रविकान्त
रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी चर्चित किताब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखा है कि, “इसलाम जब अपने निर्मल उत्कर्ष पर था, तब भी वह भारत में आ चुका था। किंतु, तब उसका आगमन मित्रता के नाते हुआ था। अरब, फ़लीस्तीन और मिस्र से भारत का प्राचीनतम व्यापारिक संबंध था। भारत और पश्चिम के बीच व्यापारिक संबंध में अरब सौदागरों का काफी हाथ था। अरब सौदागरों का पहला बेड़ा भारतीय तट पर 636 ईस्वी में आया था, इसका प्रमाण मिलता है।दरअसल, मुसलिम आक्रांताओं द्वारा इसलाम का आगमन एक दक्षिणपंथी नैरेटिव है, जिसे बार-बार दोहराया जाता है। इसका कारण हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति नफ़रत और आशंका को मजबूत बनाए रखना है।
6 सितंबर को ग्लोबल स्ट्रैटेजिक पॉलिसी फाउण्डेशन, पुणे, द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में मोहन भागवत ने कहा कि ‘इसलाम आक्रांताओं के साथ भारत आया। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है और इसे उसी रूप में बताया जाना ज़रूरी है।’ इस बयान के मायने क्या हैं? क्या तथ्यात्मक रूप से भागवत का बयान सही है? अगर आक्रांताओं के साथ इसलाम का भारत में आगमन हुआ है, तो भी इस इतिहास को बताया जाना क्यों ज़रूरी है?
आखिर, मुसलमानों के आक्रमण को क्यों बार-बार याद दिलाया जाता है? अव्वल तो आक्रातांओं के साथ इसलाम का आगमन तथ्यात्मक रूप से ग़लत है। लेकिन यह सच है कि आक्रमणकारी मुसलिम सरदारों ने देशी राजाओं को पराजित करके अपनी सत्ता स्थापित की। यह ठीक वैसे ही है जैसे आर्यों ने भारत के मूल निवासियों को पराजित करके सत्ता और संस्कृति को स्थापित किया।
दरअसल, मुसलिम आक्रांताओं द्वारा इसलाम का आगमन एक दक्षिणपंथी नैरेटिव है, जिसे बार-बार दोहराया जाता है। इसका कारण हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति नफ़रत और आशंका को मजबूत बनाए रखना है।
मुसलिम फोबिया
इसीलिए आरएसएस-बीजेपी और अन्य हिन्दुत्ववादी संगठन दुनिया के किसी भी कोने में मुसलमानों से जुड़ी किसी भी चरमपंथी या आतंककारी घटना को भारतीय मुसलमानों से जोड़े बिना नहीं रहते। दरअसल, आरएसएस-बीजेपी का वैचारिक वजूद मुसलिम फोबिया पर ही टिका है। कभी-कभी तो मन में यह खयाल आता है कि भारत में अगर मुसलमान नहीं होते तो बीजेपी-आरएसएस जैसे संगठन किसके सहारे अपनी राजनीति चमकाते!
इतिहास लेखन की समस्या
अब सवाल यह उठता है कि दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादियों का यह विचार कितना दुरुस्त है कि भारत में आक्रांताओं के रूप में मुसलमानों का आगमन हुआ? दरअसल, यह विचार भारतीय इतिहास लेखन की एक बुनियादी समस्या है।
गौरतलब है कि आधुनिक अनुशासन (विषय) के रूप में इतिहास लेखन की शुरुआत औपनिवेशिक भारत में हुई। जे.एस. मिल सरीखे इतिहासकारों ने यूरोपीय पैटर्न के आधार पर भारतीय इतिहास को तीन भागों -प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक- में विभाजित किया।
जे. एस. मिल ने प्राचीन काल को हिंदू काल और मध्यकाल को मुसलिम काल कहा। लेकिन उसने आधुनिक काल को ईसाई काल नहीं कहा, जबकि उसने शासक-धर्म को काल विभाजन का आधार बनाया था।
दरअसल, यूरोपीय इतिहास में मध्यकाल धार्मिक अंधता का काल है। राजा के ऊपर चर्च की सत्ता कायम थी। ईसाई धर्म की आचार संहिताओं से शासन और समाज संचालित था।
इस सिद्धांत के आधार पर भारत का मध्यकाल भी धार्मिक कट्टरता का युग माना जाएगा। इसी नजरिए से मुग़ल शासन सत्ता को शरीयत और इसलाम की सत्ता के रूप में दर्शाया जाता है।
मुग़ल काल भारतीय इतिहास का स्वर्णिम दौर है। आक्रमणकारी के रूप में सत्ता स्थापित करने वाले बाबर ने अपनी वसीयत में हुमायूँ को हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं का आदर करने का निर्देश दिया।
धार्मिक सहिष्णुता
अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति भारतीय इतिहास का एक बेहतरीन पहलू है। अकबर एक दार्शनिक राजा है, जो एक नए धर्म दीन-ए-इलाही की शुरुआत करता है। ताक़तवर बादशाह होने के बावजूद अकबर ने किसी पर अपने धर्म को नहीं थोपा।
उसकी विवाह की नीति भी क़ाबिलेग़ौर है। अकबर ने राजपूत राजकुमारियों से विवाह किए तो शहजादियों की शादी राजपूतों से की। मुग़लकाल में शरीयत के अनुसार प्रतिबंधित संगीत और चित्रकला का उल्लेखनीय विकास हुआ।
इसी समय कबीर, रैदास, जायसी और तुलसीदास जैसे विश्व स्तरीय रचनाकार होते हैं, जो लोकमत रचते हैं और बेझिझक धार्मिक मान्यताओं का खंडन-मंडन करते हैं।
हिंदुत्व की पवित्र पुस्तक ‘रामचरित मानस’ की रचना अकबर काल में हुई।
अपेक्षाकृत कट्टर माने जाने वाले औरंगजेब के समय भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था बनती है। एक अनुमान के मुताबिक उस समय वैश्विक जीडीपी में भारत का हिस्सा तकरीबन एक तिहाई था।
ये तमाम आँकड़े मध्यकाल के यूरोपीय फिनोमेना को खारिज करते हैं। लेकिन कुछ भारतीय इतिहासकारों ने कमोबेश औपनिवेशिक नजरिए से ही इतिहास लिखा।
इतिहासकारों ने आर्य, शक, हूण, यवन और बाद में तुर्क, अफगान आदि विदेशी शक्तियों और क़बीलों के आगमन का विश्लेषण करते हुए आर्यों के संदर्भ में ‘आर्यों का आगमन’ दर्ज किया जबकि तुर्क और अफगानों के आगमन पर लिखे गए अध्याय की रूपरेखा ‘मुसलमानों का आक्रमण’ के रूप में दर्ज की।
इसलाम भारत में पहले-पहल अरब व्यापारियों के माध्यम से पहुँचा। इसलिए यह विचार पूरी तरह से गलत और भ्रामक है कि आक्रांताओं के रूप में मुसलमान भारत में दाखिल हुए।
क्या कहा था दिनकर ने?
रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी चर्चित किताब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखा है कि, “इसलाम जब अपने निर्मल उत्कर्ष पर था, तब भी वह भारत में आ चुका था। किंतु, तब उसका आगमन मित्रता के नाते हुआ था। अरब, फ़लीस्तीन और मिस्र से भारत का प्राचीनतम व्यापारिक संबंध था।… भारत और पश्चिम के बीच व्यापारिक संबंध में अरब सौदागरों का काफी हाथ था। अरब सौदागरों का पहला बेड़ा भारतीय तट पर 636 ईस्वी में आया था, इसका प्रमाण मिलता है। सिंध पर मुहम्मद बिन कासिम की चढ़ाई 712 ई. में हुई। किंतु, भारत के पश्चिमी तट पर अरब सौदागर बहुत पहले से आ रहे थे और मोपला लोगों ने तभी इसलाम कबूल किया था। किंतु, ये धर्म परिवर्तन प्रायः स्वेच्छा से किए गए थे, ज़बर्दस्ती के कारण नहीं।”
दक्षिणपंथी खासकर तुर्क आक्रमणकारियों का हवाला देकर दावा करते हैं कि भारत में इसलाम तलवार की नोंक पर फैला, जबकि यह सच नहीं है।
नए क्षेत्र की तलाश
मध्यकालीन इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान हरबंस मुखिया लिखते हैं, “तुर्क भारत आए। एक वीर, योद्धा, शासक वर्ग की तरह। जिन्हें नए क्षेत्रों की तलाश थी। न कि वे किसी धार्मिक या मिशनरी योद्धाओं की तरह हाथों में तलवार उठाए आए थे।”
भारत में इसलाम का प्रसार मुख्यतया सूफियों द्वारा हुआ। दरअसल, हिन्दू धर्म में वर्णव्यवस्था के भेदभाव से पीड़ित खासकर पिछड़ी और वंचित जातियों और दलितों ने इसलाम को अपनाया।
पाकिस्तान के मशहूर इतिहासकार मुबारक अली ने ‘इतिहासकार का मतांतर’ (हिन्दी अनूदित) किताब में मुसलमानों के आगमन को रेखांकित करते हुए लिखा, “भारत में मुसलमान तीन चरणों में तथा तीन अलग-अलग हैसियतों में आए। सबसे पहले दक्षिण भारत में अरब व्यापारी आए तथा स्थानीय शासकों की छत्रछाया में तटवर्ती शहरों में बस गए। इन व्यावसायिक संबंधों की बदौलत अरब दुनिया को भारत की बेशुमार दौलत और संपन्नता की जानकारी मिली, जिससे अरबी शासकों ने भारत पर हमला कर उसकी दौलत पर कब्जा करने की इच्छा जताई। सौदागर और व्यापारी हमेशा साम्राज्यवाद के अग्रदूत रहे हैं तथा विजयों का मार्ग प्रशस्त करते रहे हैं।”
क्या यह महज इत्तेफाक है कि पाकिस्तानी ‘राष्ट्रवादी‘ इतिहासकार मुबारक अली और भारतीय ‘राष्ट्रवादी‘ आरएसएस दोनों भारत में आगमन की मुसलिम आक्रांताओं की थ्योरी को गढ़ते हैं।
दरअसल, दोनों विचारों में चरमपंथी हैं। मुसलिम आक्रमण एक के लिए गौरव है तो दूसरे लिए गुलामी! लेकिन सच से दोनों परे हैं।
दरअसल, भारत का निर्माण लंबी प्रक्रिया में हुआ। इसमें विभिन्न समूह आते गए और देश बनता गया। इस प्रक्रिया में विभिन्न धर्म और संस्कृति से भारत समृद्ध हुआ। इसलिए इस देश को बनाने में कमोबेश सबका योगदान है। इसलिए इतिहास की भ्रामक व्याख्या और ग़लत स्थापनाएं राष्ट्र के कतई हित में नहीं हो सकते।
लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असि. प्रोफ़ेसर हैं। सौजः सत्यहिन्दी