महाराष्ट्र के मुंबई, ठाणे और पुणे जैसे महानगरों में सैकड़ों फैक्ट्री मालिक और ड्राइवर पिछले छह महीनों के दौरान छंटनी का शिकार हुए हैं। छोटे कारखाना मालिकों को किराया और बिजली के बिलों का भुगतान करने के लिए सिलाई मशीनें तक बेचने पड़ी हैं।
पुणे: विदेशी निर्यात से लेकर बड़े मॉल और स्थानीय दुकानों से लेकर सड़क के बाजारों तक हर जगह बिक्री के लिए तैयार माल की आपूर्ति करने वाले कपड़ा उद्योग को खोलने के लिए लॉकडाउन में ढील दी गई है। लेकिन, महाराष्ट्र के मुंबई, ठाणे और पुणे जैसे महानगरों में सैकड़ों फैक्ट्री मालिक और ड्राइवर पिछले छह महीनों के दौरान छंटनी का शिकार हुए हैं। वहीं, इस व्यवसाय से जुड़े अनेक व्यापारी भी मांग में कमी के कारण नुकसान उठा चुके हैं। इसी तरह, कई छोटे कारखाना मालिकों को किराया और बिजली के बिलों का भुगतान करने के लिए सिलाई मशीनें तक बेचने पड़ी हैं। दूसरी ओर, कई कारखानों में प्रबंधक काम करने वाले प्रवासी मजदूर और कारीगरों को वापस बुलाए जाने को लेकर उत्साहित नहीं हैं। इस बारे में कारखाना प्रबंधकों का कहना है कि उनके पास मजदूर और कारीगरों के लिए फिलहाल कोई काम नहीं है।
मुंबई और महानगरीय क्षेत्र में तीन सौ सिलाई मशीनों के साथ संचालित कारखानों की संख्या लगभग दस हजार है। राज्य में इस तरह के अठारह हजार से अधिक कारखाने हैं। हालांकि, इनमें कई छोटे और मध्यम श्रेणी के कारखाना प्रबंधक ऋण प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन, कपड़ा व्यापारियों की तरफ से अपेक्षा के अनुरूप नई मांग नहीं आ रही है। साथ ही, यह भी स्पष्ट नहीं है कि स्थिति में सुधार कब होगा।
मुंबई के अंधेरी स्थित नवभारत नगर में आकाश बुड्ढा की छोटी सी फैक्ट्री अब पूरी तरह से बंद है। लेकिन, उन्हें हर महीने पंद्रह हजार रुपये किराया और बिजली के बिल का खामियाजा उठाना पड़ रहा है। आकाश कहते हैं, “कई कारखाना प्रबंधकों ने किराया और बिजली के बिल का भुगतान, साथ ही लागत को कवर करने के लिए दूसरे कारखानों को सिलाई मशीनें बेच दी हैं। इस क्षेत्र में कई ऐसे कारखाने हैं। बड़े कारखाना वालों के लिए कपड़ा उद्योग चलाने में जबर्दस्त वित्तीय बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है। जबकि, छोटे कारखाना वालों का काम पूरी तरह से बंद हो गया है।”
मुंबई के ही जोगेश्वरी में राजेश मंसद के कपड़ा कारखाने में तीन सौ अधिक सिलाई मशीनें हैं। हालांकि, इन दिनों यहां केवल अस्सी कारीगर काम कर रहे हैं। राजेश मंसद बताते हैं कि इस कारखाने में सामान्य दिनों की अपेक्षा केवल पांच प्रतिशत मांग है। इसलिए, उन्हें अब ढाई महीने बाद आने वाली दिवाली से बड़ी उम्मीदें हैं। हालांकि, उन्हें यह डर भी है कि जब तक स्थिति नहीं बदली या व्यापारियों से मांग नहीं हुई तो यह एक ऐसा झटका होगा जिससे उभारना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
तारापुर में एक कपड़ा कारखाना मालिक अंकुर गादिया ने कहा कि फिलहाल कपड़ा बाजार में घरेलू मांग कम है। हालांकि, अफ्रीका और खाड़ी देशों से कपड़े की मांग आने के कारण तीस प्रतिशत तक कारखाने आधी-अधूरी क्षमता में चालू हुए हैं।
शाहनवाज खान कपड़े का काम करने वाले एक कारीगर हैं। वे मुंबई के अंधेरी स्थित नवभारत नगर में सपरिवार रहते हैं। वे कहते हैं, “मुझे पिछले पांच महीनों से कोई नौकरी नहीं मिल रही है। पहले मैं जिस कारखाने में काम करता था वहां कम-से-कम पचास कारीगर काम करते थे। पर, अब सब कुछ बंद हो गया है, तो उन्हें अपने लिए नौकरी ढूंढनी होगी और वे तीन सौ रुपए दिन में भी काम कर सकते हैं।” उन्होंने कहा कि वे कुछ बड़े कपड़े के शोरूमों में भी काम ढूंढ़ रहे हैं. लेकिन, फिलहाल उन्हें काम नहीं मिल रहा है।
