अनुराग भारद्वाज
बीसवीं सदी में शायरी के दो ख़ास मुक़ाम आये. एक तरक्की पसंद और दूसरा जदीद. पहली तरह की शायरी वह थी जो सर्वहारा की जुबां है. दूसरी, वह जो इंसानी जड़ों को तलाशती है, आसमान से लेकर ज़मीन तक वे तमाम सवालात करती है जिन्होंने आम इंसान को परेशान कर रखा है. वह जो इंसान के वजूद पर सवाल खड़े करती है. कुंवर अख़लाक़ मोहम्मद ख़ान उर्फ़ शहरयार शायरी की इन दोनों दुनियाओं के नुमाइंदे हैं और शायद अकेले नुमाइंदे हैं.
पहले बात उनके फ़िल्मी सफ़र की कर लेते हैं जो छोटा ही सही पर बेहद मुकम्मल है. याद कीजिये ‘उमराव जान’ फिल्म को. वह नहीं जिसमें जेपी दत्ता ने ऐश्वर्या राय को लेकर फूहड़ता रची थी. यहां बात 1981 में मुज़फ्फ़र अली द्वारा निर्देशित ‘उमराव जान’ की बात हो रही है. वह जिसमें ख़ूबसूरत रेखा, जी नहीं, बेहद ख़ूबसूरत रेखा ने तवायफ उमराव जान अदा का किरदार निभाया था. इस फिल्म की एक-एक बात कमाल की है. निर्देशन, पटकथा, रेखा की अदाकारी, खय्याम का संगीत और एक बात, इसमें शहरयार की शायरी थी.
बेहद कमाल की शायरी की है इसमें उन्होंने. मसलन, एक शेर गौर फरमाइये. ‘इक तुम ही नहीं तन्हा, उल्फ़त में मेरी रुसवा, इस शहर में तुम जैसे दीवाने हज़ारों हैं’. यह शेर एक तवायफ़ के अपने हुस्न पर खुद रश्क़ खाते हुए उसकी दिलफरेबी का एलान है. ऐसा ऐलान जो उसके बैठे हुए उसके मुश्ताक़ आशिकों की जान ले लेता है. या फिर ‘इस शम्मे-फ़रोज़ां को आंधी से डराते हो, इस शम्मे-फ़रोज़ां के परवाने हज़ारों हैं’. फ़रोजां के माने हैं पाक या पवित्र. मानो शहरयार इस शेर के ज़रिये उमराव जान की शख्सियत से रूबरू करा रहे हों कि उसकी भी अपनी हस्ती है और बाकमाल हस्ती है. यह बात इस शेर में क्या खूब निखर कर आती है. वैसे इस फिल्म की तकरीबन हर ग़ज़ल का मूड अलहदा है. एक-एक शेर इतना वजनी है, एक-एक ग़ज़ल इतनी भारी है कि बाकी शायरों से उठ भी न सके. ऐसे शायर थे शहरयार.
यह शायद खय्याम की मौसिकी और शहरयार की शायरी का ही जादू था कि इस फिल्म में आशा भोंसले की गायकी लता मंगेशकर की गायकी के नज़दीक दिखी थी. इसके पहले शहरयार और मुज़फ्फ़र अली 1978 में साथ काम चुके थे. फिल्म थी ‘गमन’. ‘सीने में जलन, आंखों में तूफ़ान सा क्यूं है. इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है.’ इस फिल्म की बेहद मकबूल ग़ज़ल है.
आइए, अब शहरयार के सफर पर नजर डालें. उनकी पैदाइश 16 जून, 1936 को शहर अलोनी, जिला बरेली में हुई थी. 1948 में उनके बड़े भाई का तबादला हुआ तो उनके साथ-साथ वे अलीगढ़ आ गए और वहां सिटी स्कूल में दाखिला ले लिया. नूरानी चेहरे और मज़बूत कद-काठी के कुंवर अख़लाक़ खान को हॉकी का जुनून था. अच्छा खेलता था, टीम का कप्तान भी था. यहां तक उसकी जिंदगी में शायरी का कोई वजूद नहीं था और न ही खानदान में कोई शायरी करता था. वालिद पुलिस महकमे में बतौर इंस्पेक्टर लगे हुए थे और अख़लाक़ खान को वही बनता हुआ देखने के ख्वाहिशमंद थे.
