आज भारत में जातीय चेतना एक अलग स्तर पर पहुंच चुकी है. हर बात पर नज़र रखी जा रही है. न सिर्फ भारत में बल्कि विश्व स्तर पर भी जाति की नई व्याख्याएं प्रस्तुत की जा रही हैं. क्या भविष्य में स्थितियां बदलेंगी?
पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव और संगीतकार-गायक एसपी बालासुब्रमण्यम को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न देने की मांग ज़ोर पकड़ चुकी है. ये बहस का मुद्दा हो सकता है कि कौन भारत रत्न का हकदार है लेकिन जो बात राव और एसपीबी दोनों के पक्ष में है वो है- जाति. दोनों ब्राह्मण थे.
यदि अब तक इस राजकीय सम्मान को पाने वाले सभी 46 भारतीयों और दो विदेशियों (अब्दुल गफ्फ़ार खान और नेल्सन मंडेला) की सूची पर गौर किया जाए तो एक विशिष्ट बात निकल कर सामने आती है कि इनमें द्विजों या विशेष रूप से ब्राह्मणोंकी भरमार है. अभी तक कृषि और श्रम जैसे बुनियादी कार्यों से जुड़े वर्गों में से किसी को भारत रत्न नहीं मिला है जबकि इस राष्ट्र को उत्पादक बनाने का काम उन्हीं का है.
पूर्व में तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) अपने संस्थापक और आंध्रप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एनटी रामाराव को भारत रत्न दिए जाने की मांग उठा चुकी है जो कि एक कम्मा नेता थे. लेकिन यह मांग ज़ोर नहीं पकड़ पाई क्योंकि उन पर राष्ट्रीय मीडिया ने उतना ध्यान नहीं दिया जितना कि उनके समकालीन दूसरी शख्सियतों पर दिया गया.
जाति- एक पक्ष
भारत रत्न पाने वाले 46 भारतीयों में से 29 ब्राह्मण (हालांकि एक रिपोर्ट में उनकी संख्या 23 बताई गई है), 5 मुसलमान, 4 कायस्थ, 3 शूद्र और इन समूहों में से प्रत्येक में से 1 शामिल हैं— दलित, बनिया, खत्री, पारसी और ईसाई. भारत रत्न से सम्मानित अंतिम शख्स भूपेन हज़ारिका की जाति किसी भी स्रोत से सुनिश्चित नहीं की जा सकी (हालांकि ऐसे कई संदर्भउपलब्ध हैं जिनमें उन्हें कैवर्त जाति यानि असम के मल्लाह समुदाय का बताया गया है. इनमें से उनके गानों के शोषितों की आवाज़ के तौर पर व्याख्या करने वाला एक स्रोत थोड़ा विश्वसनीय लगता है.) भारत रत्न से सम्मानित 4 महिलाओं में से तीन ब्राह्मण और एक ईसाई हैं. कहने की ज़रूरत नहीं कि यदि ब्राह्मण नहीं होते, जिनकी भारतीय आबादी में 4 प्रतिशत भागीदारी है तो शायद इस देश में भारत रत्न से नवाजे जाने लायक लोग पर्याप्त संख्या में नहीं होते.
क्या सम्मान पाने वालों की सूची से ऐसा लगता है कि भारतीय शासन राष्ट्र की धूल से रत्नों को ढूंढने के लिए एक निष्पक्ष, ईमानदार और जाति रहित चयन प्रक्रिया अपनाता है? राष्ट्र की धूल मुख्यत: शूद्रों, दलितों और आदिवासियों से मिलकर बनी है. भारतीय आबादी में आधे से ज़्यादा शूद्र होने के बावजूद सम्मान के 66 वर्षों के इतिहास में मात्र 3 शूद्र भारत रत्न के काबिल मिले हैं, 18 प्रतिशत दलितों में से मात्र एक— डॉ. बीआर आंबेडकर और 7 प्रतिशत आदिवासियों में से कोई भी नहीं.
वल्लभभाई पटेल को 1991 में आकर, राजीव गांधी के साथ रत्न माना गया. पटेल से पहले सिर्फ दो शूद्रों को ही भारत रत्न दिया गया था— के. कामराज और एमजी रामचंद्रन (दोनों ही तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री थे.)
राजनीतिक पसंद
भारत रत्न सम्मान की शुरुआत 1954 में हुई थी. उस साल तीन जीवित ब्राह्मणों— सी. राजगोपालाचारी, सर्वपल्ली राधाकृष्णन और सीवी रमन को इसके लिए चुना गया. तीनों ही उम्र के साठवें दशक में होने के कारण अपेक्षाकृत युवा ही थे और तीनों तमिलनाडु से थे.
