अगर संविधान पर ढंग से अमल होता तो सबको समान शिक्षा मिलती और गैर-बराबरी नहीं रहती, लेकिन सरकारों ने इसकी अवहेलना की, ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020’ न केवल भटकाव बल्कि छलावा भी
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए, जवाब-दर-सवाल है के इंकलाब चाहिए! शलभ श्री राम सिंह
हम भारत के लोग ने संविधान को 26 नवंबर 1949 को अंगीकार किया था। आज लगभग 70 साल के बाद देश का शासक वर्ग इन्हीं लोगों को यह पूछने को मजबूर कर रहा है कि संविधान के रहते हुए हमारा भारत कहां भटक गया और क्यों? संविधान की प्रस्तावना में जिस ‘संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणराज्य’ का सपना देखा गया था, उसकी संप्रभुता और धर्मनिरपेक्षता क्या बची है? क्या भारत का लोकतंत्र गांधी के ‘आखिरी आदमी’ का चेहरा देख पाता है या फिर कॉरपोरेट पूंजी का गुलाम बनकर उसी ‘आखिरी आदमी’ को लूट रहा है? संविधान की प्रस्तावना में हर नागरिक को-चाहे वह किसी भी वर्ग, जाति, मजहब, लिंग, भाषा और क्षेत्र का हो-सबको सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय; विचार अभिव्यक्ति, आस्था, मजहब तथा उपासना की आजादी; सामाजिक दर्जे तथा अवसर की बराबरी और बंधुता की नींव पर खड़ा हुआ समाज देने का संकल्प है। पिछले महीने जब संसद में नागरिकता संशोधन विधेयक और एनआरसी पर बहस हो रही थी, तब जनता इस प्रस्तावना में गणराज्य के इन्हीं स्तंभों को बार-बार पढ़ रही थी। आज सड़कों पर लामबंद ‘हम भारत के लोग’ पूछ रहे हैं कि जब देश भारी आर्थिक मंदी में डूब रहा हो, बेरोजगारी पिछले 45 साल में सबसे ऊंचे स्तर पर हो और आर्थिक गैर-बराबरी तेजी से बढ़ रही हो, उस समय संवैधानिक प्राथमिकता क्या होनी चाहिए? बहुजन यानी आदिवासी, दलित, मुस्लिम, ओबीसी और विमुक्त तथा घुमंतू जातियों के लोग न केवल अपने जल-जंगल-जमीन और जीविका से बेदखल किए जा रहे हैं बल्कि मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य और भोजन के मौलिक हक से भी। देश में गरीबी, भुखमरी, बाल-मृत्युदर जैसे मानव विकास के सूचकांक बद-से-बदतर होते जा रहे हैं। क्या इसके बावजूद बहुजनों को स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन और पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था तथा महाशक्ति बनने के निरर्थक ख्वाब दिखाने की इजाजत संविधान देता है? इन हालात में ‘हम भारत के लोग’ का सवाल वाजिब है कि संविधान के रहते हुए इन भीषण समस्याओं को दरकिनार करके ‘सीएए-एनपीआर-एनआरसी’ की राजनैतिक प्राथमिकता कैसे बन गई और किस मकसद से?
शिक्षा और संविधान
कुछ चुने हुए अनुच्छेद जिनका शिक्षा से सीधा रिश्ता है
खंड तीन – मौलिक अधिकार
. अनुच्छेद 14. राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी भी व्यक्ति को कानून के सामने बराबरी या कानूनों के समतामूलक संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।
. अनुच्छेद 15. – (1) राज्य, किसी भी नागरिक के खिलाफ केवल मजहब, नस्ल, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा . . . .
. अनुच्छेद 16. सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार, नियुक्तियों और शिक्षा में सामाजिक न्याय के लिए विविध प्रावधान।
. अनुच्छेद 19.-(1) सभी नागरिकों को अधिकार होगा –
(क) बोलने व अभिव्यक्ति का; . . (ग) संगठन व यूनियन बनाने
का; . . . .
