अमेरिकी विदेश नीति ने न केवल विश्व को, बल्कि अमेरिकियों को भी पहुंचाया नुकसान

कैटरीना वेंडेन ह्यूवेल

9/11 की बरसी पर हमें दशकों से असफल हो रही अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति की तरफ़ ध्यान देने की जरूरत है। अमेरिकी विदेशी नीति के सतत सैन्यीकरण ने वास्तविक सुरक्षा चिंताओं से निपटने में अमेरिका की क्षमता को नुकसान पहुंचाया है। यह वह समस्याएं हैं, जिनसे ना केवल अमेरिका, बल्कि पूरे ग्रह को ख़तरा है।

मध्यपूर्व में हमारे ख़तरनाक खेल और 2008 में वैश्विक वित्तीय ढांचे के ढहने से अमेरिका का दिवालियापन और विभाजित जनमत खुलकर सामने सामने आ गए। अब नागरिक आंदोलन घरेलू राजनीति में बदलाव लाना शुरू कर चुके हैं, लेकिन तब भी विदेश नीतियों के मामले में ऐसे आंदोलन अब भी नदारद ही हैं। अब जब हम 9/11 की 20वीं बरसी मना रहे हैं, तो मौका आ गया है कि हम इस क्षेत्र में कम बहस-विमर्श की परिपाटी को चुनौती दें।

एक बड़ी आशा थी कि डोनाल्ड ट्रंप के जाने के बाद अमेरिका एक बार फिर “अपरिहार्य देश” के तौर पर अपनी भूमिका में वापस आएगा। लेकिन हमें इस पर यकीन नहीं करना चाहिए। डोनाल्ड ट्रंप के बहुत पहले ही हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा नीतियों ने अमेरिकी लोगों को निराश कर दिया था। यह असफलता हमारी लंबी जंगों से भी साफ़ हो जाती है, जिनका कभी खात्मा ही नहीं होता। अफ़गानिस्तान में हुई भयानक शिकस्त ने इसमें और बढ़ावा ही किया है। बाइडेन ने वहां से छोड़कर बेहतर ही किया, लेकिन यह वापसी जंग के बीसवें साल में आई है।

लेकिन आंतकवाद के खिलाफ़ वैश्विक जंग अब भी जारी है। यह एक ऐसी जंग है, जिसमें जितने आंतकवादी मारे जाते हैं, उससे ज़्यादा पैदा होते हैं। बुश, ओबामा और ट्रंप प्रशासन की आधिकारिक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति (NSS) अमेरिका के पास ऐसी सेना रखने में यकीन रखती रही है, जिसे दुनिया में कहीं भी चुनौती ना दी जा सके।

अपने आखिरी NSS वक्तव्य में ट्रंप प्रशासन ने घोषणा करते हुए कहा कि आंतकवादी नहीं, बल्कि “पुनर्उत्थानवादी ताकतें (रूस और चीन) अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए असली दुश्मन हैं। अमेरिका ने परमाणु हथियारों की एक नई प्रतिस्पर्धा चालू कर दी है, वह भी खुद के साथ। विश्व स्वास्थ्य संगठन और पेरिस पर्यावरण समझौते में तुरंत शामिल होने के बाद बाइडेन को ट्रंप की “अमेरिका प्रथम” की नीति के उलट माना जा रहा था, लेकिन विशेषज्ञों को अंतरराष्ट्रीयवाद के लिए उनकी प्रतिबद्धता पर शक है।

अमेरिकी विदेश नीति का लगातार सैन्यीकरण होने से असली सुरक्षा चिंताओं का समाधान खोजने की हमारी शक्ति क्षीण हो गई है। यह ऐसी समस्याएं हैं, जो ना केवल हमारे देश, बल्कि पूरे ग्रह के लिए ख़तरा हैं। भयावह पर्यावरण बदलाव, असमता से भर चुकी वैश्विक अर्थव्यवस्था जो लोकतंत्र को भ्रष्ट बना रही है, इस तरह की समस्याएं ही असली समस्याएं हैं।