बकौल शहरयार कई बरस तक उन्हें इस बात का इल्म ही नहीं हुआ कि आख़िर जिंदगी में करना क्या है. खैर, जिंदगी अपनी रफ़्तार से बढ़ रही थी. ग्रेजुएट होने के बाद जब उन्होंने सायकॉलॉजी में पोस्ट ग्रेजुएशन किया तो उन्हें अहसास हुआ कि उनसे ग़लती हो गयी है. फिर उन्होंने उर्दू में एमए किया और उसके बाद फ़ैसला किया कि टीचिंग के पेशे से जुड़ना है. 1966 में शहरयार अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में लेक्चरर बन गए.
लेकिन तकदीर को कुछ और ही मंज़ूर था. अलीगढ़ में अख़लाक़ की मुलाक़ात ख़लीलुल रहमान आज़मी से हुई और उसे एक ताउम्र का दोस्त मिल गया जो उसे शायरी तक ले गया. हॉकी की तरह शायरी भी दीवानगी की मानिंद उसके ज़हन में चस्पां हो गयी और वह लिखने लग गया, पर बे-इरादा. उसकी कलम का जादू तमाम हिंदुस्तान और पाकिस्तान के रिसालों में नुमायां हो रहा था. ख़लीलुल रहमान के मशविरे पर कुंवर अख़लाक़ खान ‘शहरयार’ बन गया.
यह सब तो ठीक था, पर ज़ेहनी उथल-पुथल अब भी ख़ामोश न हो पाई थी. लिहाज़ा, वे फिर कलम उठाकर अपने ज़हन में बनने-बिगड़ने वाली शक्लों, आने-जाने वाले मज़ामी ख़यालों को हर्फ़ और लफ्ज़ बनाने लग गए. कोशिश कामयाब हुई और 1965 में ‘इस्मे-आज़म’ की शक्ल में पहला मजमुआ (संग्रह) छपा जिसे हाथों-हाथ लिया गया और आप यकीन से कह सकते हैं कि वह जदीद शायरी का पहला मजमुआ था. फ़िराक गोरखपुरी जैसे तमाम बड़े शायरों ने उन्हें ख़ूब दाद दी.
उन्हें न जाने क्यूं उन्हें ‘रात’, ‘नींद’, ‘ख्व़ाब’ और उनके पार की दुनिया लुभाती थी. यह बात उनके अशआरों में कई बार बड़ी खूबसूरती से ज़ाहिर होती है.
इस्मे आज़म की शुरुआती नज़्मों में से एक है
‘नग्मगी आरज़ू की बिखरी है
रात शरमा रही है अपने से
होंठ उम्मीद के फ़ड़कते हैं
पांव हसरत के लड़खड़ाते हैं…
दूर पलकों से आंसूओं के क़रीब
नींद दामन समेटे बैठी है
ख्व़ाब ताबीर के शिकस्ता दिल
आज फिर जोड़ने को आए हैं’
कमलेश्वर का मानना था कि शहरयार की शायरी को जदीद या तरक्की पसंद ख़ाने में बंद करना ग़लत होगा क्योंकि जदीदियत उनकी जुबां में हैं, शेर कहने के शऊर में है. तरक्की पसंद शायरी को समझने का कमलेश्वर का तरीका यह है कि मन जब घबरा जाए तो कोई बड़ा सपना देखना, या ख्वाहिश करना तरक्की पसंद है. बात सही है मसलन ये कुछ शेर गौर फरमाइए.
