खनकती संजीदा आवाज़ के धनी मशहूर रंग निर्देशक , आकाशवाणी के प्रसिद्ध उदघोषक मिर्ज़ा मसूद नहीं रहे। वो पुरअसर आवाज़ खामोश हो गई। रेडियो और रंगमंच दोनों माध्यमों में वे हमेशा आवाज़, शब्द और उच्चारण की स्पष्टाता पर बहुत ध्यान दिया करते थे। मिर्ज़ा साहब पांच से भी ज्यादा दशक तक रायपुर के कला, संस्कृति , रंगकर्म के फलक पर एक सितारे की तरह जगमगाते रहे और उन्होंने आहिस्ता आहिस्ता पूरा कहकशॉं बना लिया था। जाने कितनो को रंगकर्म की दीक्षा दी,कितनो को रंगमंच की तमीज सिखाई।
दशकों से एक आवाज़ रायपुर बल्कि छत्तीसगढ़ की आवाज़ के रूप में पूरे देश में जानी पहचानी जाती रही। आज वो खामोश हो गई। खनकती संजीदा आवाज़ के धनी मशहूर रंग निर्देशक , आकाशवाणी के प्रसिद्ध उदघोषक मिर्ज़ा मसूद नहीं रहे। मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में उन्होंने अंतिम सांस ली। मिर्ज़ा मसूद रायपुर और पूरे छत्तीसगढ़ की आवाज़ और रंगमंच की दुनिया का एक ऐसा नाम जो पूरे देश में जाना पहचाना जाता रहा है।
उनके निधन की खबर से कला एवं साहित्य जगत में शोक की लहर दौड़ गई।
मिर्ज़ा साहब पांच से भी ज्यादा दशक तक रायपुर के कला संस्कृति के फलक में एक सितारे की तरह जगमगाते रहे और उन्होंने आहिस्ता आहिस्ता पूरा कहकशॉं बना लिया था। जाने कितनो को रंगकर्म की दीक्षा दी,कितनो को रंगमंच की तमीज सिखाई।
वो दौर रेडिओ ट्रांजिस्टर की दीवानगी का दौर था। हर तरफ रेडिओ के कलाकार, उदघोषक एक घरेलू सदस्य की तरह जाने पहचाने जाते थे। ऐसे समय मिर्ज़ा साहब ने आकाशवाणी रायपुर में अनाउंसर के रूप में प्रवेश किया और अपनी खनकदार पुरअसर आवाज़ के दम पर श्रोताओं के दिल मे बहुत जल्दी अपना स्थान बना लिया। रेडियो और रंगमंच दोनों माध्यमों में वे हमेशा आवाज़, शब्द और उच्चारण की स्पष्टाता पर बहुत ध्यान दिया करते थे। रेडियो रुपक और नाटकों में शब्दों के सही और भावपूर्ण उच्चारण के प्रति वे हमेशा सजग भी रहा करते थे।रेडिओ रुपक, रेडिओ ड्रामा में उनकी खनकदार संजीदा आवाज़ जान डाल देती थी।
रेडिओ की लोकप्रियता और व्यापक पहुंच के चलते तब आकाशवाणी में बहुत लोगों का आना जाना लगा रहता ,इनमें साहित्य,कला संस्कृति से जुड़े लोग भी हुआ करते थे जिनका भी आकाशवाणी में लगातार आना जाना हुआ करता था। पढ़ने लिखने का शौक तो मिर्ज़ा साहब की पहले से था ही, अदीबों की संगत और याराने ने मिर्ज़ा साहब का रुझान कला संस्कृति की ओर बढ़ा दिया। बहुत कम लोग जानते हैं कि मिर्ज़ा साहब की उर्दू साहित्य और विशेष रूप से गज़लों पर काफी पकड़ थी। कई मौकों पर वो बहस को किसी बेहतरीन मौजूं शेर कहकर सामने वाले को लाजवाब कर दिया करते थे।
वो दौर रायपुर के रंग जगत के स्वर्णिम दौर का आगाज़ कहा जा सकता है। ये वो दौर था जब रंग पुरोधा हबीब तनवीर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रायपुर और छत्तीसगढ़ का नाम रोशन कर रहे थे। इसी समय हबीब साहब ने रायपुर में रंग शिविर लगाया जिसने बड़ी तादात में युवाओं को रंगकर्म की ओर आकर्षित करने के साथ ही पूरे शहर में एक नाटकों के प्रति आम जन की रुचि बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। मिर्ज़ा साहब भी तब रंग कर्म में काफी सक्रिय होकर काम कर रहे थे और कुछ एक नाटक भी प्रदर्शित कर चुके थे। हबीब साहब के रंग शिविर ने रायपुर में एक सांस्कृतिक नवजागरण का माहौल बनाया जिसने रंग कर्मियों में नया जोश भर दिया था। मिर्जा साहब को भी इस रंग संस्कार का फायदा मिला। बहुत से युवा कुछ साल रायपुर में काम करने के बाद भोपाल, दिल्ली और मुम्बई को चलो गए मगर मिर्जा साहब यहीं रायपुर में रहकर अनवरत रंगकर्म करते रहे।
