
25 जून 1975 की आधी रात को आपात्काल का लगाया जाना, इस देश के लोकतन्त्र के बुनियादी ढाँचे पर पहला घातक प्रहार था । यह क्यों, कैसे, किस प्रक्रिया से, किस तरह संभव हुआ, इसकी एक बहुत बाहरी रूपरेखा बनाते हुए, हम इसे जानेंगे ।25 जून 1975 की आधी रात जो हुआ, वह वास्तव में असफल होते लोकतंत्र की सबसे तेज और पीड़ा भरी चीख थी । इस पीड़ा भरी चीख का पहला स्वर 12 जून 1975 को सुनायी दिया था । उसके बाद के 14 दिन जैसे अमावस्या की काली रात की ओर बढ़ते, धीरे-धीरे घटते चाँद के दिन थे । चाँद की रोशनी और चमक हर दिन कुछ कम होती जा रही थी । 14 दिन बाद अंधेरों ने चाँद को पूरी तरह निगल लिया । 12 जून से 25 जून के बीच, हर रात देश के हर दिन और यादा गहराते चौदह दिन के इन अंधेरों को अब देखते हैं ।
26 जनवरी 2025 को देश के संविधान और गणतन्त्र रूप के 75 वर्ष पूरे हो गये हैं । इस गर्वपूर्ण व सुखद अवसर पर, हमारे पास एक मौका है कि हम अपने गणतन्त्र व संविधान की उपलब्धियों और सफलताओं या बिखराव और असफलताओं का एक निष्पक्ष लेखा जोखा करें । हमारे पास यह आकलन करने का भी मौका है, कि इन 75 वर्षों में हमने अपने संविधान की मूल आत्मा और देश के नागरिकों की स्वतन्त्रता, गरिमा व जीवन को अर्थ देने वाले मौलिक अधिकारों को कितना सुरक्षित रखा? हमारे गणतन्त्र को रूप देने वाली चुनाव की लोकतांत्रिक प्रणाली, नागरिकों के जीवन व हितों को सुरक्षित करने, उनके हाथों में अधिक शक्ति देने में कितनी समर्थ और सक्षम हुयी?
क्या इन 75 वर्षों के बाद, इस लोकतन्त्र में समस्त शक्तियाँ जनता के हाथों में हैं जो लोकतन्त्र की पहली शर्त और प्रखरतम अभिव्यक्ति है? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि समय-समय पर बदलती सरकारों और उनके शिखर पर बैठे नेताओं ने, इन शक्तियों को जनता के हाथों से छीन कर अपनी मुट्ठियों में दबोच लिया है? लोकतंत्र की आड़ में ही, जनता को इस तंत्र द्वारा दिए गये अधिकारों के भ्रष्ट अर्थ निकाल कर, उसे विकृत या कुरुप करते चले गए? क्या विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका ने इस संविधान को हर तरह का नैतिक कवच देते हुए अपने कर्तव्यों का पालन किया? हम इसका भी लेखा जोखा कर सकते हैं कि इन 75 वर्षों में ऐसी कौन सी घटनाएँ हुयीं, ऐसे कौन से व्यक्ति हुए, जिन्होंने पूरी निर्लाता और क्रूरता के साथ, संविधान के प्रावधानों का भरपूर दुरुपयोग करते हुए, उसकी आत्मा और उसके बुनियादी ढाँचे पर घातक प्रहार किया। नार्सिसस की ग्रन्थि से पीड़ित, आत्ममुग्ध होकर, स्वेच्छाचारी, निरंकुश शासन करने की हवस में समस्त शक्तियाँ अपने में केन्द्रित कर लीं। संविधान संशोधनों के बहाने वे तानाशाही की ओर कदम बढ़ाते गए। आगे हम संविधान और लोकतन्त्र के इसी पक्ष पर बात करेंगे ।
हम देखेंगे कि किस तरह संविधान के केवल 25 वर्ष पूरे होने के बाद, 25 जून 1975 की आधी रात को आपात्काल का लगाया जाना, इस देश के लोक तन्त्र के बुनियादी ढाँचे पर पहला घातक प्रहार था । यह क्यों, कैसे, किस प्रक्रिया से, किस तरह संभव हुआ, इसकी एक बहुत बाहरी रूपरेखा बनाते हुए, हम इसे जानेंगे । यह बेहद जरूरी है कि इन सच्चाइयों को तथ्यों और प्रामाणिकता के साथ जाना जाए, न कि अफवाहों, चरित्र हनन और निजी स्वार्थों की रोटियाँ पकाने के लिए जलाए जाने वाले चूल्हों की ऑंच और रोशनी में इसे देखा जाए। अपने देश की इस पहली सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक घटना को अगर हम संविधान और लोकतन्त्र के दायरे में नहीं समझेंगे, तो भविष्य में हम बार बार उन फन्दों में फँसते चले जाएंगे, जो सरकारें अपने हितों के लिए नागरिकों का दम घोटने के लिए हर समय बुनती हैं।
