भूपेन हज़ारिका असम के चाय बागानों की खुशबू हिंदी संगीत में लेकर आए थे

अनुराग भारद्वाज

भूपेन हज़ारिका का साहित्यिक रूप भी उनके संगीत में खूबसूरती के साथ आया.किसी इंसान की दुनिया से रुख़सती का दर्द उसके चाहने वालों से ज़्यादा कोई महसूस नहीं कर सकता. भूपेन हज़ारिका को अग़र किसी ने सबसे ज़्यादा चाहा तो वे थीं फ़िल्म निर्देशक कल्पना लाज़मी. उन्होंने लिखा है, ‘वो मेरी जिंदगी का ‘रेड लेटर डे’ था जिस दिन भूपेन ने शरीर छोड़ा.’ अमूमन, ‘रेड लेटर डे’ उस दिन को कहा जाता है जो ज़ेहन में अच्छी और न भूलने वाली यादें दे जाए.

अमूमन, ‘रेड लेटर डे’ उस दिन को कहा जाता है जो ज़ेहन में अच्छी और न भूलने वाली यादें दे जाए. ‘भूपेन हज़ारिका : ऐज आई न्यू हिम’ में कल्पना लाजमी लिखती हैं, ‘उस दिन शनिवार था. मैं कुछ पलों के लिए उन्हें अस्पताल के कमरे में छोड़कर कॉफ़ी पीने गई थी कि डॉक्टर ने आकर बताया कि वे जा रहे हैं. पर कुछ है, जो उन्हें रोक रहा है. मैं भागकर पंहुची, तो देखा भूपेन तड़प रहे थे. चिल्लाकर बोली, ‘जा भूपसु (भूपेन) जा. शक्ति बटोर और जा. मैं तुम्हें आज़ाद कर रही हूं. अपनी मां के पास जाओ.’ भूपेन के शरीर ने उसी पल प्राण त्याग दिए. यह पांच नवंबर, 2011 की शाम चार बजकर 13 मिनट की बात है.

कभी नदी के सहारे यात्रा करें तो महसूस होता है कि सभ्यताओं और मानव विकास का क्रम कैसे बहते हुए पानियों से जुड़ा हुआ है. भूपेन हज़ारिका का शुरुआती जीवन ग़रीबी, लोक संस्कृति, लोकसंगीत और ब्रह्मपुत्र से इंतेहाई हद तक लगाव के ताने-बाने से बुना था और ऐसा ही आखिर तक रहा.

असम के सदिया क़स्बे में पैदा हुए भूपेन हजारिका ने 11 साल की उम्र में अपनी आवाज में अपना पहला रिकॉर्ड बना लिया था. स्नातक होने के बाद उन्होंने आकाशवाणी में नौकरी शुरू की और वहीं से स्कालरशिप पाकर ‘मास कम्युनिकेशन’ पर डॉक्टरेट करने के लिए अमेरिका की कोलम्बिया यूनिवर्सिटी चले गए. वह भूपेनदा की जिंदगी में एक निर्णायक मोड़ था. यहां उन्होंने फ़िल्मों के बारे में पढ़ा और सीखा. यहीं इनकी मुलाक़ात फिल्म निर्माता रॉबर्ट स्टेंस और रॉबर्ट जोसेफ़ फ्लैहर्टी से हुई. बाद में भूपे हजारिका को शिकागो विश्वविद्यालय से फ़ेलोशिप भी मिली और उन्होंने लोकसंगीत का अध्ययन जारी रखा.

अपनी किताब ‘धुनों की यात्रा’ में चर्चित साहित्यकार पंकज राग लिखते हैं कि अमेरिका के नीग्रो गायक पॉल रॉबसन के साथ गाना सीखने जाने पर भूपेन हजारिका को सात दिन की जेल हो गई थी. दरअसल, पॉल रॉबसन अश्वेतों के अधिकारों पर लड़ने वाले एक्टिविस्ट थे. भूपेन पर इस शख्स का इतना ज़बरदस्त प्रभाव था कि उनके गीत ‘ओल्ड रिवर मैन’ पर 1964 में उन्होंने ब्रह्मपुत्र नदी को अर्पण करते हुए ‘मनुहे मनुहर बाबे’ की रचना की. दोनों की ही रचना में सर्वहारा ही मुख्य किरदार है जो उस वक़्त की प्रबल विचारधारा थी.