क्लोथिंग मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुख्य मार्गदर्शक राहुल मेहता बताते हैं कि इस वर्ष लॉकडाउन से पहले कपड़ा कारोबारियों ने शादियों को ध्यान में रखते हुए कपड़ों का स्टॉक रख लिया था। जब तक पुराना माल पूरी तरह नहीं बिकता है तब तक नए माल की मांग की संभावना नहीं बनेगी। उन्हें लगता है कि बाजार की मौजूदा प्रवृत्ति को देखते हुए दिसंबर की शुरुआत में स्थिति में सुधार हो सकता है।
कपड़ा उद्योग से जुड़े कारोबारी बताते हैं कि कोरोना काल में उन्हें श्रम और पूंजी दोनों ही तरह के संकट का सामना करना पड़ रहा है। पुणे के कपड़ा कारोबारी गिरीश गाताडे का मानना है कि चार-पांच महीने के अंतर के बाद फिर से काम शुरू करने के लिए कारखाना प्रबंधकों को पूंजी की आवश्यकता है। कारण यह है कि कई जगहों पर पहले बेचे जा चुके माल का पूरी तरह से भुगतान हासिल नहीं हो सका है। लॉकडाउन के दौरान जो नकदी शेष थी उसका बड़ा हिस्सा कारखानों के रख-रखाव, श्रमिकों की मजदूरी, किराए और अन्य कार्यों पर खर्च हो चुका है।
इसी तरह, अन्य कपड़ा कारोबारी बताते हैं कि कोरोना लॉकडाउन से पहले जो आर्डर किए गए थे उनमें से कई बाद में रद्द कर दिए गए। इसी तरह, पहले के स्टॉक को निकलने की संभावनाएं भी कम हैं। कारण यह है कि सभी दुकानों से पहले की तरह कपड़ों की मांग नहीं आ रही है। कपड़ा कारोबारियों की आर्थिक स्थिति खराब होने की एक वजह कारोबार के लिए बैंक से लिए कर्ज को चुकाने में आ रही कठिनाई भी है। क्योंकि, बैंक के कर्ज पर ब्याज लग रहा है और दूसरी ओर आमदनी हो नहीं रही है।
कान्फेडरेशन ऑफ इंडियन टेक्सटाइल इंडस्ट्री के पूर्व चेयरमैन संजय जैन बताते हैं कि भारत में कपड़ा उद्योग कृषि के बाद सबसे ज्यादा श्रमिकों को रोजगार देता है। इसमें सीधे या परोक्ष रुप से दस करोड़ श्रमिक रोजगार पाते हैं। वे बताते हैं कि कपड़ा व परिधान की घरेलू मांग नहीं है और कोरोना एक वैश्विक महामारी होने के चलते विदेशी बाजार भी प्रभावित हुआ है। इससे जहां हर दिन पांच हजार करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है वहीं करोड़ों की संख्या में श्रमिकों की आजीविका पर संकट पैदा हो गया है।
इधर, यूनिफार्म बनाने के मामले देश भर में प्रसिद्ध सोलापुर का कपड़ा उद्योग भी कोरोना संक्रमण की भेंट चढ़ गया है। सोलापुर शहर में हर साल जनवरी से अगस्त तक ढाई से तीन हजार छोटे और बड़े कारखानों में तरह-तरह की यूनिफार्म तैयार की जाती हैं। लेकिन, कोरोना लॉकडाउन के कारण इस उद्योग में साढ़े तीन सौ करोड़ रुपए का कारोबार प्रभावित हुआ है और अगले वर्ष के लिए दिए जाने वाले आर्डर नहीं आने से बाजार में ठहराव की स्थिति बन गई है। इससे यूनिफार्म उत्पादकों के लिए मुश्किल हालात पैदा हो गए हैं। इससे 25 से 30 कारखाने बंद हो गए हैं। सोलापुर शहर में करीब पांच से छह हजार छोटे और बड़े उत्पादक काम कर रहे हैं। ये सभी उत्पादक अब वैकल्पिक उद्योग की तलाश में हैं। ऐसे में सोलापुर गारमेंट एसोसिएशन के सचिव राजेंद्र कोचर कहते हैं कि सरकार को ऐसी योजना लेकर आना चाहिए जो यूनिफार्म बनाने के कारोबार से जुड़े परिवारों को आर्थिक सुरक्षा दे सके।
सौज- न्यूजक्लिक