इंदिरा गाँधी का आपात्काल ऐसी ही कोशिश की पहली घटना थी । वास्तव में आपात्काल इंदिरा गांधी की तानाशाही प्रवृत्ति के परिचय से अधिक, भारतीय लोकतन्त्र की असफलता की गूँज था। सिर्फ 25 सालों में ही विकृत और कुरूप कर दिया गया उसका चेहरा था । उसके अविकसित होने या अधूरेपन का उद्धोष था । धीरे धीरे देश में असफल होते चले गए लोकतन्त्र की परिणति यदि आपात्काल में न भी होती, तो इसकी असफलता किसी और त्रासद रूप में सामने आती। भारतीय लोकतंत्र की नाकामी या कमियों, अस्पष्टताओं और संविधान में कुछ बातें भविष्य में तय होने के लिए छोड़ देने के कारण, यह लावा किसी और रूप में फूटता ।
ऐसा क्यों हुआ कि संविधान लागू होने के 25 वर्ष बाद ही यह देश संविधान सभा में घोषित व तय किये गए लोकतंत्र के बुनियादी उद्देश्यों, आदर्शों और स्वरूप को सहज रूप से संभाल भी नहीं सका, जब कि उसने जहाँ से अपने लिए संविधान और लोकतंत्र के ढाँचे चुने थे, उन देशों में सदियों से लोकतंत्र सुचारू रूप से सक्रिय है, गतिशील है, प्रभावी है? भारत में फिर यह इतनी जल्दी असफल होता क्यों दिखने लगा? क्या इसलिए कि संविधान बनाने वालों ने देश की विषम, जटिल, क्रूर सच्चाईयों को नज् ादीक से न समझते-जानते हुए, उत्तेजना और उत्साह में अपनी ऑंखों से यादा बड़े सपने देख लिए? क्या इसलिए कि प्रत्येक वयस्क नागरिक को मत का अधिकार देते हुए, उन्होंने स्वतंत्र भारत के इस नागरिक के अंदर भविष्य के किसी विवेकवान, जागृत, संवेदनशील महामानव के दर्शन कर लिए? क्या इसलिए कि उन्होंने हजार वर्षों से ढोयी जाती, दहला देने वाली गरीबी, पथरायी जड़ता, सामाजिक असमानता, जाति के अमानवीय भेदभाव, नसों में दौड़ता सामंतवाद, चेतना को अपने अंधेरों से ढकने वाला कई पर्तों का अंधविश्वास, परम्पराओं के नाम पर असंख्य कुरीतियों और धर्म के निरर्थक कर्मकांडों में मुक्ति ढूँढने वाले, विभिन्नताओं से भरे समाजों में नयी चेतना, जाग्रत विवेक, प्रगतिशीलता और अलौकिक प्रतिभाओं के स्वर्णिम आलोक देख लिए थे? या फिर इसलिए कि स्वतंत्रता पाने के लिये लगभग पचास वर्षों से ब्रिटिश सरकार से किए जा रहे संघर्षों और त्याग के बाद आजाद हुआ भारत, उन्हें अनुशासित, शिक्षित, संगठित और किसी महान लक्ष्य के प्रति सामूहिक चेतना और निष्ठा से सराबोर दिखा था? यदि इनमें से कोई कारण नहीं था, तो फिर क्या उन्होंने जल्दीबाजी या गलती से ऐसा संविधान, ऐसी चुनाव प्रणाली और ऐसा लोकतान्त्रिक ढाँचा चुना जो दूसरे देशों में तो संभव था, पर भारत में नहीं? या फिर उन्हें विश्वास था कि कुछ कमजोरियों, कमियों के बाद भी, धीरे-धीरे वे देश को प्रगति, समता, धर्मनिरपेक्षता की राह पर आगे बढ़ाते ले चलेंगे । हो सकता है, क्योंकि ऐसा सोचना और करना उनकी शायद मजबूरी भी थी, क्योंकि उस समय उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था । इसके अलावा इसका सबसे बड़ा एक कारण यह भी था कि पिछले 15 वर्षों से देश के एक बड़े हिस्से में हुए, 1937 के चुनावों से, यह प्रणाली और लगभग यही संवैधानिक ढाँचा काम कर रहा था । इसका उन्हें अनुभव था । इससे हट कर कुछ नया सोचने और करने का उनके पास न समय था, न स्थितियाँ और शायद न ही सामर्थ्य थी । यही कुछ मिले जुले कारण थे, जिन्होंने हमारे संविधान को अपने उस रूप में संभव बनाया जिसमें हमने उसे स्वीकार करके खुद को सौंप दिया ।
यह देखना दिलचस्प है कि उस समय दुनिया के कुछ देश और कुछ व्यक्ति, बेहद उत्सुकता और सरोकार से आजाद हुए भारत की इन कोशिशों को हैरत, शंका और संशय से देख रहे थे । ये व्यक्ति भारत की कठोर वास्तविकताओं से जुड़े रहे थे, इसलिए इनसे परिचित थे। संविधान सभा की सफलता को लेकर उनके मन में संदेह थे। इनमें एक एन्थनी ईडन थे। चर्चिल के इस्तीफे के बाद यह 1955 में इंग्लैंड के प्रधान मंत्री बने थे । इसके पहले वह 1935 से 1945 के बीच के 18 महीनों को छोड़कर, और इसके बाद फिर, 1951 से 1955, तक इंग्लैंड की विदेश नीति से गहराई से जुड़े रहे थे । उसे दिशा और नीति देते रहे थे । दूसरे महायुद्ध के पहले दुनिया की बेहद उलझी राजनीति में उनकी सक्रिय भूमिका व हस्तक्षेप था । 