एक बार बातचीत के दौरान उन्होंने यूँ ही ज़िक्र किया था कि उनका जन्म छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी कहे जाने बाले राजनांदगाव में हुआ था। राजनांदगाँव कला साहित्य के क्षेत्र में कई नामचीन हस्तियाँ की जन्म या कर्म भूमि रहा है। बचपन में ही पिता का साया सर से उठ गया फिर पार्टिशन के दौरान वे अपनी मां के साथ रायपुर आ गये फिर यहीं के होके रह गये। उनके वालिद हॉकी के खिलाड़ी थे और राजनांदगांव में उनके घर पर उनके वालिद की हॉकी टंगी रहती थी। हालांकि खुद मिर्जा साहब कभी हॉकी में स्कूल मोहल्ले में खेलने से इतर बहुत खास कर नहीं पाए मगर अपनी हसरत हॉकी की कॉमेंन्ट्री से पूरी की। गौरतलब है कि मिर्ज़ा साहब ने अंतरराष्ट्रीय खेल कमेंटेटरके रूप में भी अहम मुकाम हासिल किया था। पकिस्तान में हुई विश्व कप हॉकी चैम्पियनशिप के अलावा, सिओल ओलम्पिक और एशियन गेम्स सहित अनेक अंतर राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में कमेंट्री की।
रंगमंच मिर्ज़ा मसूद की रगों में समाया हुआ था। मिर्ज़ा मसूद पहले अवंतिका के बैनर तले रंगकर्म किया करते थे उसके पश्चात वे इप्टा से जुड़े । इप्टा से मगर वे बहुत लम्बे अरसे तक जुड़कर नहीं रह सके। वैचारिक और सांगठनिक प्रतिबद्धता के अनुशासन से बंधकर काम करने से जल्द एक जकड़न सी महसूस करने लगे थे। वे इसके कभी आदी भी नहीं रहे, हालाँकि अपने नाटको के चयन में वे हमेशा जनसरोकार से संबद्ध और प्रगतिशील स्क्रिप्टों को प्राथमिकता देते रहे। उसके बाद वे कोसल नाट्य अकादमी के बैनर तले काम करने लगे।
उन्होने अपने रंग जीवन में कबिरा खड़ा बाज़ार में ,जहाज़ फूट गया है , जंगीराम की हवेली , जुलूस , बकरी ,लोककथा 78 , जिन लाहौर नई वेख्या , जांच पड़ताल , गोदान , कालिगुला , कैम्प ,पोस्टर , सूपना का सपना , आषाढ़ का एक दिन , जायज हत्यारे , एक्सिडेंटल डेथ , चंद्रमा सिंह उर्फ़ चमकू , कोर्ट मार्शल , हमारे हिस्से का ख़्वाब , सैंया भये कोतवाल , हवालात , मिट्टी भर टोकनी ,अंधी आंखों का आकाश , इडिपस , एंटिंगोनी , अंधायुग , खजुराहो का शिल्पी आदि अनेक नाटकों का निर्देशन किया। मि्र्जा साहब ने हर बार हर प्रस्तुति के साथ रंगकर्म को समृद्ध किया , कहा जा सकता है कि तीन पीढ़ियों ने उनसे रंग संस्कार हासिल किये ।
मिर्ज़ा मसूद के निर्देशन में खेला गया हर नाटक के तेवर और लहजा अलग हुआ करता था। मिर्ज़ा साहब पारम्परिक शैली पसंद किया करते थे वे बहुत ज्यादा प्रयोगधर्मी नहीं थे मगर हमेशा कुछ अलग सी प्रस्तुति से होने दर्शकों को चौंका दिया करते थे। रंगमंच को लेकर मिर्जा साहब का जूनून, उनकी लगन, रचनात्मक सोच और सक्रियता ताउम्र क़ायम रही। मिर्ज़ा मसूद ने रायपुर के रंगमंच के लिए जो किया है उसके लिए रायपुर का रंगमंच उन्हें हमेशा याद रखेगा |
कला और रंगमंच के क्षेत्र में छत्तीसगढ़ को अलग पहचान दिलाने में उनकी अहम भूमिका थी। रंगकर्म के लिए उनके योगदान को देखते हुए राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) , दिल्ली द्वारा उन्हे विशेष सम्मान प्रदान किया गया था। इसके साथ ही मिर्जा साहब को छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से चक्रधर सम्मान और चिन्हारी सम्मान से नवाज़ा गया था। इसके अलावा अनेक पुरस्कार और सम्मान से लगातार नवाजे जाते रहे। उनके नाटक भारत रंग महोत्सव एवं अन्य राष्ट्रीय मंचों पर भी मंचित हुए।
वे रंगकर्म में अपने सलीकेदार् काम के लिए जाने जाते रहे| कुछ अरसा पहले वो रायपुर से इंदौर शिफ्ट हो गये थे। तमाम उम्र अपने प्यारे शहर रायपुर को नहीं छोड़ा, उरूज़ के दौर में भी, बड़े और लुभावने जाने कितने ऑफर मिर्ज़ा साहब ने ये कहकर ठुकराए कि मैं रायपुर और छत्तीसगढ़ में ही रहकर काम करूँगा। मगर आखिरी समय कमजोर सेहत, और गिरती तबियत की लाचारी के चलते बहुत दुखी मन से वे इंदौर गये। शायद यह उन्हे बर्दाश्त न हो पा रहा था ,अपने शहर की याद में वे भीतर ही भीतर घुट रहे थे। वो मजबूरियों के चलते अपना शरीर् ही इंदौर ले गये थे मगर उनकी खनकती आवाज़ ही पहचान है जो यहां उनके महबूब शहर रायपुर की फ़िज़ाओं में हमेशा गूंजती रहेगी और सदा उनके मुरीदों के दिल में बसी रहेगी ।