
25 जून 1975 की आधी रात को आपात्काल का लगाया जाना, इस देश के लोक तन्त्र के बुनियादी ढाँचे पर पहला घातक प्रहार था । यह क्यों, कैसे, किस प्रक्रिया से, किस तरह संभव हुआ, इसकी एक बहुत बाहरी रूपरेखा बनाते हुए, हम इसे जानेंगे।12 जून से 25 जून के बीच, हर रात देश के हर दिन और ज्यादा गहराते चौदह दिन के इन अंधेरों को अब देखते हैं । इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद क्या हुआ जानते हैं अब आगे……
अब वापस 12 जून की सुबह प्रधानमंत्री सचिवालय और फिर इंदिरा गांधी के घर चलते हैं और देखते हैं वहाँ क्या हो रहा था ।
जैसे ही मुकदमे का फैसला आया प्रधानमंत्री सचिवालय में सन्नाटा खिंच गया । पी.एन. धर ने सचिवालय और इंदिरा के घर में जो हुआ, उसका सबसे विश्वसनीय और प्रामाणिक ब्यौरा दिया है । उसको देखते हैं।
डी.पी. धर की अस्पताल में मौत के बाद पी.एन.धर सचिवालय से स्वर्गीय डी.पी. धर की पत्नी को फोन मिला रहे थे ।
”जब मेरा फोन पर सम्पर्क हुआ मैं डी.पी. की पत्नी से बात कर रहा था। शारदा प्रसाद भागते हुए मेरे कमरे में आए और परेशान आवाज में चीखे – ‘इलाहाबाद का फैसला आ गया है। प्रधानमंत्री को कुर्सी से हटा दिया गया है।’ पी.एन. धर ने लिखा है कि शारदा प्रसाद की खबर की भयावहता समझ कर वह प्रधानमंत्री के निवास गए । (प्रधानमंत्री सचिवालय, प्रधानमंत्री निवास के पास ही होता था – प्रि.) वहाँ देखा कि कुछ मंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष आ चुके थे और दो समूहों में बँटे थे । एक समूह फैसले के कानूनी पक्षों पर बात कर रहा था और दूसरा इसके राजनीतिक असर पर। पहला समूह कानून मंत्री (गोखले) के इर्द गिर्द था और दूसरा कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ के । धर ने लिखा है कि प्रधानमंत्री एक समूह से दूसरे के पास आ जा रहीं थीं । कुछ खोयी सी और संवादहीनता की स्थिति में थीं।
”मैं दोनों समूहों के साथ कुछ देर बैठा, जिससे कि स्थिति का जायजा ले सकूँ फिर दफ्तर आ गया । प्रधानमंत्री चाहती थीं जैसा चल रहा है, सरकार वैसी ही चलती रहनी चाहिए. उन्होंने मुझसे कहा कि मैं हर सुबह उनके निवास पर मिलता रहूँ, क्योंकि उन्हें लगता है अगले कुछ दिनों तक वह दफ्तर नहीं आ पाएंगी ।” (पृष्ठ:300 )
मंत्री, नेता इंदिरा गांधी के निवास पहुँचने लगे थे। इंदिरा गांधी को मुकदमे के फैसले की सूचना राजीव गाँधी ने दी थी । संजय गांधी घर पर नहीं था । वह अपने मारुति कारखाने में था । रोज की तरह 12 बजे के आसपास जब वह घर आया, तब उसे फैसले की सूचना मिली । जब तक वह नहीं आया था, तब तक इंदिरा गाँधी थोड़ा अनिर्णय, थोड़ी संवादहीनता की स्थिति में थीं। उन्होंने बीच में एक बार इस्तीफा देने का मन भी बनाया था । उनकी जगह कौन लेगा, इन नामों पर छुटपुट चर्चा भी शुरू हो गयी थी । जगजीवन राम और वाई.बी. चव्हाण इस दौड़ में सबसे आगे थे । इन्होंने अपने पत्ते फेंटने शुरू भी कर दिये थे । स्वर्ण सिंह का नाम भी कहीं कहीं इनके साथ या इनके पीछे चल रहा था । ये सब बातें इसलिए भी हो रहीं थीं कि हड़बड़ी में यह समझा गया था कि जस्टिस सिन्हा का आदेश तत्काल प्रभाव से लागू है । जब सूचना मिली कि जस्टिस सिन्हा ने अपने आदेश के लागू होने पर बीस दिन का स्टे दे दिया है, तो वातावरण बदल गया । तनाव लगभग खत्म हो गया । बीस दिन तक तो इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री थीं ही । तब तक सारी गोटें बिछायी जा सकती थीं । ताश के सारे पत्ते फेंटे जा सकते थे । रणनीतियाँ तय हो सकती थीं। इंदिरा गाँधी भी इसके बाद आश्वस्त और पूरी तरह सहज हो गयीं थीं ।