1957 में तीन खंडों में लिखी अपनी संस्मरणात्मक आत्मकथा में उन्होंने लिखा है – ”समय की शुरूआत से ही सरकारों में जितने भी प्रयोग करने की कोशिशें की गयीं, मेरा विश्वास है, संसदीय सरकार में भारतीय साहसहिम्मत सबसे रोमांचक है । एक उपमहाद्वीप अपने दसियों लाख लोगों पर मुक्त लोकतंत्र (आशय वयस्क मताधिकार से है। — प्रि.) लागू करने की कोशिश कर रहा है, जो इस छोटे द्वीप में सदियों में धीरे-धीरे विकसित हुआ है, आगे बढ़ा है । यह कोशिश करना बहुत हिम्मत की बात है और यह अभी तक रेखांकित किये जाने की हद तक कामयाब (भी) है । (यह) भारतीय उद्यमसाहस हमारे देश की कमजोर नकल नहीं है, बल्कि जो हमने कभी नहीं सोचा, उससे कई गुना बड़ा है, और उसे नए सिरे से बनाया गया है ।” (फुल सर्किल : पृष्ठ 222) प्रशंसा के ये शब्द कोई झूठी या हवाई बात नहीं थी, क्योंकि भारत की आजादी भयानक विभीषिकाओं के बीच आयी थी । हिंसा, घृणा, साम्प्रदायिकता, धर्मान्धता, अभूतपूर्व नरसंहार और बड़ी आबादी के डरावने विस्थापन के साथ देश आजाद हुआ था। बावजूद इसके, हम उसके बीच से संभल कर निकल आए। देश को तेजी से आगे बढ़ाने और इसकी विविधताओं से भरी जनता को सक्रिय, जाग्रत और भारतीयता की प्रगतिशील सोच देने के लिए, हमने दुनिया का सबसे बड़ा, उदार और लचीला संविधान बनाया । पर कमी यह रह गयी कि इन सबके अनुरूप जनमानस को रचने की न तो कोई कोशिश की गयी थी और न ही इसकी कोई तैयारी थी। शायद इतना समय नहीं था । चुनौतियाँ, संघर्ष और संकट बहुत अधिक थे । लेकिन आजादी मिल जाने और संविधान बन जाने के बाद भी, विभिन्न राजनैतिक दलों और व्यक्तियों में ऐसा कुछ करने की न तो इच्छा दिखती थी, न स्वप्न और शायद उनमें इतनी शक्ति भी नहीं बची थी। उनके लिए चुनाव जीत कर सत्ता तक पहुँचना एकमात्र लक्ष्य और लोकतंत्र का यही एकमात्र अर्थ रह गया था । सारे दलों में काँग्रेस सबसे बड़ा, पुराना, असरदार दल था । यह काम उसको ही शुरू करना चाहिए था। उसे चाहिए था, वह एक नया भारत और इस नए भारत के अनुरूप एक नया जनमानस गढ़ती । लेकिन इस रपटन पर वही सबसे तेजी से फिसली । अकेला गांधी था जिसने सत्ता की इस रपटन को तभी पहचान लिया था । कांग्रेस को चेतावनी देते और सतर्क करते हुए, उन्होंने 17-12-46 के साप्ताहिक ‘हरिजन’ में लिखा – ”एक ऐसे संगठन में, जो सेवा के लिए ही है और जिसने पद और फालतूतुच्छ चीजों का (हमेशा) बहिष्कार किया है, उसमें यह भावना पैदा होना कि विधान सभाओं में चुना जाना सम्मान की बात है, नुकसान पहुँचाने वाला है । यदि कोई ऐसी भावना (मन में) जड़ जमा लेती है तो यह कांग्रेस का नाम खराब करेगी और उसके विनाश का कारण बनेगी ।” (शाह कमीशन रिपोर्ट, 35) गांधी इससे यादा खुले शब्दों में और क्या चेतावनी दे सकते थे? उनको भी तो कांगेस और देश की राजनीति में तेजी से हाशिए पर ढकेला जा रहा था।
गाँधी ने जो कहा, भविष्य में अक्षरश: वही हुआ । आजादी के बाद कांग्रेस में केवल वही भावना बची रह गयी जिसका गांधी को डर था। उसने खुद के और लोकतंत्र के अन्य सारे सरोकार, अर्थ, उद्देश्य धुँधले कर दिए । 25 जून 1975 की आधी रात जो हुआ, वह वास्तव में इसी असफल होते लोकतंत्र की सबसे तेज और पीड़ा भरी चीख थी । इस पीड़ा भरी चीख का पहला स्वर 12 जून 1975 को सुनायी दिया था । उसके बाद के 14 दिन जैसे अमावस्या की काली रात की ओर बढ़ते, धीरे-धीरे घटते चाँद के दिन थे । चाँद की रोशनी और चमक हर दिन कुछ कम होती जा रही थी । 14 दिन बाद अंधेरों ने चाँद को पूरी तरह निगल लिया । 12 जून से 25 जून के बीच, हर रात देश के हर दिन और यादा गहराते चौदह दिन के इन अंधेरों को अब देखते हैं ।
