राजनीति का समाजशास्त्रीय अध्ययन—प्रभाकर चौबे

प्रभाकर चौबे—( 1 अक्टूबर 1935- 21 जून 2018) : आज सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार व संपादक रहे प्रभाकर चौबे की दूसरी बरसी है……वे अंतिम समय तक लगातार बौद्धिक रूप से सजग व सक्रिय रहे । मृत्यु के ठीक 3 दिन पूर्व 18 जून 2018 को उनका अंतिम नियमित आलेख प्रकाशित हुआ था। यह आलेख आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है, आज पढ़ें वही आलेख-

आज देश की जनता को अपोलिटिकल बनाया जा रहा है।  पोलिटिकल को मानवीकरण की दिशा में सोचने का अवसर यहां खतरनाक पूंजीवादी खेल है। आज पूरा देश पूंजीवाद के गिरफ्त में आ गया। आज से 50 साल पहले जिस गैरबराबरी के लिये संघर्ष किया जा रहा है वह बंद है। हमारे संघर्ष का अर्थ ही पूंजीवाद ने बदल दिये।  आज सरकार विकास के जिस रास्ते पर ले जा रही है वह अंधकार की खाई में ले जाकर पटक देगी। क्या बात है कि जब भी बात होती है क्षेत्रीय दल और राष्ट्रीय दल के बीच होती है और इनकी महत्वाकांक्षायें बढ़ भी रही हैं। वो जिस उद्देश्य के लिए खड़े किये गये वह उद्देश्य ही गायब है।

भारतीय राजनीति में चंदे को लेकर हमेशा आलोचनात्मक आवाज उठाई जाती है। आजादी के पहले महात्मा गांधी चंदे को लेकर साफ थे उनका कहना था कि जो पैसा दिया जा रहा है उसका हिसाब साफ रखा जाए। गांधी जी हस्ताक्षर करने के पांच रुपये लिया करते थे। गांधी जी ने कांग्रेस के लिए कई खाते खोल दिये थे उनमें से एक था गांधी हुण्डी आज भी बहुत लोग इसे सम्मान से रखते हैं। ऐसा माना जाता है कि 1937 में कांग्रेस में भ्रष्टाचारबढ़ रहा था। गांधी जी को जब ये बात पता चली वे बहुत दुखी हुए। खैर आज की बात करें तो मुख्य रूप से भारतीय राजनीति में चंदा कहां से आता है इस पर न्यूज चैनल में इतनी बात करवा दी कि अब ये पूछा जाता है कि राजनीतिक दल ये बताये ये चंदा कहां से लाते हैं लेकिन उनके लिए अनिवार्य नहीं है कि कहां से आता है। अगर बता दे तो हड़कम्प भी मच सकता है। राजनीतिक दल ये बता दे कि चंदा कहां से आता है तो राजनीतिक उथल-पुथल मच जायेगा। राजनीतिक दल का चंदा कहां से आता है न बताना एक राजनीतिक अनिवार्यता है। न बताना कोई पाप नहीं। इसको लेकर भी हल्ला करना एक तरह की राजनीति है। आखिर राजनितक दल क्यों बताये कि चंदा कहां से आता है अत: कुछ कारणों से गोपनीयता गलत नहीं है।

बात निकली है आर्थिक सोच की अभी कुछ हफ्ते पहले समाचार उछला था कि कांग्रेस पार्टी आर्थिक स्रोत की कमी से जूझ रही है। उसी दिन एक न्यूज चैनल के एंकर ने भाजपा के प्रवक्ता से सवाल किया कि भाजपा के पास संसाधनों की कमी नहीं है तो उसने जवाब दिया अभी जो इन्कम टैक्स रिटर्न भरा गया है उसमें सबसे ज्यादा रिटर्न हमारी पार्टी भाजपा ने भरा है। इस कथन में उस प्रवक्ता द्वारा अहंकार भी झलक रहा था। आज इसमें कोई संदेह नहीं कि आज भारत के सबसे बड़ी संसाधनों वाली पार्टी भाजपा है और हो सकता है दुनिया की सबसे पैसे वाली पार्टी हो। 

