
कोई यह समझ ही नहीं पाया कि दीवार में खिड़की के साथ जो एक दरवाज़ा रहता है वो दरवाज़ा बाज़ार को भी खुल सकता है। उसने खिड़की के रास्ते आकर वो दरवाज़ा उम्र से लंबी सिक्स लेन पर फैले बाज़ार की ओर खोल दिया जिसका फलक विशाल और असीमित है।
दीवार में एक खिड़की रहती थी। ये खिड़की काफी शुरू से थी। बहुत पहले से। विनोद जी जब तब उस खिड़की से झांक भी लिया करते थे।
विनोद जी इन दीवारों के भीतर खिड़की के पास बैठे नितांत अकेले में साधनारत गुनते बुनते सृजन करते रहे। जब मुकम्मल हो जाता धीरे से दीवार में जो खिड़की रहती उससे ही बाहर झांकते । बाहर कुछ विशालकाय प्रकाशक होते जिनकी ओट में दीवार की खिड़की दुनिया को दिखाई ही नहीं देती।
वो प्रकाशक ही विनोद जी के विशाल रचना संसार के असीमित आयाम को खिड़की के सीमित आयतन बराबर ही दुनिया के लिए बाहर ला पाते।
इन प्रकाशकों ने खिड़की के कांच पर ऐसा मुलम्मा चढ़ा रखा था कि बाहर वाले भी विनोद जी को खिड़की के भीतर देख ही न पाते।
अब तक ऐसे ही चलते आया था। दीवार में खिड़की ही रही आई थी,मगर फिर एक दिन कोई उस छोटी सी खुली खिड़की से भीतर आया।
वो जानता था, हालांकि सभी जानते हैं , कि दीवार में सिर्फ खिड़की ही नहीं एक दरवाज़ा भी रहता है ।कोई यह समझ ही नहीं पाया कि दीवार में खिड़की के साथ जो एक दरवाज़ा रहता है वो दरवाज़ा बाज़ार को भी खुल सकता है। उसने खिड़की के रास्ते आकर वो दरवाज़ा उम्र से लंबी सिक्स लेन पर फैले बाज़ार की ओर खोल दिया जिसका फलक विशाल और असीमित है।
विनोद जी के लिए कभी खुद होकर दरवाज़े से बाहर बाज़ार जाना मुमकिन न हुआ ,ये उनके स्वभाव में नहीं रहा। मगर इस तरह बाज़ार का हो जाना संभव हुआ।
खिड़की से झोंकने वाले दरवाज़े के खुलने और इसके विशालकाय आयाम से विस्मृत हैं।
(जीवेश)