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12 जून की सुबह से इस घटनाक्रम की शुरूआत हुयी । इस दिन तीन प्रमुख घटनाएं हुयीं। ये इंदिरा गांधी को व्यक्तिगत रूप से दुखी और परेशान करने वाली थीं। पहली, डी.पी.धर की मृत्यु, दूसरी, इंदिरा गांधी के 1971 के लोक सभा चुनाव को निरस्तरद्द करने वाला इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला और तीसरी, देर रात आए गुजरात विधान सभा के चुनाव परिणामों में इंदिरा के विरुद्ध संयुक्त विपक्षी दलों के मोचर्ें की विजय ।
डी.पी. धर की मृत्यु इंदिरा गाँधी के लिए राजनीतिक नुकसान तो था ही, उनका अपना व्यक्तिगत दुख भी था । मृत्यु के समय डी.पी. धर मास्को में भारत के राजदूत नियुक्त थे । इंदिरा गांधी हमेशा से उनकी सूझबूझ और राय पर विश्वास करती थी,ं खासतौर से सोवियत संघ के मामले में । 1971 में बांग्ला देश युद्ध से पहले हेनरी किसिंगर ने चीन की गुप्त कूटनीतिक यात्रा की थी । उस समय वह राष्ट्रपति निक्सन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे । 1949 में चीन में कम्युनिस्ट सरकार बनने के बाद यह किसी अमरीकी राजनीतिज्ञ की पहली चीन यात्रा थी । इसी यात्रा ने अगले साल निक्सन और माओ की ऐतिहासिक मुलाकात का आधार बनाया था । अमेरिका और चीन की इस बढ़ती राजनीतिक नजदीकी से पाकिस्तान बहुत खुश और उत्साहित था । पर इंदिरा गाँधी के लिये यह गहरी चिंता का विषय था। उस समय अमेरिका और चीन, दोनों ही देश बांग्ला देश के मामले में भारत विरोधी रुख अपनाए हुए थे । इंदिरा गाँधी ने तब दो दिन के अंदर ही डी.पी. धर को मास्को भेजा था । वहाँ वह पहले भी राजदूत रह चुके थे । धर ने बहुत जल्दी और आसानी से, भविष्य में होने वाली सोवियत संघ और भारत के बीच हुयी ऐतिहासिक मैत्री संधि को व्यावहारिक और मूर्त रूप दिया था । इसी तरह, जब बांग्ला देश के युद्ध के समय अमेरिकी नौसेना का सातवाँ बेड़ा बंगाल की खाड़ी की तरफ बढ़ा था, ज् ााहिर था भारत को धमकाने के लिए, तब फिर डी.पी. मास्को गए थे और वापसी में अपने साथ रूसी उपविदेश मंत्री वी.वी. कुजेनत्सोव को लेकर लौट थे । रूसी मंत्री युद्ध खत्म होने तक भारत में रहे थे । (इंदर मेहरोत्रा) यह अमरीका को सीधा और चेतावनी भरा कठोर संकेत था । बेड़ा वापस लौट गया था ।
मृत्यु के कुछ दिन पहले वह आधिकारिक काम से भारत आए थे । श्रीनगर गए हुए थे। कश्मीर के ही रहने वाले भी थे । वहीं पढ़े थे । श्रीनगर में उन्हें दिल का दौरा पड़ा। वापस दिल्ली आकर गोविन्द वल्लभ पंत अस्तपाल में भरती हुए थे। डी.पी. धर की मृत्यु 12 जून को सबुह 6 बजे के आसपास हुयी थी । इंदिरा गांधी तत्काल वहाँ पहुँची थीं और उनकी अंत्येष्टि के निर्देश दे रहीं थीं। तब वह नहीं जानती थीं, चार घंटे बाद उनके जीवन का सबसे बड़ा राजनीतिक तूफान आने वाला है ।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा ने 12 जून 1975 को सुबह 10 बजे राजनारायण की 1971 की चुनावी याचिका पर अपना फैसला सुनाया । राजनारायण 1971 में रायबरेली (उ.प्र.) से इंदिरा गांधी के खिलाफ लोक सभा का चुनाव लड़े थे और लगभग 1 लाख मतों से हारे थे । उन्होंने कोर्ट में याचिका डाली थी कि इंदिरा गांधी ने चुनाव में भ्रष्ट साधनों का इस्तेमाल किया था । जस्टिस सिन्हा ने इसी याचिका पर अपना फैसला दिया था । उनके फैसले में तीन बातें प्रमुख थीं । पहली, उन्होंने राजनारायण की याचिका को सही मानते हुए, इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्तरद्द अप्रभावी कर दिया था । दूसरी, उन्होंने संविधान के ‘जन प्रतिनिधि कानून’ की धारा 8-ए का हवाला देकर, इंदिरा गांधी को 6 वर्ष के लिये किसी भी चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया था । तीसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी, कि उन्होंने अपने आदेश के लागू होने पर 20 दिनों के लिए रोक लगा दी थी । बीस दिन या उससे पहले, जैसे ही इंदिरा गाँधी उनके फैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल करेंगी, यह मामला सुप्रीम कोर्ट के अन्तर्गत आ जाएगा और इसलिए उनका