संघीय सरकार ने इस बारे में कभी कोई नीति नहीं तय की कि देश भर से किस आधार पर भारत रत्नों का चयन किया जाएगा. कइयों को वैसे समय में यह सम्मान दिया गया जब वे चयन को प्रभावित करने की स्थिति में थे. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री रहते भारत रत्न दिया गया. जबकि कइयों को दुनिया से विदा होने के लंबे समय बाद भारत रत्न से नवाजा गया (आंबेडकर को 1990 में).
दिल्ली की सत्ता ने चाहा तो नाडर जाति के और अर्धशिक्षित के. कामराज, भौतिकविद सीवी रमन तथा एक विदेशी विश्वविद्यालय से पीएचडी एवं अप्रवासी भारतीय अमर्त्य सेन को भारत रत्न चुना गया. साहित्यिक प्रतिभाओं को अधिक महत्व नहीं मिला है. भारत रत्न पाने वाले अनेक लोगों ने ताउम्र कुछ भी नहीं लिखा. इस सम्मान के लिए किसे चुना जाता है ये दिल्ली में बैठी केंद्रीय सत्ता पर निर्भर करता है, राज्यों पर नहीं. कोई 34 वर्षों तक एक राज्य का मुख्यमंत्री होने (ज्योति बसु) के बाद भी भारत का रत्न घोषित किए जाने लायक नहीं माना जा सकता है. देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान की पात्रता के लिए किसी में क्या विशेषताएं होनी चाहिए, ये किसी को मालूम नहीं.
हालांकि हमेशा ये ज़रूर स्पष्ट रहा है कि भारत रत्न का चयन सत्तारूढ़ वर्ग करता है और उसमें चुने गए लोगों की जाति और इस बात का ध्यान रखा जाता है कि चयन से सरकार को क्या राजनीतिक लाभ हासिल होगा. पटेल को उनके निधन के 41 साल बाद भारत रत्न मिला, आंबेडकर को दुनिया छोड़ने के 34 साल बाद भारत रत्न तब घोषित किया जा सका जब दिल्ली में सामाजिक न्याय पर यकीन करने वाली एक सरकार सत्तारूढ़ थी.
वास्तव में आंबेडकर तथा अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा वाले नेता नेल्सन मंडेला जिन्होंने रंगभेद के खिलाफ संघर्ष किया था और दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों को मुक्त कराया था, दोनों को ही 1990 में वीपी सिंह सरकार ने भारत रत्न दिया था. लेकिन पूरी संभावना है कि खुद वीपी सिंह को कभी भारत रत्न नहीं मिले, कम से कम केंद्र में मंडल समर्थक प्रधानमंत्री चुने जाने से पहले तो बिल्कुल ही नहीं. और निकट भविष्य में ऐसा होता नहीं दिख रहा.
आरएसएस-भाजपा द्वारा खामियों का फायदा उठाना
तमाम कांग्रेसी सरकारों ने धर्मनिरपेक्षता, बहुलतावाद और विविधता के नाम पर ब्राह्मणवाद की राजनीति की. अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) खुलकर जातिवादी राजनीति कर रहे हैं क्योंकि उनका वर्णधर्म और परंपराओं में यकीन है. सामाजिक विविधता और बहुलता का क्या हुआ जिसकी अक्सर हिंदुत्व सांप्रदायिकता के संदर्भ में चर्चा की जाती है?
यदि हम आरएसएस-संरक्षित भाजपा के 1999 में सत्ता पर नियंत्रण के बाद की सूची को देखें तो बिस्मिल्ला खान और भूपेन हज़ारिका (दोनों संगीतज्ञ) को छोड़कर भारत ने केवल ब्राह्मण रत्न ही पैदा किए— गोपीनाथ बोरदोलोई से लेकर नानाजी देशमुख तक. कांग्रेस पार्टी द्वारा ‘धर्मनिरपेक्ष’ ब्राह्मण रत्न चुने जाने से लेकर आरएसएस/भाजपा के हिंदुत्व ब्राह्मण रत्न चुनने के नए चलन के पीछे कुछ वैचारिक कारक हैं. भारत रत्न दिए जाने के संदर्भ में जाति और विचारधारा दोनों अभिसारी और विरोधाभासी कारक हैं. लेकिन ब्राह्मण रत्न का कारक हमेशा मौजूद रहा है.
