कहानीः ‘ऐरेबी’- जेम्स ज्वॉयस

जेम्स जॉयस (02 फरवरी 1882,  – 13 जनवरी 1941) – जेम्स ऑगस्टिन अलॉयसियस जॉयस एक आयरिश उपन्यासकार, लघु कहानी लेखक और कवि थे। 20 वीं शताब्दी के सबसे प्रभावशाली और महत्वपूर्ण लेखकों में से एक माना जाता है।  यूलीसिस (1922) उनकी महत्वपूर्ण रचना है। इसके साथ ही शॉर्ट-स्टोरी संग्रह डबलिनर्स (1914), और उपन्यास ए पोर्ट्रेट ऑफ़ द आर्टिस्ट ए यंग मैन (1916) और फिननेग्स वेक (1939) हैं। आज पढ़ते हैं उनकी कहानी-‘ऐरेबी’ । अनुवाद आनंद बहादुर का है-

‘ऐरेबी’ कहानी जेम्स ज्वायस के प्रारम्भिक रचनाकाल की है। तभी ज्यादा स्फीत ज्यादा बोधगम्य। अन्तश्चेतना के प्रवाह की उनकी ज्यादा प्रौढ़ रचनाओं की तुलना में यह कम इनसीडियस और जटिल है। मगर भाषा की वह पकड़ तथा सामान्य में छुपे असामान्य की सतहों को चित्रित करने के उनके हॉलमार्क को यहां भी चिन्हित किया जा सकता है। यह शुद्ध रूप से प्रेम, उसकी प्रतीक्षा और उसकी यातना की कहानी है। यहां प्रेम की रूमानी भव्यता का कोई उत्सव आयोजन नहीं है। किसी ने इसे ‘दृश्यमान प्रतीक्षा की कहानी’ भी कहा है और यह शत प्रतिशत सही है। (आ. ब.)

‘ऐरेबी’- जेम्स ज्वॉयास

(ऐरेबी– ग्रैंड ओरियन्टल फेट (एक विशाल ओरियन्टल बाजार जो डब्लिन में 14 से 19 मई 1894 तक लगा था) को दिया गया नाम। फेट पारम्परिक बाजार से अलग किस्म की चीज होती है। यह एक विशिष्ट प्रकार की घटना होती है जिसमें चैरिटी या समाज सेवा के लिये चीजों को बेचा जाता है, और साथ ही आमोद प्रमोद की व्यवस्था रहती है।)

नाॅर्थ रिचमण्ड स्ट्रीट एक गली होने के चलते काफी शांत जगह थी। सिवाय उस समय के जब ‘क्रिश्चियन ब्रदर्स स्कूल’ अपने बच्चों को आजाद करता था। भूमि के एक चौकोन टुकड़े पर एक दुमंजिली वीरान इमारत अपने पास-पड़ोस से अलग-थलग खड़ी थी। गली के दूसरे मकान, अपने भीतर की भद्र जिंदगानियों के प्रति सचेत, एक दूसरे को भूरे अविचलित चेहरों से घूरते रहते।

हमारे घर के पूर्व किरायेदार, एक पादरी, की मृत्यु पिछवाड़े वाली बैठक में हो गई थी। लंबे समय तक बंद रहने के चलते कमरों में टंगी हवा में एक बासी गंध थी, और किचन के पीछे वाला खाली कमरा पुराने और बेकार अखबार के टुकड़ों से अंटा पड़ा था। इनके बीच मुझे अखबारी जिल्द लगी कुछ किताबें मिलीं, जिनके पन्ने भीग कर भसभसा गए थे और तुझे-मुड़े हुए थे। वाल्टर स्कॉट का ‘द ऐबट’ और ‘द डिवाउट कम्यूनिकेन्ट’ तथा ‘द मेमायर्स आव विदोक’ । अंतिम पुस्तक मुझे सबसे अधिक पसंद थी, क्योंकि उसके पन्ने पीले रंग के थे। इमारत के पिछवाड़े में एक जंगली बगीचा था, जिसके बीचो-बीच सेब का एक वृक्ष तथा कुछ अलग-थलग उगी झाड़ियाँ थीं, जिनमें से एक के नीचे मुझे स्वर्गीय पूर्व किरायेदार का जंग लगा बाइसाइकिल-पम्प मिला था। वह एक बहुत ही परोपकारी पादरी रहा था, अपनी वसीयत में उसने अपनी सारी दौलत संस्थाओं के नाम छोड़ी तथा अपने घर का फर्नीचर अपनी बहन को दिया था।