हमारा भारी-भरकम सैन्य बजट पहले ही पूरी दुनिया के कुल सैन्य बजट का 39 फ़ीसदी है, जबकि इस दौरान अहम घरेलू योजनाएं पैसे के लिए तरस रही हैं। कांग्रेस में लिबरल डेमोक्रेट्स द्वारा सैन्य बजट बढ़ाए जाने के लिए बाइडेन की सही आलोचना हुई (इस दौरान रिपब्लिकन और सेंट्रिस्ट डेमोक्रेट ने भी बाइडेन की आलोचना की, लेकिन यह आलोचना सैन्य बजट को पर्याप्त मात्रा में ना बढ़ाने के लिए हुई)। अब जरूरी है कि कुछ नए तरीके सामने आएँ।

एक वैकल्पिक सुरक्षा नीति के लिए पहले इस धारणा को छो़ड़ना जरूरी होगा कि अमेरिका के सामने अलग-थलग पड़ने या पुराने ढर्रे पर चली आ रही कुलीनों की सहमति में से किसी एक को चुनने की जरूरत है। प्रगतिशील सुधार तब शुरू होंगे, जब अवधारणा छोड़ दी जाएगी कि ताकत का इस्तेमाल करने के लिए अमेरिका को विशेष अनुमति मिली हुई है। हम सहीं हैं कि हम एक वैश्विक महाशक्ति हैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय कानून की रक्षा करना अमेरिकी हितों के पक्ष में है। हम कानून का सम्मान कर और खुद को नियमों के ऊपर ना रखकर अपनी सुरक्षा को मजबत कर सकते हैं।

एक बार अगर इन सिद्धातों का वृहद प्रतिपादन हो गया, तो हमारा नेतृत्व हमारे असफल हस्ताक्षेपों से वापस आने के लिए कदम उठा सकता है। अमेरिकी सैन्य भूमिका को कम करने के लिए कम नहीं, बल्कि ज़्यादा वैश्विक सहयोग और सबसे ज़्यादा सक्रिय कूटनीति की जरूरत होगी। अपरिहार्य ढंग से शक्ति के नए केंद्र स्थापित होंगे। इन केंद्रों का स्वागत किया जाना चाहिए, ना कि उन्हें अमेरिकी हितों के खिलाफ़ मानकर उनका सीधे विरोध करना चाहिए। बाइडेन ने अपनी विदेश नीतियों से हलचल पैदा की है, लेकिन उनके पूर्ववर्ती ट्रंप ने पैमाने को काफ़ी नीचे ला दिया था। अमेरिकी लोगों को अब अपने नेताओं को ज़्यादा ऊंचे पैमाने पर जवाबदेह बनाना चाहिए।

हम जिन चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, उनकी ज़्यादा वास्तविक तस्वीर पर हमारी नीति को आधारित करना ज़्यादा बुद्धिमत्ता होगी। अब तक ऐसी बहुत कम आशा है कि बाइडेन को रूस के साथ ज़्यादा बेहतर सहयोग का मौका मिलेगा। रूस को वैश्विक ख़तरा बताने के अभियान ने बहुत भीतर तक चोट पहुंचाई है। अपनी तमाम खामियों के बावजूद व्लादिमीर पुतिन ने 2018 में अपने सैन्य बजट में कटौती की थी। इसमें कोई शक नहीं है कि पुतिन की नीतियों को शीत युद्ध के बाद उकसावे वाली अमेरिकी कार्रवाईयों ने ज़्यादा भड़काया था, चाहे वह जॉर्ड एच डब्ल्यू बुश प्रशासन के वायदे के उलट रूस की सीमा पर नाटो की तैनाती हो, रूसी चेतावनी के बावजूद जॉर्जिया और यूक्रेन को नाटो में लेने की कोशिशें हों या 1990 के दशक में रूस पर झटकेदार आर्थिक नीतियों की मार में मदद करने की बात हो, हर तरफ से अमेरिका ने उकसाने वाली कार्रवाईयां की हैं। बता दें इन आर्थिक नीतियों की मार से रूस में कुलीन करोड़पतियों की संख्या बढ़ी, वहीं लाखों लोग दाने-दाने को मजबूर हो गए। इन नीतियों ने जमकर रूस के राजकोष को लूटा।