संजय के आने के बाद हर तरह की अटकलों, अनुमान, संभावनाओं पर विराम लग गया । घर के एक अलग कमरे में परिवार के सदस्यों की बैठक हुयी । परिवार में राजीव और संजय दोनों की राय थी कि इंदिरा गाँधी को कुर्सी नहीं छोड़नी चाहिए ।
इस पूरे मामले और जस्टिस सिन्हा के निर्णय को इस तरह देखा गया कि लाखों लोगों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि, लोकप्रिय नेता और प्रधानमंत्री को, क्या सिर्फ एक व्यक्ति के अपने ‘ज्ञान और विवेक’ के आधार पद दिए गए निर्णय के कारण प्रधानमंत्री पद छोड़ देना चाहिए? परिवार में किसी की भी राय इस पक्ष में नहीं थी । इंदिरा गाँधी ने बीच के समय में अगर इस्तींफा देने का मन बनाया भी, तो उनके इस्तीफे से जुड़े कुछ सवाल उन्हें ऐसा करने से रोक रहे थे। यदि वह प्रधानमंत्री पद छोड़ कर सुप्रीम कोर्ट गयीं और सुप्रीम कोर्ट ने इसी निर्णय को बहाल रखा, तो कोई भी चुनाव न लड़ने का 6 साल का लम्बा समय राजनीति में उन्हें पूरी तरह नेपथ्य में ढकेल देगा । इसके अलावा एक स्थायी धब्बा उनके तब तब के राजनैतिक जीवन पर लगा रहेगा । जो भी व्यक्ति उनकी जगह लेगा, वह कानून और नैतिकता की आड़ में इंदिरा को वापस नहीं लौटने देगा । 6 वर्षों में वह दल के अंदर अपना प्रभाव बढ़ा चुका होगा । शक्ति के सूत्र और स्रोत अपनी मुट्ठी में कर चुका होगा। इंदिरा गांधी 1969 में कांग्रेस के विभाजन के समय से ही अपने दल के व्यक्तियों को बहुत नजदीक से जानती थीं । उनकी महत्त्वाकांक्षाओं, कायरता, स्वार्थ, अस्थिरता और विचलन को भी जानती थीं । त्यागपत्र देने का निर्णय इंदिरा के राजनैतिक जीवन के लिए हर तरह से आत्मघाती था । ये सारे सवाल उनके इस्तीफा देने के विचार को खत्म कर देते थे । उधर संजय गांधी अपने साथियों या गुट के साथ इस पूरे मामले को दूसरी तरह से निपटाने के पक्ष में था । उसका मानना था कि केवल कुछ वामपंथी, कुछ बौद्धिक, कुछ अखबार और कुछ विरोधी दल के नेताओं से निपटना बहुत आसान है । इंदिरा गांधी ने अन्तत: सब उसी पर छोड़ दिया । राजनीति में संजय पर इंदिरा की यह पहली और गहरी निर्भरता थी। इसके बाद वह संजय पर उसके जीवन भर निर्भर रहीं ।
इस पूरे मामले में, संजय गांधी के दो प्रमुख सलाहकार या कि विश्वस्त सहयोगी थे। आर.के. धवन और हरियाणा का मुख्यमंत्री बंसीलाल । बंसीलाल ने ही गुड़गाँव में संजय की मारुति कार के लिए जमीन दी थी । जरूरत की दूसरी अनेक सुविधाएँ, संसाधन दिए थे । जब वह हरियाणा का मुख्यमंत्री बना, इंदिरा गाँधी उसको जानती भी नहीं थीं । फिर कैसे यह नामालूम सा इन्सान हरियाणा का मुख्यमंत्री बन गया? पढ़ें, यह हैरान कर देने वाली घटना । वास्तव में, 1970 में हरियाणा के मुख्यमंत्री भगवत दयाल शर्मा को इंदिरा गाँधी हटाना चाहती थीं । लेकिन वह गृहमंत्री गुलजारी नन्दा का नज् ादीकी था । उसे बदलने के लिए वह नन्दा पर दबाव डाल रहीं थीं। नन्दा नहीं मान रहे थे । इंदिरा ने नन्दा को समझाने के लिए इंद्र कुमार गुजराल को भेजा । आगे जो हुआ, वह गुजराल से सुनिए।