जब जाड़े के संक्षिप्त दिन आए, हमारे डिनर के पहले ही धुंधलका हो जाने लगता था। गली में हमारे जमा होने के समय तक घरों का रंग उदास हो जाया करता। हमारे ऊपर की जगह को घेरते आकाश की छटा पल पल परिवर्तित होते बैजनी रंग की होती और गलियों की बत्तियां अपनी कमजोर लालटेनों को थामे उसकी दिशा में सिर उठाए रहतीं। ठंडी हवा हमें डंक मारती मगर हम तब तक खेलते रहते जब तक हमारे शरीर दमकने न लगें। हमारी चीख-पुकार खामोश गली में गूजती रहती। खेल-खिलवाड़ के दरमियान हम घरों के पिछवाड़ों के अंधे, कीचड़ सने गलियारों से गुजरते जहां झोपड़पट्टियों के रूखे, अशिष्ट निवासियों से हमारी मुठभेड़ हो जाती। वहां से हम अंधेरे, पानी चूते बगीचों के पिछले दरवाजों से होकर गुजरते, जहां से कूड़े कर्कट की गंध आती रहती। यहां से हम स्याह बदबूदार अस्तबलों की ओर जाते जहां कोई कोचवान घोड़े को खरारा कर रहा होता या बंधी हुई रकाबी को झाड़ कर उसमें संगीत पैदा कर रहा होता। जब हम वापस गली में लौटते तो सारी जगहें रसोई घरों की खिड़कियों से आती रोशनी से भरी हुई मिलतीं। इसी बीच यदि चाचा गली के कोने से मुड़कर आते दिखते, तो हम किसी दीवाल की परछाई में छुप कर उनके सलामत घर पहुंचने का इंतजार करते और अगर मैगन की बहन उसे चाय के लिये बुलाने सीढ़ियों से उतरती दिखती, तो हम अपने छुपने की जगह से उसे सड़क के इस छोर से उस छोर तक चहलकदमी करते ताका करते। हम यह देखने का इंतजार करते कि वह रुकती है या नहीं या वापस अंदर चली जाती है। यदि वह रुकी रहती तो हम अपनी आड़ से बाहर निकल आते और निरुपाय भाव से मैगन के घर की सीढ़ियों तक जाते। वह जहां हमारे इंतजार में खड़ी मिलती, खुले दरवाजे की रोशनी उसके शरीर की रेखाओं को व्याख्यायित करती रहती। उसका भाई बात मानने के पहले हमेशा उसे छेड़कर, शरारत कर सताता, और मैं रेलिंग से टिका टिका उसे ताकता रहता।उसके शरीर की हरकतों से उसके कपड़े लहराते और उसके बालों की नर्म चोटी अगल-बगल डोलती जाती।

प्रत्येक सुबह मैं घर के सामने वाले पार्लर में फर्श पर लेटा लेटा उसके दरवाजे की ओर एकटक ताकता रहता था। पर्दा बिल्कुल इंच भर जगह छोड़कर नीचे तक खिंचा हुआ होता ताकि वह मुझे देख न सके। जब वह निकल कर दरवाजे की चौखट पर आती तो मेरा कलेजा जोर से धड़कने लगता। मैं दौड़कर भीतर हाल में जाता, अपनी किताबें उठाता और उसका पीछा करता। मैं उसकी भूरी काया को हमेशा नजर में रखे रहता, और जब हम उस बिंदु पर पहुंचते जहां से हमारे रास्ते जुदा होते थे, तो मैं अपने कदमों की गति को तेज कर देता और उसके बगल से गुजर जाता। यह सुबह दर सुबह हुआ करता। एकाध आकस्मिक शब्दों के अलावा मैंने उससे कभी बात नहीं की थी, तो पर भी उसका नाममात्र मानो मेरे तमाम बेवकूफ खून के लिए एक आमंत्रण के समान था।