आदेश अपने आप ही प्रभावहीन हो जायेगा । दूसरे शब्दों में, उन्होंने इंदिरा गांधी को बीस दिनों की मोहलत दे दी थी, कि वह उनके आदेश के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट चली जाएँ और उनके इस आदेश को निष्प्रभावी कर दें। हर कोई जानता था वह सुप्रीम कोर्ट जाएँगी ही । इस तरह जस्टिस सिन्हा ने अपने आदेश में तत्काल से क्रियान्वित या प्रभावी होने वाला कोई आदेश नहीं दिया था । इंदिरा गांधी प्रधान मंत्री के रूप में जिस तरह काम कर रहीं थीं, 20 दिनों तक और कर सकती थीं । उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में काम किया भी । उन 20 दिनों में ही उन्होंने संविधान द्वारा प्रधानमंत्री को दी गयी समस्त शक्तियों व अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए, 14 दिनों के अंदर ही देश में आन्तरिक आपात्काल लागू कर दिया ।
जस्टिस सिन्हा के फैसले का व्यावहारिक या कार्यरूप में कोई प्रभाव न पड़ा हो, लेकिन इसका नैतिक संदेश स्पष्ट और महत्त्वपूर्ण था । देश के इतिहास में पहली बार किसी प्रधानमंत्री को चुनाव में भ्रष्ट साधनों का प्रयोग करने का दोषी पाया गया था और उसका चुनाव रद्द कर दिया गया था । इस फैसले के बाद प्रधानमंत्री पर स्वत: एक नैतिक दबाव बन जाता था, कि वह देश की जनता के सामने, राजनीति में उच्च मूल्यों का उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए अपने पद से त्यागपत्र दे दें। यह दबाव इसलिए और यादा बन जाता था, क्योंकि इसके पहले की राजनीतिक परम्परा ऐसी ही रही थी । नीलम संजीव रेड्डी आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। ‘बस रूट’ के राष्ट्रीयकरण के मुद्दे पर हाईकोर्ट में उनकी आलोचना हुयी तो उन्होंने त्याग पत्र दे दिया था । द्वारिका प्रसाद मिश्र भी जब चुनाव में अयोग्य ठहराए गए तो उन्होंने मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री पद छोड़ा था । चेन्ना रेड्डी से तो नैतिकता के प्रश्न पर त्यागपत्र स्वयं इंदिरा गाँधी ने लिया था । (बिशन : पृष्ठ 491) इसके पहले नेहरू मंत्रिमंडल में टी.टी. कृष्णमचारी पर फिरोज् ा गाँधी द्वारा अनियमितता के आरोप लगाए जाने पर उन्होंने वित्त मंत्री का पद छोड़ा था । लाल बहादुर शास्त्री ने रेल मंत्री पद छोड़ा था । इन उदाहरणों की परम्परा में ही, यह इंदिरा गांधी का नैतिक दायित्व माना जा रहा था कि वह त्यागपत्र दें । उनसे अपेक्षा की जा रही थी कि वह लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने, राजनीति में शुचिता और नैतिकता को सर्वोच्च महत्त्व देने का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए, अपने दल की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए प्रधानमंत्री पद छोड़ दें । लेकिन सच तो यही है, कि राजनीति में ऐसे शब्दों की कोई जगह नहीं होती, और न ही राजनीति नैतिक मूल्यों से कभी कोई सरोकार रखती है । इसके अलावा भी, इंदिरा गाँधी के लिये कानूनी रूप से तत्काल पद छोड़ने का कोई आदेश नहीं था । जस्टिस सिन्हा ने खुद ही उन्हें पद पर बने रहने और काम करते रहने के लिए 20 दिन का समय तो दिया ही था। त्यागपत्र न दे कर इंदिरा गांधी न तो कुछ गैर कानूनी कर रही थीं, न आलोकतांत्रिक व असंवैधानिक, और न ही न्यायपालिका की अवमानना कर रहीं थीं । लेकिन विरोधी दलों और प्रेस ने उनके त्यागपत्र को बड़ा सवाल बना दिया था। जिन दो बेहद मामूली मामलों के आधार पर इंदिरा गांधी या दूसरे शब्दों में कहें, तो बहुमत से चुनी गयी सरकार के प्रधानमंत्री का चुनाव खारिज किया गया, बेशक वह संविधान की कठोर, अति शुचितावादी, अव्यावहारिक माँग कही जाए, लेकिन कानून की किताबों में ये मामले, एक अपराध के रूप में तो दर्ज थे ही। इसके अलावा भी, प्रधानमंत्री के चरित्र पर तो एक छींटा भी कई गुना बड़ा दिखता है, इसलिए उनके त्यागपत्र की माँग, जाग्रत और विवेकी लोकतन्त्र की गरिमा, प्रभा मंडल और आलोकित छवि तो रचता ही था। हमारे लोकतंत्र और संविधान की बुनियाद भी, कुछ ऐसे ही नैतिक मूल्यों पर रखी गयी थी। गाँधी अभी बहुत दूर की बात नहीं हुए थे।