‘बहते दरियाओं में मुझे पानी की कमी देखना है,
उम्र भर यहीं तिश्ना-लबी देखना है
किस तरह रेंगने लगते हैं ये चलते हुए लोग
यारों कल देखोगे या आज अभी देखना है’
किसी एक ख़ाने में कैद न रह पाने की शहरयार की काबिलियत को आप ऐसे भी समझें कि उनका दौर वह दौर था जब समाजवाद धीरे-धीरे टूट रहा था और नया निज़ाम शक्ल ले रहा था. लिहाज़ा, वे तरक्की पसंद शायरों की तरह लेनिन के नाम ढोल पीटते नज़र नहीं आते और नयी दुनिया के बनने की बात से इत्तेफ़ाक रखते हैं. पर दुनिया के बेढंगे होने पर, उसमें होने वालों जुल्मों पर ज़रूर वे टूटकर लिखते हैं. उनके चाहने वाले उन्हें एक हस्सास (संवेदनशील) शायर मानते हैं. मसलन एक ग़ज़ल है उनकी:
‘जिंदगी जैसी तवक्को (इच्छा) थी नहीं, कुछ कम है
हर घड़ी होता है अहसास कहीं कुछ कम है
घर की तामीर (प्लान) तसव्वुर (ख़याल) ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक यह ज़मीन कुछ कम है
बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफी है, यकीन कुछ कम है
अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ ज़्यादा है, कहीं कुछ कम है
मशहूर लेखक और उर्दू के मज़बूत हस्ताक्षर गोपीचंद नारंग कहते हैं कि शहरयार शुरुआती जदीदीयत या ‘एक्सिस्टेंशियल आन्ग्स्ट’ का बेहतरीन उदाहरण हैं. माने, वे अपने वजूद पर ही सवाल खड़ा करने वाले ज्यां पाल सात्र और सिमोन द बोउआर के विचारों से सहमत लगते हैं. पर बाद की जदीदीयत के ख़्यालों जैसे बेचारगी या शिकस्तगी से कोई इत्तेफ़ाक नहीं रखते.
क़िताबों का कारवां एक बार जो शुरू हुआ तो फिर बढ़ता ही गया. 1978 में ‘हिज्र के मौसम’ फिर अगले साल ‘सातवां दर’ और फिर 1985 में उनकी चौथी किताब ‘ख्व़ाब का दर बंद है’ आई. इस किताब ने शहरयार को वह मुक़ाम दिलाया जिसके वे सही मायनों में हक़दार थे. उन्हें 1987 में साहित्य अकादमी सम्मान दिया गया. इसी उन्वान से उनकी ग़ज़ल है
‘मेरे लिए रात ने आज फ़राहम किया एक नया मर्हला
नींदों से ख़ाली किया, अश्कों ने फिर भर दिया
कासा मिरी आंख का और कहा कान में
मैंने हर एक जुर्म से तुमको बरी कर दिया
मैंने सदा के लिए तुमको रिहा कर दिया
जाओ, जिधर चाहो तुम
जागो कि सो जाओ तुम
ख्व़ाब का दर बंद है, ख्व़ाब का दर बंद है’
रात से रार ठान के बैठे शहरयार ख्व़ाबों के रास्ते पार चले जाया करते थे. पर न जाने क्या बात हुई इससे भी उन्होंने राब्ता तोड़ लिया. शायद कुछ मुश्किलात उनकी ज़ाती जिंदगी में रही. उनका निकाह टूट गया था.
कुल मिलाकर बात यह है कि शहरयार ऐसे शायर हैं जो दिल का बयान करने से नहीं चूकते, जो मुश्किल सवालों के हल भी तलाशते हैं. शायद यही कारण है कि आज भी वे हिंदुस्तान और उस पार भी पढ़े जा रहे हैं.
बहुत मुमकिन था कि उमराव जान और गमन की शोहरत के बाद वे मुंबई का रुख कर लेते. पर उन्होंने ऐसा न किया. उन्हें फ़िल्मी दुनिया के रंग-ढंग पसंद नहीं आये. वे मानते थे कि अगर वहां काम करना है, तो ज़मीर ताक पर रखना होगा. उन्हें वहां कोई ज़हीन इंसान नज़र नहीं आता था. ऐसा शायद हो भी क्योंकि 80 के दशक तक साहिर, कैफ़ी और सरदार जाफ़री उस दुनिया से एक तरह से रवाना कर दिए गए थे. उस माहौल में उनका गुज़र न हो पाता. एक बात यह भी है, चूंकि उन्होंने कोई समझौता नहीं किया इसलिए उनकी शायरी कहीं भी हलकी पड़ती नज़र नहीं आई. अलीगढ़ की दुनिया उन्हें रास आती थी और वे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर बनकर रिटायर हो गए.
सोज-सत्याग्रह