यहां तक कि उसकी छवि सर्वथा शत्रुतापूर्ण जगहों में भी सदा मेरे संग रहने लगी। शनिवार की शामों को जब मेरी चाची खरीदारी के लिये जाती, तो उसके पार्सल मुझे ढोने पड़ते। हम धधकती हुई गलियों में नशेड़ियों और मोलभाव के लिये झपटती औरतों की धक्का-मुक्की के बीच चलते चले जाते, मजदूरों-कुलियों के गाली-गलौज के बीच, पोर्क बेचते दुकानदार-छोकरों की कर्कश पुकारों के बीच, गली-मोहल्लों में घूम घूमकर गाने वाले बंजारों की नकसुरी ध्वनियों के बीच जो आयरलैंड के नायक ओ. डोनोवान रोस्सा के अमर गीत ‘कम-आल-यू’ गाया करते, जो हमारी मातृभूमि की आपदाओं का करुण गीत है। यह सारी ध्वनियां आपस में घुल मिलकर मेरे लिए जीवन की सघन एकीकृत अनुभूति में बदल गई थीं। मैं कल्पना करता कि मैं दुश्मनों की भीड़ में अपने दुखों का जाम सुरक्षित थामे चला जा रहा हूं। उसका नाम उन पलों में मेरे होठों पर विचित्र प्रार्थनाओं तथा प्रशंसाओं का रूप धरकर आया करता, जिन्हें मैं स्वयं समझ नहीं पाता था। बहुधा मेरी आंखें (मुझे पता न था, क्यों?)आंसुओं से भर जातीं और समय-समय पर मेरे हृदय से एक सैलाब निकल कर पूरे सीने में भर जाता था। मैंने भविष्य के बारे में ना के बराबर सोचा था। मैं नहीं जानता था कि मैं उससे कभी बोल भी पाऊंगा या नहीं, या कि बोल पाया भी तो उसे अपनी दुविधाग्रस्त चाहत के बारे में कैसे बता पाऊंगा, लेकिन मेरा सारा जिस्म मानो एक हार्प बन गया हो, उसके शब्द और अदाएं मानो उस हार्प के तारों पर दौड़ने वाली उंगलियां हों। 

एक शाम मैं उस पिछवाड़े वाले ब्राइंगरूम में गया जिसमें उस पादरी की मौत हुई थी। यह एक अंधेरी, बरसाती शाम थी और घर में कोई आवाज नहीं थी। एक टूटे हुए पल्ले से बारिश के धरती से टकराने की आवाज आ रही थी, गीली धरती में चुभती जल की महीन सूइयों की क्रीडा की ध्वनि। नीचे दूर कहीं कोई लैंप या प्रकाशित रोशनदान चमक उठा। मुझे राहत महसूस हुई कि मैं इतना कम देख पा रहा हूं । मेरी सारी इंद्रियां मानो सिकुड़ सिमट कर स्वयं को छुपा लेना चाहती हों, और यह महसूस कर कि मैं उनकी पकड़ से फिसल भागने वाला था, मैने अपनी हथेलियों को आपस में कस कर तब तक दबाए रखा जब अब तक वे थरथरा न उठीं, और बुदबुदाया: ओ प्यार! ओ प्यार कई बार।

आरिखरकार उसने मुझसे बात की। जब उसने वे पहले शब्द बोले तो मैं इस कदर सकपका गया कि कुछ सूझ नहीं पाया क्या जवाब देना है। उसने पूछा कि क्या मैं ‘ऐरेबी’ जाने याला था? मुझे याद नहीं कि मैने हां कहा या ना। उसने कहा कि वह एक लाजवाब बाजार होगा और यह कि वह वहां जरूर जाना चाहेगी।

-तो फिर आप चली क्यों नहीं जातीं?

मैंने पूछा।

वह एक चांदी के ब्रेसलेट को अपनी कलाई में गोल-गोल घुमाती जा रही थी और बोलती जा रही थी। वह नहीं जा सकती थी, उसने कहा क्योंकि उस सप्ताह उसके कान्वेंट में रिट्रीट था। उसका भाई और दो लड़के टोपियां उछालने वाला खेल खेल रहे थे और मैं रेलिंग पर अकेले था। उसने रेलिंग की एक छड़ पकड़ रखी थी और अपना सिर मेरी तरफ किये हुए थी। हमारे दरवाजे की उल्टी तरफ से आती रोशनी की एक किरण ने उसके श्वेत गोलार्ध को छण भर के लिये पकड़ा, फिर यहां विश्रांति में स्थिर उसकी लटों को जगमगा दिया, और, नीचे गिरते गिरते रेलिंग पर धरे उसके हाथ को चकाचौंध से भर दिया। एक दूसरी किरण उसकी पोशाक के एक किनारे को छूती हुई गई और उसकी पेटीकोट के उजले बार्डर को, जो कि उसकी उस आरामदायक मुद्रा में बस जरा सा दिख रहा था, धीरे से पकड़ा।