हमें रूस के साथ दोबारा संपर्क बढ़ाने से फायदा होगा, क्योंकि रूस कई क्षेत्रों में एक जरूरी साझेदार है। हमें परमाणु हथियारों की प्रतिस्पर्धा को सीमित करने और रूस की सीमा पर तनाव कम करने से भी फायदा होगा। ऊपर से बात यह भी है कि अब एक नए शीत युद्ध से लोकतांत्रिक ताकतों के लिए जगह कम होगी और तानाशाह राज्य व राष्ट्रवादियों का हाथ दोनों देशों में मजबूत होगा।

दूसरी तरफ चीन एक उभरती हुई ताकत है, एक व्यवसायी तानाशाही, जिसने अपने लोगों को गरीब़ी से निकालने में बहुत ज़्यादा सफलता हासिल की है। इसके नेता उभरती तकनीक और बाज़ार में चीन की नेतृत्वकारी स्थिति को मजबूत करने के लिए अपने आर्थिक प्रभाव को बढ़ाने की मंशा रखते हैं। ट्रंप ने अपने पूर्ववर्तियों का कूटनीतिक नवउदारवाद त्यागकर, दोनों देशों के बीच सहयोग को छोड़कर, चीन के खिलाफ़ गलत सलाह वाला व्यापारिक युद्ध छेड़ दिया। जबकि दूसरी तरफ दक्षिण चीन सागर में अमेरिकी सैन्य उपस्थिति को भी बढ़ा दिया। बाइडेन ने शायद इस व्यापारिक युद्ध के जारी रहने का अनुमान लगाया है।

लेकिन यह अमेरिका के हित में नहीं है, ना ही हमारे पास इतने संसाधन हैं कि हम एक आधुनिक चीनी सेना को उसी की सीमा पर चुनौती दें। एशिया में हमारे मित्र और दूसरे देशों के पास चीन का प्रभाव कम करने की अपनी वज़ह हैं और वह ऐसा ज़्यादा बेहतर तरीके से कर सकते हैं, अगर उन्हें लगातार अमेरिकी कूटनीतिक समर्थन हासिल होता रहे। यह चीन की सीमा पर अमेरिका की सैन्य क्रियाकलापों से ज़्यादा बेहतर विकल्प है। चीन के विकास का सफ़र शानदार रहा है, लेकिन वहां के ढांचागत अंसतुलन और अब आगे जाने की क्षमता पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं। वाशिंगटन को चीन की कमज़ोरी से उपजने वाली समस्याओं के लिए इंतजार करना चाहिए, ना कि अपनी दृढ़ता दिखाकर चीन को कमज़ोर करने की कोशिश करनी चाहिए।

अमेरिका की वैश्विक आर्थिक रणनीति में बदलाव के लिए प्रभावी सुरक्षा परियोजना का होना जरूरी है। नवउदारवादी तरीके, जिन्हें तथाकथित तौर पर “वाशिंगटन सहमति” कहा जाता है, उनसे असमता और इस नीति का प्रतिरोध बढ़ा है। चाहे वह घरेलू स्तर की बात हो या अंतरराष्ट्रीय स्तर की। एक ऐसी अर्थव्यवस्था बनाने के लिए जो लोगों के लिए काम करती हो, उसके लिए ढांचे में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदलाव की जरूरत है।

अगर अमेरिका अंतहीन युद्धों से खुद को मुक्त रखना चाहता है, तो बेहतर होगा कि हम सुरक्षा के असल मुद्दों पर ध्यान केंद्रित रखें। इनमें मुख्य पर्यावरण बदलाव से उपज रही तबाही है। राष्ट्रों को एक-दूसरे के साथ आने और ऐसी अर्थव्यवस्था बनाने, जिसमें जीवाश्म ईंधन मुक्त अर्थव्यवस्था में तेजी से बदलाव हो, उसके लिए जागरुकता और समर्थन बढ़ रहा है। हमेशा से अपनाया जा रहा रवैया ना केवल हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा है, बल्कि यह हमारे अस्तित्व के लिए भी खतरा है।