. अनुच्छेद 21. किसी भी व्यक्ति को उसकी जिंदगी और व्यक्तिगत आजादी से कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया का पालन किए बगैर वंचित नहीं किया जाएगा।
. अनुच्छेद 21 (क) . . . . (86वें संविधान संशोधन अधिनियम (2002) के जरिए संविधान के खंड तीन में शामिल किए गए इस अनुच्छेद ने खंड चार में शुरू से ही मौजूद मूल अनुच्छेद 45 की जगह ले ली। इस संशोधन से शिक्षा के मौलिक हक की अवधारणा को हुए भारी नुकसान की व्याख्या आगे की गई है।)
. अनुच्छेद 24. – चौदह वर्ष से कम उम्र के किसी भी बच्चे-बच्ची को न तो किसी कारखाने या खदान में नियोजित किया जाएगा और न ही किसी अन्य खतरनाक नियोजन में लगाया जाएगा।
. अनुच्छेद 25. सभी व्यक्तियों को अंतरात्मा की आजादी का और मजहब को निर्बाध रूप से मानने, उसका आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा। . . . .
. अनुच्छेद 28. (1) राज्य-निधि से पूरी तौर पर पोषित किसी भी शैक्षिक संस्थान में कोई भी धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। . . . .
(3) राज्य से मान्यताप्राप्त या राज्य-निधि से सहायता पाने वाले शैक्षिक संस्थान में सहभागी किसी व्यक्ति को ऐसे संस्थान में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा या ऐसे संस्थान या उससे संलग्न आहाते में की जाने वाली धार्मिक उपासना में भाग लेने के लिए तब तक बाध्य नहीं किया जाएगा जब तक कि उस व्यक्ति ने, या यदि वह अवयस्क है तो उसके संरक्षक ने, इसके लिए अपनी सहमति न दे दी हो।
खंड चार – राज्य के नीति- निर्देशक तत्व
. अनुच्छेद 39. राज्य खास तौर पर अपनी नीति को यह सुनिश्चित करने के लिए दिशा देगा कि – (च)… बच्चों-बच्चियों की नाजुक उम्र का दुरुपयोग न हो… (छ) बच्चों-बच्चियों को स्वस्थ रूप से और स्वतंत्र तथा गरिमामय हालात में विकसित होने के लिए अवसर और सुविधाएं दी जाएं और बचपन तथा युवाओं को शोषण और नैतिक तथा भौतिक रूप से अवहेलना झेलने से संरक्षण मिले।
. अनुच्छेद 41. राज्य, अपनी आर्थिक हैसियत और विकास की मर्यादाओं के भीतर, काम, शिक्षा और बेरोजगारी… तथा विकलांगता और ऐसे अन्य अभावों के मामलों में सार्वजनिक मदद के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए कारगर प्रावधान बनाएगा।
. अनुच्छेद 45. राज्य, प्रयास करेगा कि, संविधान लागू होने के दस साल के भीतर, सभी बच्चों-बच्चियों को 14 साल की उम्र पूरी होने तक मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा मुहैया की जाए। (तत्कालीन केंद्र सरकार ने इस मूल अनुच्छेद को 86वें संविधान संशोधन अधिनियम (2002) के जरिए कमजोर और विकृत करके छह साल से कम उम्र की बच्चियों- बच्चों के पोषण, सेहत, सुरक्षा तथा पूर्व-प्राथमिक शिक्षा और कक्षा 1 से 8 तक की प्रारंभिक शिक्षा के मौलिक अधिकार को हमेशा के लिए छीन लिया। बेशक, यह संशोधन भारत के संवैधानिक इतिहास में वैश्विक नवउदारवादी पूंजीवाद का पहला सीधा हमला था।)
. अनुच्छेद 46. राज्य, कमजोर तबकों के लोगों और खास तौर पर अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के शैक्षिक व आर्थिक हितों को आगे बढ़ाने पर विशेष ध्यान देगा और उनको सामाजिक अन्याय और शोषण के सभी रूपों से बचाने के लिए संरक्षण देगा।