— तुम्हारे लिये तो अच्छा मौका है, वह बोली। 

— अगर मैं गया, मैंने कहा, तो आपके लिये जरूर कुछ लाऊँगा। 

कैसी अनंत गलतियों ने उस शाम को बाद मेरे जागते और सोते ख्यालों का सत्यानाश कर के रख दिया था! मैं अंतराल के उन धीमे कष्टप्रद व्यतीत होते दिनों को नेस्तनाबूद कर देना चाहता था। स्कूल के कार्य से मुझे झुंझलाहट होने लगी थी। उसकी छवि रात को मेरे बेडरूम में और दिन को क्लासरूम में मेरे और मेरे द्वारा पढ़े जाने वाले पन्नों के बीच उपस्थित हो जाती थी। ‘ऐरेबी’ शब्द अपनी अनेक ध्वनियों के साथ मेरे समीप उस मौन में उपस्थित हो जाता था जिसमें मेरी आत्मा अब निवास करती थी और मेरे ऊपर मानो एक पूर्ण सम्मोह का ताना बाना बुन देता था। शनिवार रात को मैंने बाजार जाने की अनुमति मांगी। मेरी चाची तो चकित ही रह गई और उन्होंने कटाक्ष भी किया कि यह कोई और ही मामला तो नहीं। क्लास में भी अब मैं बहुत कम प्रश्नों का उत्तर दे पा रहा था। मैंने पाया कि मेरे शिक्षक का प्रसन्नवदन चेहरा कठोरता की और प्रस्थान करने लगा था। वे कहते कि आशा है मैं अपना समय व्यर्थ कार्यों में बर्बाद नहीं करने लगा था। मगर मैं अपने भटकते विचारों को एकत्र ही नहीं कर पाता था। ऐसा विचार जो मेरे और मेरी चाहत के बीच दीवार बनकर खड़े हो गए थे मुझे बचकाने लगते, भद्दे ऊबाऊ बच्चों के खेल।

शनिवार सुबह मैंने चाचा को याद दिलाया कि मुझे बाजार जाना था। वे हाॅलस्टैण्ड में उलझे हुए थे, शायद अपना हैट-ब्रश तलाश कर रहे थे। उन्होंने तुर्श लहजे में कहा:

— हां छोकरे, पता है। 

वे चूंकि हॉल में थे, मैं पार्लर में जाकर खिड़की के आगे लेट नहीं सकता था। मैंने बेहद बिगड़े हुए मूड में घर छोड़ा और धीमे चलता हुआ स्कूल की तरफ बढ़ना शुरु किया। हवा में एक निर्मम खिच्चापन था और अभी से मेरा दिल मेरी चुगली कर रहा था।

जब मैं डिनर को लौटा तो पता चला कि चाचा अभी तक नहीं आए थे। मगर अभी वक्त था। कुछ वक्त तो मैने दीवार घड़ी को घूरने में जाया किया, मगर जब उसकी टिकटिक असह्य लगने लगी तो मैने कमरे को छोड़ दिया और सीढ़ियों से होकर मकान के ऊपर वाले हिस्से में जा पहुंचा। उन ऊंचे, ठंडे, खाली, गमआलूदा, कमरों ने मानो मुझे मुक्ति प्रदान की और मैं एक कमरे से दूसरे कमरे में गुनगुनाते हुए आवाजाही करने लगा। सामने की सीढ़ी से मैंने नीचे गली में खेलते अपने साथियों को देखा। उनकी चीख पुकार मुझ तक काफी मद्धिम होकर पहुँच रही थी। ठंडे शीशे के ऊपर अपने कपाल को सटाकर मैंने उस अंधरे मकान को देखा जहां वह रहती थी। मैं कोई घंटे भर वहां खड़ा रहा हूँगा, कुछ और नहीं, अपनी ही कल्पना की रची, भूरे पोशाक वाली उस आकृति को देखता हुआ, गर्दन पर, और रेलिंग पर धरे अपने हाथों तथा पोशाक की निचली किनारी पर लैंप के प्रकाश की शालीन कौंध लिये।