लेकिन कौन पैसे वाली पार्टी है किसके पास कितना पैसा है। सवाल यह नहीं है सवाल है कि उनका आर्थिक विकास के प्रति दृष्टिकोण क्या है। क्या देश में आर्थिक विकास में गैरबराबरी का रास्ता अख्तियार करते हैं या पूंजीवादी रास्ता? इस पूंजीवादी रास्ते में कुछ लोग ही विकास का लाभ ले पाते हैं। आज सरकार जिस रास्ते पर चल रही है वह घोर गैरबराबरी पैदा करने वाला रास्ता है। आर्थिक विकास के गैरबराबरी लाने वाले रास्ते पर सोचने वाले पोर्टिकल पार्टी कमजोर है और उनकी आवाज पहुंच नहीं पा रही।

देश के राजनीतिक कारण से एक राजनीतिक शांत भाव है तो  वैचारिक  व सैद्धान्तिक विचारों पर सोचने का अवसर मिलता है शायद इसी कारण कुछ राजनीति का समाजशास्त्रीय अंग पर सोचने का मन हो रहा है। देश में आजादी की लड़ाई के समय गांधीजी ने राजनीतिक का समाजशास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत किया था जिसमें मनुष्य को केन्द्र  में रखा था। खैर हमें यह गांधी दर्शन की चर्चा नहीं करनी है मुख्य सवाल यह उठ रहा है कि आजादी की लड़ाई के समय और काफी बाद तक राजनीतिक ”राजनीतिक समाजशास्त्रीय चितंक” थे।  मुझे याद आते हैं राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण,मधु लिमये, ईएमएस नम्बूदरीपाद, कामरेड डांगे, विनोबा भावे, रामचन्दऱ गुहा। 

क्या बात है कि आज राजनीति हो रही है लेकिन राजनीति के मनुष्य मानवीकरण पर चिंता नहीं हो रही, कहां शांत पड़े हैं विनोबा भावे का आश्रम और सदाकर आश्रम। 

आज देश की जनता को अपोलिटिकल बनाया जा रहा है।  पोलिटिकल को मानवीकरण की दिशा में सोचने का अवसर यहां खतरनाक पूंजीवादी खेल है। आज पूरा देश पूंजीवाद के गिरफ्त में आ गया। आज से 50 साल पहले जिस गैरबराबरी के लिये संघर्ष किया जा रहा है वह बंद है। हमारे संघर्ष का अर्थ ही पूंजीवाद ने बदल दिये।  आज सरकार विकास के जिस रास्ते पर ले जा रही है वह अंधकार की खाई में ले जाकर पटक देगी।

क्या बात है कि जब भी बात होती है क्षेत्रीय दल और राष्ट्रीय दल के बीच होती है और इनकी महत्वाकांक्षायें बढ़ भी रही हैं। वो जिस उद्देश्य के लिए खड़े किये गये वह उद्देश्य ही गायब है। हमारी राजनीति उठापटक की राजनीति है। हाई स्कूल में पढ़ते कि लोकतंत्र जनता के लिये, जनता के द्वारा, और जनता की सरकार होती है लेकिन इसकी एक और परिभाषा भी दी जाती  है। लोकतंत्र कुछ चतुर, चालाक, ठग, द्वारा अपने कब्जे में लिया गया शासनतंत्र है। आज जो सजोर हैं वे ही सत्ता में है। दरअसल ये ही सरकार है।

आाजादी के कई वर्ष तक लगा कि देश जो हजारों सालों अंधकार में पड़ा था। भले ही बहुत ही धीरे-धीरे रेंगता था ज्ञानलोक ने पहुंच रहा था, लेकिन अब लगता है कि इस व्यवस्था ने उसे अंधकार लोक में पटक दिया। 

(प्रभाकर चौबे का आखिरी आलेख – देशबंधु सोमवार, 18 जून 2018)

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