
प्रिय दर्शन
डेढ़ सौ साल पहले जो लोग नहीं चाहते थे कि फुले समाज में लड़कियों को पढ़ाएं और बदलाव लाएं,वही अब भी नहीं चाहते कि उनका सच सामने आए। लेकिन यह फुले की बढ़ती हुई परछाईं है जो उन्हें पीछे हटने को मजबूर करती है।
1 ज्योतिबा फुले आगे बढ़ रहे हैं। उनकी लंबी परछाईं उनसे भी चार क़दम आगे है। सामने से आ रहा ब्राह्मणों का समूह अचानक उन्हें देख तमक कर रुक जाता है। इस समूह को फुले की परछाईं से भी बचना है। फुले कहते हैं – अब तो न मैं हटूंगा और न मेरी परछाईं हटेगी। वे फिर एक क़दम आगे बढ़ते हैं, फिर ब्राह्मणवाद एक क़दम पीछे हटता है।
2 एक छोटी सी लड़की एक किताब पलट रही है। युवा ज्योति राव कहते हैं- अरे तुम चॉकलेट के लालच में किताब ले आई! लड़की कहती है- नहीं, मैं तो किताब लेने गई थी, उन्होंने चॉकलेट भी दे दी। ज्योतिबा पूछते हैं- तुम पढ़ना चाहती हो? लड़की सिर हिलाती है – हां। यह सावित्री बाई फुले है- ज्योतिबा फुले की पत्नी।
3 एक कूड़े वाली गाड़ी कूड़ा लिए चली आ रही है। वह एक घर के भीतर आती है जहां चुपके से कुछ लड़कियों को पढ़ाया जा रहा है। गाड़ी से ऊपर रखा सामान हटाया जाता है तो नीचे से एक बच्ची निकलती है। वह पढ़ने आई है – सबकी नज़र बचा कर।
4 सावित्री बाई अब स्कूल चला रही है- लड़कियों का स्कूल। उन पर रास्ते में गोबर और गंदगी फेंकी जाती है। वे आहत हैं, लेकिन उनका संकल्प पक्का है – स्कूल तो चलेगा।
5 यह इन दिनों चल रही फिल्म ‘फुले’ के कुछ दृश्य हैं- बताते हुए कि इस देश में लड़कियों की पढ़ाई की कल्पना भी कितनी दुष्कर थी। अगर ज्योतिबा और सावित्री बाई फुले ने किसी जिद और जुनून की तरह इसे एक मुहिम में नहीं बदला होता तो उन दिनों धर्म और संस्कृति के ठेकेदार बने लोगों ने लड़कियों को घर के घेरे से निकलने नहीं दिया होता।
6 ज्योतिबा फुले और सावित्री फुले के जीवन और संघर्ष पर बनी यह फिल्म यह भी बताती है कि वे कौन लोग और समूह थे जिन्होंने भारतीय संस्कृति नाम के तालाब को सड़ा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, जो धर्म की मनमानी व्याख्या कर शूद्रों के साथ बिल्कुल पशुवत व्यवहार को नैतिक और धार्मिक मुलम्मा देकर सही ठहराते थे और जो बताते थे कि लड़कियां बस वंश बढ़ाने और पति की सेवा के लिए हैं, वे पढ़ेंगी तो पथभ्रष्ट हो जाएंगी।
7 फिल्म यह भी बताती है कि उस दौर में इस दंपती ने कितने मोर्चों पर लड़ाइयां लड़ीं- स्त्री-शिक्षा और विधवा विवाह के पक्ष में, अस्पृश्यता और बाल विवाह के विरुद्ध, धार्मिक पाखंड और आडंबरों के विरुद्ध। इन लड़ाइयों में बेशक, फुले को कुछ साथी भी मिलते हैं – उस्मान शेख और उनकी बहन फ़ातिमा शेख। उन्हें भी अपने समाज के कठमुल्लो की धमकियां और हिंसा झेलनी पड़ती है। कुछ उदार और परिवर्तनकामी ब्राह्मण भी उनके साथ हैं। मांएं चाहती हैं कि बच्चियां पढ़ें, लेकिन पुरुष नहीं चाहते।
8 भारत की पहली स्त्री शिक्षक सावित्री बाई और पहले महात्मा ज्योतिबा पर बनी यह फिल्म देखने लायक है। पूरी लड़ाई में ज्योतिबा यह ख़ास तौर पर रेखांकित करते हैं- यह लड़ाई विचार के हथियार से ही लड़ी जा सकती है। वे कभी डॉक्टर बनना चाहते थे लेकिन थॉमस पेन की किताब ‘राइट्स ऑफ मैन’ ने सब कुछ बदल दिया। सामाजिक बराबरी और मौलिक अधिकारों की लड़ाई के बीज उनमें यहीं से पड़ गए। वे सावित्री बाई के कहने पर लिखना शुरू करते हैं और फिर सत्य शोधक मंडल भी बनाते हैं।
9 फिल्म ज़्यादातर फुले से जुड़े ऐतिहासिक तथ्यों पर ही आधारित है। वह कल्पना के नाम पर बहुत छूट लेने को तैयार नहीं। फिल्म में बहुत नाटकीयता नहीं है। संघर्ष को गैरज़रूरी तौर पर चमकदार नहीं बनाया गया है। जो है उसे उसी तरह दिखाने की कोशिश फिल्म को एक प्रामाणिकता देती है। अंग्रेज़ी सरकार की मदद और ब्रिटिश शासन के विरोध की दुविधा को लेकर भी फुले सजग दिखते हैं – वे धर्म परिवर्तन के प्रलोभन से भी बचते हैं। फिल्म की सबसे खूबसूरत बात उसका ‘क्राफ्ट’ है। निर्देशक ने उस समय के माहौल को बहुत सजगता और जीवंतता के साथ उभारा है। कलाकारों का अभिनय फिल्म की संवेदनशीलता का वहन करने में सक्षम है।
10 फुले कहते हैं – भारत एक भावुक देश है। इसे जाति और धर्म के नाम पर लड़ाना बहुत आसान है। फिल्म के कुछ दृश्यों पर सेंसर की कैंची चली थी। समझना मुश्किल नहीं है कि डेढ़ सौ साल पहले जो लोग नहीं चाहते थे कि फुले समाज में लड़कियों को पढ़ाएं और बदलाव लाएं,वही अब भी नहीं चाहते कि उनका सच सामने आए। लेकिन यह फुले की बढ़ती हुई परछाईं है जो उन्हें पीछे हटने को मजबूर करती है।