जब मैं फिर नीचे आया तो अंगीठी के पास मिसेज मरसर को बैठे पाया। वे एक वृद्ध, बातूनी महिला थीं। एक दलाल की विधवा जो किसी धार्मिक चैरिटी के लिए टिकट खरीदती-बेचती रहती थी। मुझे देर तक चाय टेबल की बकवास को झेलना पड़ा। भोजन लगभग एक घंटे से ऊपर खिंच गया मगर चाचा अब भी नहीं लौटे। अंततः मिसेज मरसर जाने के लिये उठ खड़ी हुईं, यह अफसोस करते हुए कि वह और अधिक नहीं रुक सकती थीं, क्योंकि आठ से ऊपर बज चुके थे और रात की हवा उनकी सेहत के लिये हानिकारक होने के चलते देर तक उनका बाहर रुकना मुमकिन नहीं था। उनके जाते ही मैंने मुट्ठियाँ भींच कर कमरे में टहलना शुरु कर दिया। मेरी चाची बोली:

— मुझे डर है तुम्हें अपना बाजार अगले ईस्टर शनिवार तक के लिये स्थगित करना पड़ेगा। करीब नौ बजे हॉल के दरवाजे से चाचा की सिटकिनी की चाभी की आवाज आई। वे अपने आप से बातें कर रहे थे, फिर हॉल स्टैण्ड के खड़खड़ाने की आवाज आई, जो शायद उनके ओवरकोट के बोझ तले डगमगा गया था। इन संकेतों की व्याख्या मैं अच्छी तरह कर सकता था। चाचा लगभग आधा भोजन कर चुके, तब जाकर मैंने उनसे बाजार जाने के लिये पैसे मांगे। वो पूरी तरह भूल चुके थे।

— लोग तो बिस्तर पर जाकर आधी नींद भी पूरी कर चुके, वे बोले। 

मैं बिल्कुल नहीं मुस्कुराया। मेरी चाची

उनसे उत्साहपूर्वक बोलीं

— क्या पैसे देकर उसे जाने नहीं दे सकते हो? तुमने वैसे भी उसे काफी लम्बा इंतजार करवाया है।

मेरे चाचा ने कहा कि उन्हें अफसोस था कि वे भूल गए थे। उन्होंने कहा कि वे उस मुहावरे में विश्वास रखते थे कि– सैर कर दुनिया की गाफ़िल, जिंदगानी फिर कहाँ, जिंदगानी गर रही तो नौजवानी फिर कहाँ– उन्होंने पूछा कि मैं कहां जाने वाला था। जब मैंने दुहरा-दुहरा कर उन्हें बताया तो पूछने लगे कि मुझे ‘घोड़े की विदाई’ वाली कविता याद है या नहीं। जब मैं किचन से निकल रहा था तो चाचा उस कविता की शुरुआती पंक्तियां चाची को सुना रहे थे।

मउट्ठी में उस फ्लोरिन को कसे कसे मैं बंकिंघम स्ट्रीट पर स्टेशन की ओर भागता गया। खरीदारों से भरी गैस लालटेनों के प्रकाशों से चकाचौंध सड़कों से गुजरते हुए मुझे अपनी यात्रा का उद्देश्य और भी शिद्दत के साथ याद आया। मैं एक वीरान ट्रेन के तृतीय श्रेणी डिब्बे में जाकर बैठ गया। एक असह्य विलम्ब के बाद ट्रेन धीरे-धीरे सरकती हुई स्टेशन के बाहर चल पड़ी। अब वह खंडहरनुमा घरों के बगल से और टिमटिमाती हुई नदी के ऊपर से रेंग रही थी। ‘वेस्टलैण्ड रो’ स्टेशन पर लोगों का एक हुजूम डिब्बों के दरवाजों की तरफ लपका, मगर पोर्टर ने उन्हें यह कहकर वापस ढकेल दिया कि वह बाजार के लिये चालू की गई विशेष ट्रेन थी। मैं अपने खाली डिब्बे में अकेला बैठा रहा। कुछ ही मिनटों में ट्रेन एक जैसे तैसे खड़ा किये गए लकड़ी के प्लेटफार्म पर रुक गई। प्लेटफार्म से गुजरकर मैं रोड पर चला आया और सामने लटकी एक दीवाल घड़ी के चमकीले डायल पर समय देखा– दस बजने में दस मिनट शेष थे। मेरे ठीक सामने एक विराट इमारत थी जिसके ऊपर बाजार का जादूई नाम बड़े-बड़े जगमगाते अक्षरों में प्रदर्शित था।

