चित्तौड़गढ़। हिंदी साहित्य के अतीत और वर्तमान को पहचानने और विश्लेषित करने की कोई भी कोशिश, लघु-पत्रिकाओं की दुनिया पर नजर डाले बिना, पूरी नहीं हो सकती। युवा अध्येता और दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के सहायक आचार्य डॉ राजीव रंजन गिरि ने कहा कि छोटे छोटे शहरों-कस्बों से निकलती रहीं लघु पत्रिकाओं ने साहित्य के क्षेत्र में भी लोकतंत्र की स्थापना की है। डॉ गिरि ने चित्तौड़गढ़ की साहित्य-संस्कृति की संस्था ‘सम्भावना’ द्वारा आयोजित वेबिनार में कहा कि विचारशीलता और प्रतिरोध लघु-पत्रिका के मूल स्वर हैं।
‘लघु पत्रिका आंदोलन और हमारा समय’ विषय पर उन्होंने कहा कि विचारशीलता से आशय है, अपने समाज और समय के द्वंद्वों को गहराई से संबोधित करना वहीं प्रतिरोध से आशय है मनुष्य विरोधी संरचनाओं को पहचान कर उनका सच्चा विरोध कर मनुष्यधर्मी मूल्यों की रक्षा करना। इसके अतिरिक्त लघु-पत्रिका के स्वरूप व उसकी भूमिका को लेकर हमारे पास पहले की कुछ प्रचलित अवधारणाएँ भी हैं। लघु आकार की और सीमित संख्या में प्रकाशित तथा साथियों के सहयोग से वितरित होने वाली इन पत्रिकाओं के पीछे कोई बड़ी पूँजी, प्रतिष्ठान, या सुव्यवस्थित बुनियादी ढाँचा नहीं होता, ये व्यक्तिगत संसाधनों से निकलती हैं और इनका ध्येय आर्थिक उपार्जन न होकर सामाजिक चेतना के लिए किया गया साहित्यिक अनुष्ठान होता है। उन्होंने वर्तमान समय में नियमित निकल रहीं महत्त्वपूर्ण लघु पत्रिकाओं को रेखांकित करते हुए बतया कि हमारे समय के साहित्य की सबसे प्रामाणिक छवि इन पत्रिकाओं के माध्यम से ही निर्मित होती है।
इससे पहले संभावना के अध्यक्ष डॉ के सी शर्मा ने राजस्थान और विशेष रूप से मेवाड़ क्षेत्र में साहित्य-संस्कृति की चर्चा करते हुए बताया कि आज हिंदी जगत में विख्यात पत्रिका ‘बनास जन’ की शुरुआत संभावना द्वारा ही की गई थी। उन्होंने कहा कि साहित्य और पत्रिकाओं के माध्यम से सांस्कृतिक जागरूकता का अभियान लघु पत्रिका आंदोलन को महत्त्वपूर्ण बनाता है। डॉ कनक जैन ने आयोजन के मुख्य वक्ता डॉ गिरि का परिचय दिया तथा चित्तौड़गढ़ में विख्यात कथाकार स्वयं प्रकाश के द्वारा लघु पत्रिकाओं के प्रसार सम्बन्धी अवदान को रेखांकित किया। वेबिनार का संयोजन राजस्थान विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में सहायक आचार्य डॉ विशाल विक्रम सिंह ने किया। अंत में डॉ गिरि ने अपने व्याख्यान पर मिली प्रतिक्रियाओं पर भी टिप्पणी करते हुए आह्वान किया कि अपनी भाषा और संस्कृति की रक्षा के लिए लघु पत्रिकाओं को बढ़ावा देना किसी भी साहित्यप्रेमी समाज के लिए आवश्यक है। वेबिनार में देश के अनेक शहरों-कस्बों से साहित्य प्रेमियों ने जुड़कर डॉ गिरि के व्याख्यान को सुना।