देश की शिक्षा व्यवस्था का पूरा ढांचा कई संवैधानिक सिद्धांतों और मूल्यों का उल्लंघन करके या फिर उनकी भ्रामक व्याख्या करके ही तैयार हुआ है। उदाहरण के लिए, ‘केजी से पीजी’ तक शिक्षा व्यवस्था बहु-परती है यानी गैर-बराबरी और भेदभाव की बुनयाद पर खड़ी की गई है – क्रमशः अनुच्छेद 14 व 15-1 के मौलिक हक का उल्लंघन करके। केवल मध्यम व उच्च वर्गों (आबादी का 15 फीसदी से भी कम) की जरूरतों और आकांक्षाओं के मद्देनजर शिक्षा व्यवस्था बनाई गई और उनके सरोकार ही नीति-निर्माण प्रक्रिया पर हावी रहे हैं। या यूं कहें कि समूची शिक्षा व्यवस्था 85 फीसद से ज्यादा आबादी (जो मेहनतकश अवाम है, बहुजन है) के सरोकारों और सपनों के मुताबिक कभी बनाई ही नहीं गई। इसीलिए, जो बहुजन कक्षा 1 में दाखिला लेते हैं उनमें से बमुश्किल 10 फीसदी ही बारहवीं कक्षा पार करते हैं, बाकी को उसके पहले ही शिक्षा से बेदखल कर दिया जाता है। यानी 90 फीसदी बहुजनों को आज तक उच्च शिक्षा में जाने का मौका ही नहीं मिला है और न ही सामाजिक न्याय के एजेंडे का कोई फायदा। ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020’ बेदखली की इस दर को और तेज करेगी। जब तक पूरे देश में ‘केजी से पीजी’ तक सार्वजनिक (सरकारी) वित्त से संचालित पूरी तौर पर मुफ्त ‘समान शिक्षा व्यवस्था’ स्थापित नहीं की जाएगी, जिसमें सभी तरह की गैर-बराबरियां बाहर की जाएं और विविधताओं को शामिल किया जाए, तब तक देश की सभी बच्चियां-बच्चे और युवा कभी भी शिक्षित नहीं हो पाएंगे। यही एकमात्र व्यवस्था है जो संविधान के मूल्यों के मुताबिक है और इसके अलावा देश के सामने और कोई ऐतिहासिक विकल्प नहीं है। इस कसौटी पर ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020’ न केवल भटकाव है बल्कि ‘हम भारत के लोग’ के साथ छलावा भी है।
खंड तीन और चार का रिश्ता
मौलिक अधिकारों के खंड तीन और राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के खंड चार के आपसी संबंध को लेकर लगातार भ्रम रहा है। आम धारणा यह बनाई गई कि खंड तीन का ही महत्व है, क्योंकि उसको लेकर अदालत में न्याय मांगा जा सकता है और खंड चार को मानना या न मानना सरकार की मर्जी पर है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) फैसले में स्पष्ट किया है कि, ‘मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्व हमारे संविधान की अंतरात्मा हैं…खंड चार की अवहेलना करने के मायने संविधान की अवहेलना करना है, साथ में उन उम्मीदों की जो इससे देश को हैं और उन आदर्शों की भी जिनके ऊपर संविधान खड़ा है…।’
इसी तरह 1992 (मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य) में और फिर 1993 (उन्नीकृष्णन जे.पी. बनाम आंध्र प्रदेश) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि खंड चार ‘राज्य’ के उद्देश्य बताता है और खंड तीन इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए साधन देता है। यानी खंड चार के नीति-निर्देशक तत्व साध्य हैं और खंड तीन के मौलिक अधिकार उनको हासिल करने के साधन हैं। इसी के आधार पर उन्नीकृष्णन फैसले (1993) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि खंड चार के अनुच्छेद 45 में कक्षा आठ तक दिए गए ‘मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा’ के वादे को खंड तीन के ‘जीने का अधिकार’ (अनुच्छेद 21) के साथ जोड़कर पढ़ा जाए क्योंकि अनुच्छेद 21 ‘सम्मानजनक जीवन’ का हक देता है जो ज्ञान के बगैर अधूरा है। आगे उसी फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 45 के उक्त वायदे को संविधान बनने के दस साल के भीतर पूरा करना था, जो 43 साल से नहीं हुआ है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने घोषित किया कि इस असफलता के मद्देनजर अनुच्छेद 45 की अनिवार्यता अब अभिभावकों पर लागू होने के बजाय ‘राज्य’ पर लागू होगी।