ज़बरदस्त इत्तेफ़ाक यह भी है कि भूपेन हज़ारिका की धीर-गंभीर आवाज़ उनके दोस्त पॉल रॉबसन से काफ़ी मेल खाती है. संभव है, भूपेन ने गंगा की महानता और विवशता बताने वाला गीत ‘ओ गंगा बहती हो क्यों’ भी पॉल के गीत से प्रभावित होकर लिखा हो. वे लोकसंगीत से बेहद प्रभावित थे. अपनी पढ़ाई के दौरान वे जब भी वे लंबी जहाजी यात्राओं पर जाते तो स्थानीय लोकसंगीत को समझते और संग्रहित करते.

ख़ुद को ‘जोजोबर’ यानी यायावर मानने वाले भूपेन हज़ारिका का असम के बीहू, बन गीतों और बागानों के लोकसंगीत को लोकप्रिय बनाने में बहुत श्रेय है. यही उनकी ताक़त थी और कमज़ोरी भी. वे अक्सर कहते थे कि अगर वे भारत के किसी मध्य या पश्चिमी प्रांत से होते या हिंदी जानते तो ज़्यादा सुने और पसंद किये जाते.

कहा नहीं जा सकता कि शेष भारत से पूर्वोत्तर की संस्कृति, भाषा और संगीत का अलगाव उनके और ऊंचे उठने में आड़े आया, पर यह तो जरूर है कि भूपेन हजारिका अगर लोकप्रिय हुए तो प्रांतीय संगीत और गीतों से ही और इसमें सबसे पहले योगदान था, ‘जिबोन मुखी गान’ शैली का. रोज़मर्रा की घटनाओं को संगीत में ढालना इस विधा की ख़ासियत है. सुमंत चट्टोपाध्याय इस विधा के प्रवर्तक कहे जा सकते हैं और भूपेन इसे आगे ले जाने वाले. यहीं से वे असमिया समाज में स्वीकारे जाने लगे थे. पर ऐसा होने में काफी वक़्त लगा. कल्पना लाज़मी के मुताबिक़ लोगों द्वारा उनकी प्रतिभा की अनदेखी ने उन्हें काफ़ी बैचैन रखा और इसके चलते वे शराबनोशी की आदत से घिर गए थे. इससे कल्पना ने ही उनको बाहर निकाला.

हिंदी फ़िल्मों में उनका सफ़र ‘आरोप’ (1974) से शुरू होता है. इसी फ़िल्म के सेट पर उनकी मुलाक़ात पहली बार कल्पना लाज़मी से हुई. कल्पना की उम्र तब शायद 17 रही होगी. भूपेन 40 पार कर चुके थे. उनको देखते ही कल्पना दिल दे बैठीं. इस फ़िल्म के गीत मध्यम दर्जे की लोकप्रियता पा सके. हां, एक गीत ‘नैनों में दर्पण है, दर्पण है कोई देखूं जिसे सुबहो शाम’ काफी लोकप्रिय रहा.

इस गाने में किशोर कुमार के साथ लता मंगेशकर थीं. किस्सा है कि जब भूपेनदा पहली बार लताजी से मिले तो उन्होंने कहा, ‘आपका (लताजी) का नाम बहुत बड़ा है.’ इस पर वे विनम्रता से बोलीं, ‘इतना भी नहीं जितना आप सोचते हैं.’ लता जी का किसी संगीतकार की पहली ही फिल्म में गा देना यह भी बताता है कि बुद्धिजीवी भूपेन हज़ारिका के संगीत का दायरा कितना बड़ा था और कितना बड़ा उनका व्यक्तित्व. वैसे लताजी को ख़ुद अपना गाया हुआ असमिया भाषा का सबसे पसंदीदा गीत भी भूपेन का ही बनाया गीत ‘जोना कोरे राति, आखो मी रे माटी’ है. आप इसे भी सुनिए और लता की आवाज़ की दिव्यता महसूस कीजिए.

1972 में नेफ़ा का आम अरुणाचल प्रदेश हुआ और वह केंद्र शासित प्रदेश बना. इस पृष्ठभूमि पर अरुणाचल सरकार ने 1976 में एक फ़िल्म बनाई – ‘मेरा धरम मेरा देश’. संगीत के साथ-साथ फ़िल्म का निर्देशन भी भूपेन ने ही किया. इसमें उन्होंने अरुणाचल का लोक संगीत इस्तेमाल किया था. पंकज राग लिखते हैं कि भले ही इस फ़िल्म के गीत बहुत कम लोग सुन पाए, पर संगीत की दृष्टि से फ़िल्म का संगीत हिंदी-फिल्म संगीतों के अध्याय में एक नवीन पहलू तो जोड़ता ही है.