मुझे वहां छः शीलिंग वाला कोई प्रवेशमार्ग कहीं नहीं दिखा, और इस भय से कि कहीं बाजार बंद न हो जाय, एक धुमावदार सीढ़ी से गुजरते हुए और वहीं खड़े दरबान के हाथ में एक शीलिंग धरते हुए मैं तेजी से अंदर जा घुसा। अब मैं एक बड़े से कक्ष में था जो आधी ऊँचाई तक एक गैलरी से भरा था। लगभग सभी स्टालें बंद हो चुकी थीं और हॉल का एक बड़ा हिस्सा अधेरे में डूबा हुआ था। यहाँ एक ऐसी चुप्पी छाई हुई थी जो अमूमन चर्च सर्विस के बाद चर्च की हवा में व्याप्त रहती है। कुछ थोड़े से व्यक्ति उन स्टालों के इर्द-गिर्द खड़े थे जो अब तक खुली हुई थीं। मैं सहम कर बाजार के ऐन बीच में चला आया। एक परदे के सामने, जिस पर रंगीन बत्तियों से ‘शानदार कैफे’ लिखा हुआ था, दो लोग एक ट्रे में जमा रकम को गिन रहे थे। मैंने कुछ देर तक गिरते हुए सिक्कों की खनक सुनी।

काफी देर बाद फिर से याद करते हुए कि मैं क्यों आया था, मैं उन खुले स्टालों में से एक पर गया और वहाँ रखी पोरसिलिन के कलशों और फूलदार टी-सेटों को उलट-पुलट कर देखने लगा। स्टॉल के गेट पर एक युवा स्त्री दो पुरुषों से बात करती हुई हंस रही थी। मैंने उनकी बातचीत के अंग्रेजीदां लहजे को पकड़ा और अस्पष्ट भाव से उनकी गुफ्तगू सुनने लगा।

— ओह मैं ऐसा कुछ नहीं बोली थी।

— ओ, लेकिन तुम बोली थी। 

— कहा ना, नहीं बोली थी। 

— क्यों…वो नहीं बोल रही थी? 

— हां, हां, मैने भी सुना था।

— ओ… वो सब तो बस बकवास था। 

मुझे खड़ा देखकर लड़की मेरी तरफ आई और पूछने लगी की क्या मैं कुछ खरीदना चाहता था। उसके पूछने का तरीका बहुत उत्साहजनक नहीं था, ऐसा लगता था कि वह सिर्फ फर्ज निभाने के लिए पूछ बैठी थी। मैंने सहम कर उन बड़े-बड़े कलशों को देखा जो पूर्वी दरबानों की तरह स्टॉल के अंधेरे प्रवेशद्वार पर आजू-बाजू खड़े थे, और बुदबुदाया,

–नहीं धन्यवाद। 

युवती ने कलशों में से एक को इधर-उधर सरकाया और उन दो युवकों के पास लौट गई। वे फिर उसी तरह चालू हो गए। दो एक बार युवती ने कंधे के ऊपर तिरछे गर्दन घुमा कर मेरी ओर ताका भी।

मैं उस स्टॉल के आगे कुछ देर निरुद्देश्य टंगा रहा, यह जानते हुए भी कि मेरा रुकना बेमानी था, फिर भी महज उसको दिखाने के लिए बर्तनों के प्रति अपनी रुचि को वास्तविक दर्शाने की कोशिश करता हुआ। फिर धीरे से वापस मुड़कर बाजार के बीचोबीच चल पड़ा। अपनी जेब में पड़े सिक्कों को मैंने आपस में टकरा कर खनकने दिया। गैलरी की एक छोर से पुकार आई कि लाईट ऑफ हो गई है। हॉल का ऊपरी हिस्सा पूरी तरह घुप्प अंधेरे में डूब चुका था। 

ऊपर गर्दन उठा कर उस अंधेरे में ताकते हुए मैंने अपने आप को एक मिथ्या अभिमान से संचालित और उपहासित तुच्छ प्राणी के रूप में देखा: और मेरी आँखें यातना और क्रोध से जलने लगीं।

आनंद बहादुर वरिष्ठ , कवि कथाकार हैं । पिछले चार दशक से उनकी कहानियां,कविताएं, गज़ल, अनुवाद और लेख देश की प्रमुख हिन्दी पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होते रहे हैं । हाल ही में उनका कहानी संग्रह ‘ढेला और अन्य कहानियां’प्रकाशित हुआ है। साहित्य के साथ उनकी रुचि संगीत में भी है। वर्तमान में केटीयू पत्रकारिता विश्वविद्यालय में कुलसचिव हैं। संपर्क- 8103372201

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