अभी तक किसी भी कम्युनिस्ट को भारत रत्न नहीं दिया गया है, चाहे वह ब्राह्मण हो, मुसलमान हो या ईसाई. कांग्रेस शासन के संपूर्ण दौर में भारतीय कम्युनिस्टों ने उसके लिए धर्मनिरपेक्षता का व्यापक माहौल बनाए रखने का काम किया लेकिन उस विचारधारा के किसी भी व्यक्ति को भारत रत्न सम्मान के लायक नहीं समझा गया. यहां तक कि राम मनोहर लोहिया को भारत रत्न देने पर भी कभी विचार नहीं किया गया जबकि वह प्रभावशाली बनिया समुदाय से थे और एक प्रमुख राष्ट्रीय नेता थे.
ज़ाहिर है, हम आरएसएस-भाजपा काल में इस स्थिति में बदलाव की उम्मीद नहीं कर सकते हैं.
सम्मान से वंचितों की लंबी सूची
भारत रत्न के ब्राह्मणीकरण की शुरुआत 1954 में इस सम्मान के आरंभ के समय ही हो गई थी. यदि भारतीय पुनर्जागरण और देश के सामाजिक-शैक्षिक सुधारों में योगदान करने वालों को भारत रत्न सम्मान के लायक समझा जाता तो फिर राजा राममोहन राय, ज्योतिराव फुले और नारायण गुरू को यह सम्मान मिल चुका होता. महात्मा गांधी को इसलिए नहीं चुना गया क्योंकि ये माना गया कि उनका कद इस सम्मान से कहीं ऊंचा है. आज तक किसी आदिवासी को भारत रत्न नहीं दिया गया है. क्यों? हमें पता नहीं. बिरसा मुंडा और कोमाराम भीम को कभी इसके लायक नहीं माना गया. अभी भी ओबीसी वर्ग के किसी व्यक्ति के नाम पर विचार नहीं किया जाता है. मंडल कमीशन की रिपोर्ट लिखने वाले बीपी मंडल को कभी भी इस सम्मान के काबिल भारतीयों में नहीं गिना गया.
कांग्रेस ने प्रभावशाली शूद्रों को अलग-थलग कर दिया जिन्होंने आगे चलकर क्षेत्रीय पार्टियां शुरू की और कई तरह से वे कांग्रेस-विरोधी बन गए. भारत रत्न की सूची को उनके अलगाव का संकेतक माना जा सकता है. आरएसएस-भाजपा आज वही काम कर रहे हैं और उसे सही ठहराने के लिए उसी दलील का इस्तेमाल कर रहे हैं.
ये हमें इस विमर्श पर लाता है कि एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र में द्विज बुद्धिजीवियों को किसी भी तरह के चयन के लिए जाति को आधार नहीं बनाना चाहिए. लेकिन उन्होंने भारत रत्न पाने वाले 46 भारतीयों की सूची में शामिल 29 ब्राह्मणों, चार क्षत्रियों, एक बनिया और एक खत्री की जाति पर कभी ध्यान नहीं दिया. इनमें से अधिकांश नाम स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित हैं, मानो वो कोई द्विज आंदोलन रहा हो.
कोई भी राष्ट्र इस तरह के उच्चस्तरीय जातिवाद के साथ प्रगति नहीं कर सकता. भारत रत्न पाने वालों की सूची में सामाजिक समावेश या विविधता की झलक तक नहीं दिखती है. कांग्रेस की समावेशिकता सिर्फ मुसलमानों को शामिल करने तक ही सीमित रही. उसने शूद्रों/पिछड़ों/दलितों और आदिवासियों की घोर उपेक्षा की.
उच्चवर्गीय राजनीतिक नेताओं को बढ़ाने तथा क्षेत्रीय एवं स्थानीय ताकतों को नज़रअंदाज करने की प्रवृति ने जाति और समुदाय की एक बड़ी खाई बना दी है. भारत रत्न की पांत में शामिल किए जाने का दूसरा ज़रिया सिनेमा और संगीत का है. ये दोनों द्विज वर्चस्व वाले क्षेत्र हैं. आज भारत में जातीय चेतना एक अलग स्तर पर पहुंच चुकी है. हर बात पर नज़र रखी जा रही है. न सिर्फ भारत में बल्कि विश्व स्तर पर भी जाति की नई व्याख्याएं प्रस्तुत की जा रही हैं. क्या भविष्य में स्थितियां बदलेंगी? हम केवल उम्मीद ही कर सकते हैं.
(कांचा इलैया शेफर्ड राजनीतिक सिद्धांतकार, सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं) सौज- दप्रिंटः लिंक नीचे दी गई है-