1985 में कल्पना लाज़मी ने ‘एक पल’ निर्देशित की. इसका संगीत भूपेनदा का ही था. लताजी के गए हुए दो गाने ‘छुपके छुपके हम पलकों में कितनी सदियों से रहते हैं’ और ‘जाने क्या है जी डरता है’ बड़े ख़ूबसूरत गीत हैं. यह फ़िल्म भी काफ़ी चर्चित हुई. कल्पना लाज़मी के मुताबिक़ उन्होंने पहली बार भूपेन के दायरे में ही रहकर उनके बराबर आने की कोशिश की. अपनी किताब में उन्होंने लिखा है कि शुरुआत में भूपेन को उन दोनों के रिश्ते को समाज में ज़ाहिर करने से परहेज़ रहा. वे कभी उन्हें लोगों से अपनी ‘बिज़नस मैनेजर’ तो कभी ‘सेक्रेटरी’ कहकर मिलवाते. असमिया समाज ने जब भूपेन की कला का सम्मान करना शुरू किया तो कल्पना और उनके रिश्ते पर भी एक प्रकार से स्वीकृति की मोहर लग गयी. समाज ने माना कि भूपेन की रचनात्मकता के पीछे कल्पना का भी हाथ है. हालांकि, भूपेन की मृत्यु के बाद उसी समाज ने फिर कल्पना को भूपेन की सांस्कृतिक विरासत से अलग करने की कोशिश की. उनकी मां ललिता लाज़मी, जो खुद एक स्थापित चित्रकार हैं और जिन्हें आपने ‘तारे ज़मीं पर’ फ़िल्म में पेंटिंग प्रतियोगिता में जज बने हुए देखा था, इस रिश्ते के समर्थन में नहीं थी. पर भूपेन के अंतिम संस्कार में उन्होंने ही कल्पना को जाने के लिए राज़ी किया था.

खैर, भूपेन हज़ारिका की सबसे ज़्यादा चर्चित संगीतबद्ध फिल्म थी कल्पना लाज़मी की ही ‘रुदाली’ (1994). इसके लगभग सभी गीत मशहूर हुए. ‘दिल हुम हुम करे’ उनके असमिया गीत ‘बुकु हुम हुम करे’ का हिंदी रूपांतरण था जिसमें बोल गुलज़ार के थे. वहीं, ‘समय ओ धीरे चलो’ में राजस्थानी संगीत की परछाई दिखती है और यह गीत भी बड़ा ज़बरदस्त बन पड़ा है. आप ‘बुकु हुम हुम’ सुनिए जो हिंदी वाले गीत से शर्तिया बेहतर है.

भूपेन हजारिका जब तक रहे, कल्पना के स्थायी संगीतकार रहे. दूरदर्शन के लिए कल्पना का बनाया हुआ धारावाहिक ‘लोहित किनारे’ भूपेन की प्रेरणा कही जा सकती है. कल्पना लाज़मी की ‘दमन’ और ‘दरमियां’ का संगीत उन्हीं की देन है. भूपेन हजारिका असम के स्थापित साहित्यकार भी थे और उन्होंने कई क़िताबें प्रकाशित कीं. पंकज राग उनके व्यक्तित्व की बड़ी सुंदर परिभाषा करते हैं, ‘हज़ारिका का साहित्यिक रूप उनके संगीत में भी इतनी ख़ूबसूरती से आया है कि न केवल पूर्वांचल की लोकसंस्कृति से प्रेरित गीत बल्कि आधुनिक संवेदनाओं से साक्षात्कार कराने वाले गीतों को भी वे बड़े सुरुचिपूर्ण तरीक़े से कंपोज़ करते हैं’. अगर सीधे सरल लफ़्ज़ों में कहा जाए तो वे असम के चाय बागानों की ख़ुशबू, अरुणाचल में सबसे पहले उगने वाले सूरज की किरणों का तेज़ और वहां की वादियों की हरियाली को हिंदी संगीत ही नहीं, पूरे भारत में फैलाने वाले शख्स थे.

ये लेखक के निजि विचार हैं- सौज- सत्याग्रह- लिंक नीचे दी जा रही है

https://satyagrah.scroll.in/article/122032/bhupen-hazarika-life-music-profile

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