इन ऐतिहासिक फैसलों ने खंड तीन और चार में मौजूद सभी प्रावधानों के मायने ही बदल दिए। उदाहरण के लिए, खंड चार के निम्नलिखित तीन अनुच्छेदों को देखिए –
अनुच्छेद 38 (2) राज्य, खास तौर पर न केवल व्यक्तियों के बीच लेकिन विभिन्न इलाकों में रहने वाले या विभिन्न पेशों में लगे हुए जनसमूहों के बीच भी आमदनी की गैर-बराबरियों को न्यूनतम करने और सामाजिक दर्जों, सुविधाओं और अवसरों की गैर-बराबरियों को खत्म करने का प्रयास करेगा।
अनुच्छेद 39 राज्य खास तौर पर अपनी नीति को यह सुनिश्चित करने के लिए दिशा देगा कि –
(ख) भौतिक संसाधनों की मिल्कियत और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो ताकि सामूहिक हित को बेहतरीन ढंग से साधा जा सके।
(ग) आर्थिक व्यवस्था का संचालन इस प्रकार किया जाए कि सर्वसाधारण के हितों के खिलाफ संपदा और उत्पादन के साधनों का संकेंद्रीकरण न हो।
इसके मायने हैं कि संविधान के अनुसार राज्य की जवाबदेही होगी कि वह लोगों की आमदनी के बीच में फर्क को न्यूनतम करे; भौतिक संसाधनों की मिल्कियत और नियंत्रण इस प्रकार किया जाए कि उससे सामूहिक हित पुख्ता हों; और आर्थिक व्यवस्था का संचालन इस तरह किया जाए कि संपदा और उत्पादन के साधन केवल कुछ लोगों के हाथों में न सिमट जाएं। अगर खंड चार के इन तीनों प्रावधानों को खंड तीन के अनुच्छेद 21 (सम्मानजनक जीवन जीने का हक) के साथ जोड़कर देखा जाए तो देश में आर्थिक गैर-बराबरी हो ही नहीं सकती क्योंकि सारी दौलत कुछ पूंजीपतियों के हाथ में सिमट ही नहीं सकती। देश में अरबपतियों और खरबपतियों के बनने के मायने ही संविधान की इस अंतरात्मा का उल्लंघन है। अगर संविधान का पालन किया होता तो देश में न गैर-बराबरी होती, न गरीबी होती और न ही उच्च वर्गों और ऊंची जातियों के लिए संभव होता कि वे बहुजनों के द्वारा किए गए उत्पादन को लूटें और उन पर जातिगत अत्याचार करें।
लेकिन देश का शासक वर्ग संविधान की इस अंतरात्मा को मानने से हमेशा इनकार करता रहा है। शिक्षा का उदाहरण लीजिए। सुप्रीम कोर्ट के 1992 (मोहिनी जैन) और 1993 (उन्नीकृष्णन) के फैसलों के कारण कक्षा आठ तक की शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा मिल चुका था। इसको लागू करने के बजाय 2002 में 86वां संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया गया, जिसके ये दुष्परिणाम हुए –
(क) 6 वर्ष से कम उम्र के 17 करोड़ बच्चों का ‘पोषण, सेहत, सुरक्षा और पूर्व-प्राथमिक शिक्षा’ का मौलिक अधिकार छिन गया।
(ख) ‘राज्य’ को यह छूट मिल गई कि वह 6-14 आयु समूह के बच्चों को शिक्षा का अधिकार अपनी मनमर्जी से दे, क्योंकि संशोधित अधिनियम के मुताबिक नए अनुच्छेद 21(क) में यह हक ‘उस रीति से दिया जाएगा जैसा ‘राज्य’ कानून बनाकर तय करेगा।’
(ग) मूल अनुच्छेद 45 में संविधान बनने के 10 साल के भीतर ‘मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा’ देने का निर्देश था लेकिन संशोधित अधिनियम के मुताबिक ऐसी कोई समय सीमा तय नहीं की गई। इसलिए यह हक देश के लगभग आधे बच्चों को आज तक नहीं मिला है, जो मुख्यतः बहुजन हैं। इसी वजह से राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने भी इस हक को देने के लिए कोई समय सीमा घोषित नहीं की है।