”मैं नन्दा से उनके घर पर मिला और उन्हें 1 घंटे तक भरसक समझाने की कोशिश की लेकिन कामयाब नहीं हुआ । वह एक ही बात दोहराते रहे कि भगवत शर्मा की तरह दूसरा प्रतिष्ठित व्यक्ति नहीं है । जब मैं बाहर निकल रहा था, नन्दा मेरे साथ पोर्च तक आए जहाँ मेरी कार खड़ी थी । उन्होंने यूँ ही पूछा ‘उसकी जगह कौन ले सकता है’? मैंने नन्दा से कहा ‘क्यों श्रीमती गाँधी को नाराज करते हैं? जिसे चाहे (मुख्यमंत्री) बना दें।’ वहाँ कुछ लोग बाहर, नन्दा के घर के बरामदे में बैठे इंतजार कर रहे थे । उनमें एक दुबला पतला और लम्बा आदमी, अपने मुड़े तुड़े कपड़ों में एक चारपाई पर बैठा था । मैंने कहा ‘किसी को बना दीजिए। इन्हें ही बना दीजिए’। जब दस मिनट की दूरी के बाद मैं घर पहुँचा, तो गृहमंत्री के दो बेहद जरूरी संदेश आ चुके थे। मैंने जब उन्हें वापस फोन किया, उन्होंने कहा, ‘जिस आदमी की ओर आपने इशारा किया था और कहा था इसे मुख्यमंत्री बना दीजिए, क्या आप गम्भीर थे’? मैं अवाक् रह गया । मैंने पीछे बैठे एक सांसद को याद किया – बंसीलाल। मैं आश्चर्यचकित था कि नन्दा उस पर विचार करेंगे । मैंने कहा मैं प्रधानमंत्री से पता करके आपको बताता हूँ । इंदिरा गाँधी किसी भी कीमत पर भगवत दयाल शर्मा को हाटना चाहती थीं । उन्होंने उत्तर दिया, मुझे इसकी परवाह नहीं है, उसकी जगह कौन लेता है? इस तरह बंसीलाल हरियाणा का मुख्यमंत्री बना और फिर हर एक के लिए आघात और आश्चर्य की तरह आपात्काल के दौरान भारत का रक्षा मंत्री । लोग सोचते थे, वह इंदिरा गांधी का खास आदमी था जिन्होंने उसका चुनाव किया । कुछ ही जानते थे कि वह यह भी नहीं जानती थीं कि वह कौन था, कैसा दिखता था”, (पृष्ठ::46)
क्या हमारी कल्पना में आ सकता है कि देश के किसी राय का मुख्यमंत्री और फिर देश का रक्षा मंत्री, इस तरह भी और ऐसा व्यक्ति बनाया जाता है? बाद में इसी व्यक्ति बंसीलाल ने आपात्काल में बहुत अधिक आंतक और क्रूरता दिखायी थी ।
जो था, संजय ने अब राजनीति के सारे सूत्र अपने हाथ में ले लिए थे । उसके गुट के बीच तय हुआ कि पूरे मामले को यह शक्ल दी जाए कि हाईकोर्ट के इस निर्णय के विरुद्ध देश की लाखों जनता इंदिरा गांधी के साथ है । उनके नेतृत्व में आस्था रखती है । इलाहाबाद उच्च न्यायालय का आदेश इस जनता के लिए कोई मायने नहीं रखता । ध्यान दे, न्यायालय के निर्णय के ऊपर आस्था को महत्त्व देने की यह पहली शुरूआत थी । फिर यही तर्क बाद में शाहबानो के मामलों में दिया गया और फिर बाबरी मस्जिद के मामले में भी ।
यह कहा गया, इंदिरा गांधी जनता की प्रतिनिधि हैं और केवल उसके प्रति जवाबदेह हैं, क्योंकि लोकतंत्र में जनता की भावनाओं का सम्मान करना ही नैतिक व कानूनी दायित्व है । वही सर्वोच्च सत्ता है और वही लोकतंत्र को अर्थ और उद्देश्य देती है । इस तरह जनता की भावना और आस्था की रक्षा और प्रतिनिधित्व की आड़ में, सत्ता ने सर्वोच्च न्यायालय को अपने ऍंगूठे के नीचे दबा कर रखने को वैधता व तर्क दे दिया था ।
शाम तक इंदिरा गाँधी के घर पर हाईकोर्ट के फैसले से पैदा हुयी अफरा तफरी और उत्तेजना पूरी तरह थम चुकी थी । अनिर्णय की स्थिति भी खत्म हो गयी थी । रणनीति तय कर ली गयी थी। इंदिरा गांधी के समर्थन में, उनके निवास पर विशाल भीड़ जुटाने, उनके प्रति विश्वास प्रकट करने के लिए रैली, प्रदर्शन आदि का काम शुरू हो गया था । इसके लिये दिल्ली ही नहीं, आसपास के प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों, सरकारी अधिकारियों को भीड़ जुटाने के काम पर लगा दिया गया। यह सब अब संजय गांधी और उसके गुट की देख रेख में प्रधानमंत्री निवास से संचालित हो रहा था । प्रधानमंत्री सचिवालय को हाशिए पर फेंक दिया गया था ।
आगे जारी…..