देखा जाए, तो इस निर्णय के रूप में इंदिरा गाँधी के पास एक अनोखा अवसर स्वयं चलकर आया था, जब वह बांग्ला देश की विजय की अपनी विराट छवि के बाद, धीरे-धीरे धुँधलाती जा रही अपनी छवि से उबर कर, और अधिक विराट और नैतिक छवि गढ़ सकती थीं। त्याग को हमेशा सर माथे बैठाने वाले इस देश या शायद विश्व के सामने भी, त्याग, विनम्रता और लोकतंत्र के मूल्यों में अपनी आस्था का अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत कर सकती थीं। नैतिकता के आवरण में बढ़ते हुए जेपी (जयप्रकाश नारायण) के आंदोलन की ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ को अपने इस एक कदम से हाशिए पर फेंक कर, देश की जनता के सामने जेपी से बड़ी नैतिक और त्यागपूर्ण छवि रच सकती थीं। जस्टिस सिन्हा ने शायद उनको ऐसी ही कुछ करने के पहले 20 दिनों का समय दे दिया था, कि यदि वह अपने पद से इस्तीफा दें, तो देश में किसी भी तरह की प्रशासनिक या राजनीतिक अव्यवस्था न फैले, और इसके लिए इंदिरा गांधी एक वैकल्पिक व्यवस्था खड़ी कर सकें। विधिवत, अपने अनुकूल प्रधानमंत्री और उसका मंत्रिमंडल बनवा दें, जिससे कि उनके इस्तीफे के बाद भी देश सुचारु रूप में चलता रहे। 20 दिनों में वह सुप्रीम कोर्ट से कानूनी राहत पा कर वापस फिर अपने पद पर लौट सकती थीं। उनकी छवि अधिक उजली हो जाती । पर दुर्भाग्य से इंदिरा गांधी ने इन 20 दिनों का उपयोग बिल्कुल उलट ढंग से किया । वह समूचे भारतीय लोकतंत्र को एक बेहद दुर्भाग्यपूर्ण कालखंड में खींच ले गयीं।
जस्टिस सिन्हा ने अपने फैसले में इंदिरा गांधी को केवल दो मामलों में भ्रष्ट या कि गलत साधनों का उपयोग करने का दोषी पाया था । चार में उनको बरी कर दिया था । ये देखना रोचक है कि दोनों मामले आज की हर तरह से नंगी, तुच्छ और अपने भ्रष्ट आचरण पर गर्व से इठलाती, पतित राजनीति में, हास्यास्पद या मूर्खता ही लगेंगे । जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी के भ्रष्ट साधन का पहला मामला यह देखा, कि इंदिरा गांधी ने अपने सचिवालय में विशेष डयूटी पर नियुक्त किए गए यशपाल कपूर को, अपने चुनाव के इंतजाम की देखभाल के काम पर लगाया । (आज है न अजूबा?) अपना चुनावी एजेंट बनाया और चुनाव में उससे मदद ली । एक सरकारी नौकर होते हुए और सरकारी सेवा में रहते हुए, यशपाल कपूर ऐसा नहीं कर सकते थे । जस्टिस सिन्हा ने अपने फैसले में कहा कि हालांकि यशपाल कपूर ने 7 जनवरी 1971 से इंदिरा गांधी का चुनावी प्रचार शुरू कर दिया था, लेकिन अपना इस्तीफा उन्होंने सचिवालय में 13 जनवरी 1971 को दिया। 25 जनवरी तक वह सरकारी सेवा में रहे जब तक कि उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं हुआ। दूसरा भ्रष्ट साधन का प्रयोग यह माना गया, कि उनकी चुनावी सभाओं का मंच बनाने, माइक, बिजली आदि की व्यवस्था करने के लिए राय अधिकारियों और प्रशासन की मदद ली गयी, (है न उससे भी बड़ा अजूबा?) जबकि उस समय उत्तर प्रदेश में गैर कांग्रेसी सरकार थी ।
ये दोनों ही आरोप इतने बड़े और गम्भीर माने गए, कि इनके आधार पर, पिछले चार सालों से देश के प्रधानमंत्री पद पर काम करते रहने वाले प्रधानमंत्री के चुनाव को, गलत करार देकर रद्द कर दिया गया । ध्यान देने की बात है, कि इंदिरा गांधी राजनारायण से एक लाख से अधिक मतों से जीती थीं। ज् ााहिर है, उनके चुनावी प्रचार में यशपाल कपूर के शामिल होने से या प्रशासन द्वारा मंच बनाने और लाउडस्पीकर, लाइट की व्यवस्था करने से चुनाव परिणाम पर राई-रत्ती भर असर नहीं पड़ा होगा। पर कानून की निगाह में अपराध तो अपराध होता है, नतीजे में इंदिरा गांधी अपराधी करार दे दी गयीं । आज सन् 2025 में, चुनावों में जिस तरह