(घ) अनुच्छेद 51 ए (मौलिक कर्तव्य) में एक उप-अनुच्छेद (क) जोड़ा गया जिसने 6-14 आयु समूह के बच्चों को शिक्षा मुहैया कराने की जिम्मेदारी अभिभावकों के कंधों पर डालकर ‘राज्य’ को उससे मुक्त कर दिया गया। शिक्षा के बाजारीकरण के बाद हालात ये हैं कि सरकारी स्कूल तेजी से बंद किए जा रहे हैं जिसके चलते बहुजनों को फीस देकर पढ़ने की जिम्मेदारी खुद निभानी पड़ रही है। उनकी हैसियत इतनी नहीं है तो उनके बच्चे भी शिक्षा से वंचित रह जाएंगे।
आज डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की संविधान सभा में 25 नवंबर 1949 को दी गई चेतावनी को फिर दोहराने की जरूरत है, “26 जनवरी 1950 को विरोधाभासों से भरे राष्ट्रीय जीवन की शुरुआत होने जा रही है। राजनीति में बराबरी होगी और सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में गैर-बराबरी। राजनीति में हम ‘एक व्यक्ति-एक वोट’ और ‘हर वोट बराबर’ के सिद्धांत को मान्यता देंगे। हमारे सामाजिक-आर्थिक ढांचे की वजह से हम सामाजिक और राजनैतिक जीवन में ‘हर वोट बराबर’ के सिद्धांत को नकारते रहेंगे। हम कब तक विरोधाभासों से भरे इस जीवन को जीते रहेंगे? हम कब तक हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में बराबरी को नकारते रहेंगे? अगर इस तरह हम लंबे अरसे तक बराबरी को नकारते रहे तो ऐसा हम अपने राजनैतिक लोकतंत्र को खतरे में डालकर ही करेंगे। हमें इस विरोधाभास को यथासंभव जल्द-से-जल्द खत्म करना होगा वरना जो लोग गैर-बराबरी से उत्पीड़ित होंगे, वे उस राजनैतिक लोकतंत्र को नेस्तनाबूद कर देंगे, जिसे इस संविधान सभा ने इतनी मेहनत के साथ खड़ा किया है।”
अभी भी समय है कि संविधान की अंतरात्मा को समझें वरना जैसा डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि “. . .जो लोग गैर-बराबरी से उत्पीड़ित होंगे वे उस राजनैतिक लोकतंत्र को नेस्तनाबूद कर देंगे…।” जब (2017 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में) अनुसूचित जाति प्रताड़ना-विरोधी कानून को शिथिल किया गया तो स्वतःस्फूर्त विद्रोह हुआ। बड़ी तादाद में दलित युवा सड़कों पर आ गए और कानून को शिथिल करने का फैसला वापस लेना पड़ा। इसीलिए देश के दलित नागरिक अपने सम्मान और मुक्ति की राह ढूंढ़ने हर साल 1 जनवरी को भीमा कोरेगांव में इकट्ठे होते हैं, इस विश्वास के साथ कि एक दिन जरूर आएगा जब संविधान का पालन किया जाएगा। इसी विश्वास से तमाम उच्च शिक्षा संस्थानों के विद्यार्थी भी केवल अपने हकों की ही लड़ाई नहीं लड़ रहे वरन संविधान की प्रस्तावना में जिस समतामूलक, न्यायपूर्ण, अभिव्यक्ति-आस्था की आजादी और बंधुत्व पर आधारित ‘संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणराज्य’ का सपना ‘हम भारत के लोग’ ने 26 नवंबर 1949 को देखा था, उसकी लड़ाई भी लड़ रहे हैं। छात्र-छात्राओं ने शहीद-ए-आजम भगतसिंह के ‘विद्यार्थी और राजनीति’ (1928) के आलेख को आत्मसात कर लिया है कि ‘पढ़ाई और लड़ाई साथ-साथ।’ डॉ. आंबेडकर के ‘शिक्षित बनो, संघर्ष करो, संगठित हो’ का आह्वान अब केवल दलित युवाओं की ही नहीं, वरन सभी युवाओं की पूरी पीढ़ी की चेतना बन चुका है।
(अनिल सदगोपाल अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच के अध्यक्ष मंडल के सदस्य, पूर्व डीन, शिक्षा संकाय,दिल्ली विश्वविद्यालय)
साभार- आउटलुक