलाम होना कहा जाना चाहिए। यह ठीक ऐसे ही है जैसे मौजूदा दौर के माहौल में अधिकतर लोग नफरत से बने डर के आगे चुप रहना ठीक समझते हैं। ऐसे में बिल्कुल सामने से किए जा रहे हमले के आगे हथियार डालकर टाटा ग्रुप का भाग खड़ा होना टाटा ग्रुप के कई सारे कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी से जुड़े कामों को छोटा करता है। अभी हाल फिलहाल का उदाहरण मौजूद है।
पारले जी बिस्किट कंपनी ने कहा है कि वह उन मीडिया चैनलों को विज्ञापन मुहैया नहीं कराएगी जो समाज में नफरत और जहर फैलाने का काम कर रहे हैं। ऑटो बजाज के मालिक राहुल बजाज ने तो 3 चैनलों को जहरीला चैनल बताकर विज्ञापन देने से मना कर दिया है। ऐसे में टाटा ग्रुप का इस तरह से नफ़रती अभियान के आगे समर्पण करना उसके सामाजिक सरोकार के साख पर बहुत बड़ा बट्टा लगाता है।
अब आप पूछेंगे कि मैंने शुरुआत में क्यों कहा कि अबकी बार ट्विटर पर भारत की कड़वी सच्चाई सामने आई है? यह इसलिए क्योंकि यह बात जितनी सही है कि भारत एक विविधता वाला देश है, उतनी ही यह बात सही है कि इस विविधता में शादी जैसा पुल आज तक बन नहीं पाया है। लोग अपनी जाति अपने धर्म से बाहर शादियां नहीं करते हैं। जाति, धर्म से बाहर शादी होने पर जाति, धर्म के सम्मान के नाम पर हत्याएं करवा दी जाती हैं। एक पढ़ा-लिखा आधुनिक परिवार भी यही चाहता है कि उसके बेटे या बेटी का रिश्ता उसकी जाति और धर्म से बाहर ना हो। लड़का और लड़की जाति, धर्म के अंदर ही मिल जाए। यह भारत की कड़वी हकीकत है। इस हकीकत पर हमारे देश की पूंजीवादी ताकतें हमला नहीं करती हैं। पूंजीवादी ताकतों से जुड़ी कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी का इरादा इस तरफ मुड़कर भी नहीं देखता है।
हिंदुस्तान की यह कड़वी हकीकत दबी की दबी रह जाती है। सुहाने किस्म की पूंजीवादी पैसे के दम पर ऐसा माहौल पैदा किया जाता है जिसमें यह पता नहीं चलता कि भारत की असली हकीकत क्या है? जैसे कि तनिष्क का यह ज्वेलरी का विज्ञापन। सीएसडीएस के प्रोफेसर हिलाल अहमद अपने ट्विटर अकाउंट पर इस विज्ञापन पर अपनी राय रखते हुए लिखते हैं कि तनिष्क के विज्ञापन को देखने के दो तरीके हैं। पहला -इसे हिंदू मुस्लिम संदर्भ के तौर पर देखते हुए प्रेम की अभिव्यक्ति के तौर पर देखा जाए। दूसरा -इस विज्ञापन को उस मार्केटिंग स्ट्रेटजी के तौर पर देखा जाए जो भारत की आम जनता पर ‘अपर क्लास एलीट कल्चर’ कल्चर थोपने का काम करती है। इस समय दिलचस्प बात यह है कि कोई भी इस विज्ञापन द्वारा थोपी जा रही एलीट संस्कृति और सुहावनी किस्म की पूंजीवाद पर बात नहीं कर रहा है।
इन सबके अलावा फिर वही पुरानी जरूरी बात कि भारत पर उसका बहुसंख्यकवाद हावी होते जा रहा है। तनिष्क पर किया गया हमला भी उसी बहुसंख्यकवाद का पागलपन में तब्दील होते जाने का नतीजा है। नहीं तो ऐसा कैसे हो सकता है की कई सारी कमियों के बावजूद प्रेम का संदेश देने वाले तनिष्क के विज्ञापन पर इतने तीखे सांप्रदायिक हमले किए जाएं। वरिष्ठ पत्रकार अभय कुमार दुबे ने एक बार सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के एक वेबीनार में अपनी बात रखते हुए कहा था कि दुनिया के किसी भी मुल्क, किसी भी भूगोल में बहुसंख्यक लोगो का ही रवैया हावी रहता है। लेकिन जब यह अपने नियंत्रण से बाहर निकल जाता है, तब समाज के लिए खतरे की तरह काम करने लगता है।
बहुसंख्यक वाद को नरम करने की जिम्मेदारी वहां के नेताओं में होती है। 80 के दशक तक हिंदुस्तान के नेताओं ने बहुसंख्यकवाद को नरम के किए रखा। लेकिन 80 के बाद भारत के बहुसंख्यकवाद ने अपना सर उठाना शुरू किया और अब वह पूरी तरह हाथ से बाहर निकल चुका है। अफसोस की बात यह है कि भारतीय राजनीति और समाज में ऐसे दमखम वाले नेता नहीं है जो बहुसंख्यकों की इस प्रवृत्ति पर लगाम कस सकें।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी के शोधार्थी अभिनंदन शाह कहते हैं कि सोशल मीडिया ने बहुत सारी अभिव्यक्तियों को जाहिर होने का मौका दिया है। इस वजह से अभिव्यतियों के मामले में जो एक खास किस्म की गुटबाजी थी, वह टूटी है। लोगों की राय अब केवल अखबार या कुछ मीडिया चैनलों से नहीं बन रही। उनकी राय सोशल मीडिया से भी बन रही है। इसलिए जो सोशल मीडिया पर बड़ी संगठित तौर पर काम करते हैं वह अपनी राय पहुंचाने में कामयाब हो पा रहे हैं। एक तरफ सामाजिक बुराइयों से लड़ने वालों का संगठन है तो दूसरी तरफ नफरत फैलाने वालों का भी संगठन है। अफसोस की बात यह है कि नफरत फैलाने वाले बड़ी तादाद में मौजूद हैं। एक ऐसे समय में जहां राजनीति भी उनके अनुकूल है। इसलिए वह खुलकर सामने आ रहे हैं।
तनिष्क विज्ञापन के सहारे दिखाया गया प्रेम का भाव बहुत अच्छा संदेश है लेकिन भारत की जमीनी हकीकत बिल्कुल अलग है। इतनी अलग और अपनी पहचानों में इतनी अधिक धंसी हुई कि वह इसे अच्छा संदेश मानकर भी अच्छा संदेश की तरह जीवन में आसानी से उतार नहीं सकती है। भारत की जमीनी हकीकत बदलेगी तभी जाकर ऐसे माहौल में प्रेम के ऐसे संदेश बच पाएंगे। नहीं तो भारत की जमीनी हकीकत में नफ़रत की ऐसी बयार है और वह मौजूदा निजाम की देखरेख में इस कदर फल फूल रही है कि बचा खुचा प्रेम भी नफ़रत में बदल जाए।
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