लोकतंत्र, संविधान, जन प्रतिनिधि कानून का मखौल उड़ाया जाता है, जिस तरह सरकारी अमले और संसाधनों का इस्तेमाल होता है, जिस तरह चुनाव आयोग की आचार संहिता का निर्भीक और निर्ला उल्लंघन होता है, और चुनाव आयोग यह सब कभी नत मस्तक हो कर, कभी बेबसी से, और कभी कतरे हुए पंखों के साथ, उसे अनदेखा करता रहता है। भाषा और नैतिकता के स्तर पर हर मर्यादा की लक्ष्मण रेखा लाँघी जाती है, ऐसे में ये दो आरोप और इन पर प्रधानमंत्री का चुनाव रद्द करना, हमें ऐसी छवि और ऐसा संदेश देते हैं, जैसे 1971 और 1975 में भारतीय लोकतंत्र सचमुच किसी ‘सतयुग’ में फल फूल रहा था । अपने महान लोकतंत्र के उच्चतम रूप में जीवित था । संविधान में स्थापित नैतिक मूल्यों का अक्षरश: पालन हो रहा था । संविधान और जनप्रतिनिधि कानून भी अपने सर्वाधिक प्रभावी रूप में सक्रिय था, और हमारा संविधान, चुनावी प्रत्याशियों के लिए श्रद्धा का पात्र था । न्यायपालिका अपने दायित्वों और कर्तव्यों से रेशा मात्र भी विचलित नहीं होती थी । (जब कि इसके विपरीत कई मामले सामने आ चुके थे।) इसीलिए, जस्टिस सिन्हा को शायद लगा कि जब सारी लोकतांत्रिक महानताएं देश के कदमों पर लोट रही थीं, ऐसे में कथित रूप से ये दो बड़े कलंक लोकतंत्र के माथे पर लग गये थे, जिन्हें मिटाना जरूरी था। लेकिन सच तो यह है कि देश में ऐसा परिदृश्य कभी नहीं रहा। ऐसा भी नहीं था कि इंदिरा गांधी के विरुद्ध राजनारायण किसी लोकतांत्रिक नैतिकता और चुनावी आचार संहिता का शब्दश: पालन करते हुए चुनाव लड़े थे । उनके पूरे व्यक्तित्व में इन चीजों का कभी कोई महत्त्व नहीं रहा था । ध्यान देने की बात है, कि उत्तर प्रदेश में 1971 में गैर कांग्रेसी गठबंधन की सरकार थी । त्रिभुवन नारायण सिंह मुख्यमंत्री थे । अपना विधान सभा चुनाव हाराने के बाद भी मुख्यमंत्री बने हुए थे। उन्होंने मुख्यंत्री पद छोड़ कर किसी लोकतांत्रिक नैतिकता या जनादेश का सम्मान करने का उदाहरण सामने नहीं रखा । 1975 में जिन विरोधी दलों का गठबंधन इंदिरा से नैतिकता के नाम पर इस्तीफा माँग रहा था, उसने ही उ.प्र. में त्रिभुवन नारायण को मुख्यमंत्री बनाए रखा । उनके पद पर बने रहने का समर्थन करने वालों में राजनारायण भी थे। उन्होंने तर्क दिया कि ‘बीच मंझधार में मल्लाह को बदला नहीं जा सकता’। (लिमये : जनता पार्टी : पृष्ठ 20) क्या यही तर्क इंदिरा गांधी पर लागू नहीं होता था ? वह तो देश की प्रधानमंत्री थीं? उनके हाथों में किसी राय की नहीं, देश की नौका थी, पतवार थी? उन्हें बदलने की बात तो और भी नाजायज् ा थी? फिर राजनारायण ने भी तो सरकारी तंत्र की सहायता ली थी। मधु लिमये ने लिखा है कि उनके खिलाफ कोई याचिका दायर नहीं की गयी, इसलिए किसी ने इस पर न बात की, न इसकी जाँच की और न इस पर सोचा ही । लिमये ने तो यह भी लिखा है कि राजनारायण ने इंदिरा गांधी के विरोधियों से चुनाव में बड़ी मात्रा में धन भी प्राप्त किया था । (वही)
यह सवाल आज भी उठता है कि जस्टिस सिन्हा ने आखिर इन दो बेहद मामूली आरोपों पर, जिनका चुनाव पर कोई व्यावहारिक असर नहीं पड़ा था, और जिन्होंने चुनाव परिणामों को बिल्कुल भी प्रभावित नहीं किया था, इतना बड़ा फैसला क्यों दे दिया? क्या इसके पीछे कोई विशेष कारण था? क्या ये दोष सचमुच इतने गंभीर थे कि इंदिरा गांधी को हल्की सजा देने या छोड़ देने पर, भविष्य में देश के लोकतंत्र के लिए नज् ाीर की तरह घातक हो सकते थे? क्या ऐसा फैसला देकर वह देश के सामने जन प्रतिनिधित्व कानून की गरिमा और सम्मान को स्थापित चाहते थे? या फिर यह सीधी सी उनकी इतिहास में अमर होने की लालसा थी, जो शायद पूरी हो भी गयी। यह भी संभव है, जस्टिस सिन्हा कानून की रक्षा के इतने सजग और समर्पित प्रहरी थे कि उन्होंने कानून का शब्द: पालन किया । इन सब कारणों के अलावा, इस फैसले के देने के पीछे, एक दूसरे कारण की भी अक्सर बात होती रही थी । क्या हम यह दुखदायी या डरावनी कल्पना करना चाहेंगे, कि किसी के प्रति जातिगत सहानुभूति के कारण उन्होंने यह निर्णय दिया? नहीं, ऐसा सोचना भी हमारे सामने आंतकित करने वाले कई पक्ष रख देगा । माना ऐसा होना संभव नहीं होगा, तब भी, इतिहास में अगर किसी तथ्य का कोई संकेत मिलता है, तो उसकी उपेक्षा कर देना या नकार देना, इतिहास की नैतिकता और ईमानदारी से धोखा होगा, इसलिए इसे देखना जरूरी है, कि दूसरी बात क्या चल रही थी? इंदिरा परिवार के बेहद नजदीकी रहे, मुहम्मद यूनुस ने अपनी किताब में एक घटना लिखी है।