अगर हम दुनिया में पुलिस वाले की भूमिका निभाने के बजाए, मानवीय कार्यक्रमों में दूसरे देशों को साथ लाने की कोशिश करते हैं, तो हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा ज़्यादा बेहतर हो सकती है। वैश्वीकरण और पर्यावरण बदलाव से गंभीर स्तर पर विस्थापन हो रहा है और कोविड-19 जैसी बीमारियों का प्रसार हो रहा है। इस दिशा में अंतरराष्ट्रीय प्रयासों से बहुत सफलता मिली है और जब अमेरिका इन कोशिशों में शामिल हुआ है, तो हमारे प्रयासों से ना केवल हमारे सहयोगियों से हमारे संबंध मजबूत हुए हैं, बल्कि बड़े शरणार्थी विस्थापन और भयावह प्लेगों से भी अमेरिकी लोगों की सुरक्षा हुई है।

हमारी सुरक्षा तब ज़्यादा बेहतर हो सकती है, जब हम उन सिद्धांतो के लिए एक ढांचाबनाएं, जिनकी हम वकालत करते हैं। इसलिए यह वक़्त हमारी अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र को मजबूत करने का है। सबसे ज़्यादा ख़तरा रूस या दूसरी विदेशी ताकतों से नहीं है, बल्कि हमारे चुनाव में उपयोग होने वाले बेइंतहां काले धन से है, जिससे मतों को दबाने और इलेक्टोरल डिस्ट्रिक्ट्स में छेड़खानी की कोशिश होती है। 

चीन की व्यावसायिक नीतियों से रिकॉर्ड स्तर पर व्यापारिक अंतर बढ़ा है, जिससे निश्चित तौर पर अमेरिका को नुकसान हुआ है। लेकिन यह नीतियां उनकी नहीं थीं, बल्कि हमने बनाई थीं, हमारे मल्टीनेशनल कॉरपोरेशन और बैंकों ने बनाई थीं, जिन्होंने अपने मुनाफ़े के लिए अर्थव्यवस्था को तबाह किया और हमने होने दिया।

इस तरह के समझदार सुधारों का अमेरिकी लोगों में व्यापक समर्थन है। अमेरिकी लोगों में दुनिया पर अपना हुकुम चलाने की कोई इच्छा नहीं है। देश ने बाइडेन के दो पूर्ववर्तियों में एक रिपब्लिकन, तो एक डेमोक्रेट को चुना था। क्योंकि उन लोगों ने अमेरिका को दोबारा खड़ा करने पर ध्यान केंद्रित करने का वायदा किया था। इन राष्ट्रपतियों का ऐसा ना कर पाना, अमेरिका में सेना-उद्योग-अकादमिक जगत के जटिल गठजोड़ और कुलीन राष्ट्रीय सुरक्षा प्रतिष्ठान के वर्चस्व में होने की तरफ इशारा करता है। इन दोनों का ही स्थायी युद्ध और वैश्विक सर्विलांस से जन्म-जन्म का नाता है।

जो नेता प्रगतिशील यथार्थवाद और संयम भरी विदेश नीति लाएंगे, उन्हें सुनने वाली जनता मिलेगी। लेकिन हम इंतज़ार नहीं कर सकते। अमेरिका को एक तेज-तर्रा और ऊर्जा से भरे नागरिक हस्तक्षेप की जरूरत है। एक ऐसा आंदोलन, जो बदलाव को मानता हो। हमारा लोकतंत्र भ्रष्ट हो सकता है, लेकिन अमेरिकी लोग अब भी उनके नेताओं को जवाबदेह ठहरा सकते हैं और छुपे हुए हितों को चुनौती दे सकते हैं।
 
कैटरीना वांडेन ह्यूवेल, “अमेरिकन कमेटी फॉर यूएस-रशिया एकॉर्ड (ACURA)” की अध्यक्ष और नेशन की प्रकाशक व संपादकीय निदेशक हैं। आप उनसे @KatrinaNation पर ट्विटर के ज़रिए संपर्क कर सकते हैं। यह लेख ग्लोबट्रॉटर द्वारा ACURA के साथ साझेदारी में प्रकाशित किया गया है। (सौजः न्यूजक्लिक)

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