
प्रसिद्ध जासूसी उपन्यासकार इब्न-ए-सफ़ी के बारे में उनके पुराने पाठकों को पता होगा कि वे एक अच्छे शायर भी थे और जासूसी उपन्यास लिखने के पहले असरार नारवी के नाम से शायरी करते थे ।
प्रसिद्ध जासूसी उपन्यासकार इब्न-ए-सफ़ी के बारे में उनके पुराने पाठकों को पता होगा कि वे पहले असरार नारवी के नाम से शायरी करते थे और अच्छे शायर थे। कहते हैं कि एक बार उनके प्रकाशक दोस्त ने उनसे कहा कि उर्दू में ऐसी जासूसी उपन्यासों की बाढ़ आ गई है जो अश्लील होते हैं। ऐसे उपन्यास लिखे जाने चाहिये जो मनोरंजक भी हों और अश्लील भी न हों। शायर असरार नारवी ने यह चुनौती स्वीकार की और इब्न-ए-सफ़ी के नाम से उपन्यास लिखना शुरू किया। उसके बाद जो हुआ सब जानते हैं, आइये आज पढ़ते हैं उनकी कुछ ग़ज़लें-
बड़े ग़ज़ब का है यारो बड़े ‘अज़ाब का ज़ख़्म
अगर शबाब ही ठहरा मिरे शबाब का ज़ख़्म
ज़रा सी बात थी कुछ आसमाँ न फट पड़ता
मगर हरा है अभी तक तिरे जवाब का ज़ख़्म
ज़मीं की कोख ही ज़ख़्मी नहीं अँधेरों से
है आसमाँ के भी सीने पे आफ़्ताब का ज़ख़्म
मैं संगसार जो होता तो फिर भी ख़ुश रहता
खटक रहा है मगर दिल में इक गुलाब का ज़ख़्म
उसी की चारागरी में गुज़र गई ‘असरार’
तमाम ‘उम्र को काफ़ी था इक शबाब का ज़ख़्म
2
यूँही वाबस्तगी नहीं होती
दूर से दोस्ती नहीं होती
इक मरज़ के हज़ार हैं नब्बाज़
फिर भी तश्ख़ीस ही नहीं होती
आदमी क्यूँ है वहशतों का शिकार
क्यूँ जुनूँ में कमी नहीं होती
दिन के भूले को रात डसती है
शाम को वापसी नहीं होती
जब दिलों में ग़ुबार होता है
ढंग से बात भी नहीं होती
चाँद का हुस्न भी ज़मीन से है
चाँद पर चाँदनी नहीं होती
जो न गुज़रे परी-वशों में कभी
काम की ज़िंदगी नहीं होती
3
लब-ओ-रुख़्सार ओ जबीं से मिलिए
जी नहीं भरता कहीं से मिलिए
यूँ न इस दिल के मकीं से मिलिए
आसमाँ बन के ज़मीं से मिलिए
घुट के रह जाती है रुस्वाई तक
क्या किसी पर्दा-नशीं से मिलिए
क्यूँ हरम में ये ख़याल आता है
अब किसी दुश्मन-ए-दीं से मिलिए
जी न बहले रम-ए-आहू से तो फिर
ताएर-ए-सिदरा-नशीं से मिलिए
बुझ गया दिल तो ख़राबी हुई है
फिर किसी शोला-जबीं से मिलिए
वो कोई हाकिम-ए-दौराँ तो नहीं
मत डरें उन की नहीं से मिलिए
(साभार रेखता)