”मई 1975 के शुरू में लखनऊ की एक शादी के दौरान जे.पी. श्रीवास्तव परिवार का एक सदस्य, जो कानपुर से आया था, मेरे पास आया और बोला, ‘सिन्हा अपनी बिरादरी का आदमी है, वह इतिहास बनाना चाहता है । फैसला मैडम के खिलाफ देने वाला है।’ मैंने यह खबर इंदिरा गांधी तक पहुँचा दी । उन्होंने कहा ‘मैंने भी यह सुना है, लेकिन गोखले (कानून मंत्री) को लगता है डरने की कोई बात नहीं है और फैसला उनके खिलाफ हो गया।'(मुहम्मद यूनुस: 207)
24 फरवरी को मोरारजी ने ‘इलेस्ट्रेटड वीकली ऑफ इंडिया’ के संपादक प्रीतीश नंदी को एक इंटरव्यू दिया था । उसमें जेपी पर आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा था कि जेपी ने बिहार के सबसे भ्रष्ट कृष्ण वल्लभ का समर्थन किया था । पूछे जाने पर, कि क्यों? उनका उत्तर था ‘जाति और क्या’? (लिमये : जनता पार्टी: पृष्ठ 529 खंड-2)
क्या हम जेपी के बारे में इस नज् ारिए से सोचना चाहेंगे? शायद नहीं, पर आगे पढ़िए। पुपुल जयकर ने भी लिखा है कि जेपी फैसले के बारे में पहले से जानते थे ।
”कुछ दिन पहले उनके (इंदिरा के) पास खबर पहुँची कि उनकी विरोधी शक्तियाँ सक्रिय हैं और फैसला उनके विरुद्ध जाएगा। तब ऑंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने संजीव रेड्डी को भेजा गया जयप्रकाश नारायण का संदेश पकड़ा था । जयप्रकाश ने रेड्डी को बताया था कि उनके पास पक्की खबर है कि फैसला इंदिरा के विरुद्ध जाने वाला है । ‘वह छह साल के लिए अयोग्य घोषित कर दी जाएंगी।’ यह हमारे हमले का मौका है । मुझे आपका समर्थन चाहिए ।” (पुपुल : पृष्ठ 270)
पुपुल ने लिखा है यह बात उनसे टेप पर उमाशंकर दीक्षित ने इंटरव्यू के दौरान कही थी ।
रॉ प्रमुख कॉव से भी इंदिरा गांधी को सूचना मिल चुकी थी कि निर्णय उनके विरुद्ध हो सकता है । फैसले के तुरन्त बाद जब वह कॉव से पहली बार मिलीं, तो कॉव ने कहा -”याद है आपको, मैंने क्या कहा था।” (पुपुल :271) लेकिन पहले से मिल रही छुटपुट सूचनाओं को इंदिरा गाँधी ने बहुत गम्भीरता से नहीं लिया और नतीजे में फैसला उनके विरुद्ध हो गया ।
यह सोचना गलत होगा कि यशपाल कपूर के इस्तीफे का मामला इतना बड़ा नहीं था जिस पर इतना कठोर निर्णय दिया जाता । आज यह आरोप खिलवाड़ लग सकता है, लेकिन कानून की किताब में तो यह दर्ज था ही। वे सब लोग, जो इंदिरा गांधी के मुकदमे की तैयारियाँ कर रहे थे, पूरा मामला देख रहे थे, वे शुरू से ही केस के इस पहलू पर सशंकित थे । उन्हें इंदिरा के विरुद्ध यह एक मजबूत प्रमाण दिख रहा था । वे इसकी कानूनी अहमियत भी समझ रहे थे। यह भी, कि इंदिरा गांधी के लिए इससे बचना कठिन होगा । यशपाल कपूर के इस्तींफा देने और स्वीकार करने की तारीख के फर्क के मुद्दे पर हक्सर और इंदिरा गांधी की इलाहाबाद हाई कोर्ट में पेशी हुयी। इस्तीफे के कांगज् ा प्रस्तुत किए गए, वगैरह । यह पूरा लंबा और कानूनी प्रसंग हम यहाँ छोड़ते हैं, क्योंकि यह हमारे विषय से बाहर है। यदि कोई इच्छुक पाठक इस पूरे प्रसंग को विस्तार और कानूनी बारीकियों के साथ समझना चाहता है, तो वह प्रशांत भूषण की पुस्तक ”द केस दैट शुक इंडिया’ देख सकता है । उनके पिता शांति भूषण ही राजनारायण के वकील थे और प्रशांत उनके साथ पेशियों पर इलाहाबाद जाते थे।
अगली कड़ी में जानते हैं- कौन था यह यशपाल कपूर?
(अकार 70 के अकथ से )