बिहार में 17 महीने बाद एक बार फिर नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) की नई सरकार तो बन गई, लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही रहे. ”नीतीश को साथ लेकर बीजेपी नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस (इंडिया) को कुंद करने का दंभ तो भर सकती है, किंतु उसे इस बात का भरोसा शायद कतई नहीं है कि नीतीश कब तक उनके साथ बने रहेंगे.
– मनीष कुमार, पटना
बिहार में 17 महीने बाद एक बार फिर नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) की नई सरकार तो बन गई, लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही रहे. एक बार फिर से नीतीश दावा कर रहे हैं कि अब वे कहीं नहीं जाएंगे, वे बीजेपी के साथ बने रहेंगे.
वैसे, यह साफ है कि इस बार नीतीश को पहले से ज्यादा आक्रामक बीजेपी के साथ काम करना पड़ेगा. शपथ ग्रहण के मौके पर जय श्री राम की गूंज भी यही इशारा कर रही. उनके धुर विरोधी रहे बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी और विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता विजय कुमार सिन्हा जैसे कद्दावर नेता को उपमुख्यमंत्री बना कर यह संदेश दिया है कि मुख्यमंत्री भले ही नीतीश कुमार हैं, लेकिन सरकार बीजेपी की रहेगी.
ये वही सम्राट चौधरी हैं, जिन्होंने 27 मार्च, 2023 को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद अपने सिर पर भगवा पगड़ी बांध ली थी. 12 जुलाई को उन्होंने सदन में कहा था कि नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाकर ही पगड़ी खोलेंगे. विजय कुमार सिन्हा भी जेडीयू के खिलाफ काफी आक्रामक रहे हैं. ये दोनों नीतीश के खिलाफ खुलकर बोलते रहे हैं और सरकार चलाने में भी उनके एक चुनौती ही रहेंगे. जाहिर है, बीजेपी नियंत्रण अपने हाथ रखना चाह रही.
इस बार परिवारवाद का बहाना
वर्ष 1994 में जब नीतीश ने उस समय के जनता दल से नाता तोड़ा था तब उन्होंने लालू प्रसाद पर अपराधियों को संरक्षण देने तथा भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था. इसके बाद 2017 में केंद्रीय एजेंसियां उपमुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद के पुत्र तेजस्वी यादव से पूछताछ कर रही थी. नीतीश ने तेजस्वी से जांच के बारे में स्थिति स्पष्ट करने को कहा, लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुए. आरोप भ्रष्टाचार का था. नीतीश ने इस्तीफा दे दिया और एनडीए में लौट गए.
इस बार भी स्थिति वही है. जमीन के बदले नौकरी मामले में सीबीआई की चार्जशीट में तेजस्वी यादव का नाम है, लेकिन इस बार अलगाव का कारण भ्रष्टाचार न होकर परिवारवाद बताया जाता है. यही वजह थी कि पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की जन्मशती समारोह पर बीते 24 जनवरी को नीतीश कुमार ने परिवारवाद पर जमकर प्रहार करते हुए कहा था कि कुछ लोग राजनीति में अपने परिवार को बढ़ाने में लगे रहते हैं. कर्पूरी ठाकुर और हमने कभी अपने परिवार को बढ़ावा नहीं दिया.
बीजेपी की मजबूरी या नीतीश की जरूरत
नाम नहीं प्रकाशित करने की शर्त पर एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, ‘‘इस बार प्रदेश इकाई नीतीश कुमार के साथ नहीं जाना चाहती थी. लेकिन बिहार में अपनी जीत बरकरार रखने के लिए केंद्रीय नेतृत्व ने यह निर्णय लिया. इससे इंडी गठबंधन का मनोबल तो टूटा ही, लालू भी बैकफुट पर आ गए.” उनके अनुसार बीजेपी के एक इंटरनल सर्वे से यह साफ हो गया था कि अगर नीतीश अलग रहे तो बीजेपी को लोकसभा चुनाव में 10 से 15 सीट का नुकसान हो सकता है, नीतीश कुमार के वोटर उनके साथ ही बने रहेंगे.
जातिवार गणना की रिपोर्ट के अनुसार राज्य की सर्वाधिक 36 प्रतिशत आबादी अति पिछड़ा वर्ग की है. इसमें कोई दो राय नहीं कि इस वोट बैंक पर नीतीश कुमार की अच्छी पकड़ है. 2019 में एनडीए को बिहार में 40 में से 39 सीट पर जीत मिली थी. इस परिणाम को अगले आम चुनाव में दोहराने के लिए दृढ़ संकल्पित बीजेपी के पास नीतीश के साथ जाने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा था. इसलिए थोड़ा झुककर ही सही बीजेपी ने फिर नीतीश से हाथ मिलाया.
जानकार बताते हैं कि नीतीश कुमार भी इंडी गठबंधन में अपनी उपेक्षा से नाराज चल रहे थे. जिस अपेक्षा से उन्होंने इस गठबंधन को खड़ा करने की मुहिम शुरू की थी, वैसी तत्परता न तो कांग्रेस और न ही राजद ने दिखाई. ममता व केजरीवाल तो शुरू से ही नीतीश को विपक्षी गठबंधन का नेता नहीं देखना चाहते थे. मल्लिकार्जुन खड़गे को चेयरपर्सन बनाने की घोषणा ने नीतीश की आशाओं पर तुषारापात कर दिया. सूत्र बताते हैं कि जेडीयू को तोड़ने की कथित कोशिशों की भनक लगते ही नीतीश ने पार्टी की कमान खुद अपने हाथों में ले ली और महागठबंधन का साथ छोड़ने का मन बना लिया. इस पूरे प्रकरण का तात्कालिक कारण यही रहा.
उत्तराधिकारी बनने की जुगत
राजनीतिक चिंतक व राजनीति विज्ञान के अवकाश प्राप्त लेक्चरर एसके शरण का मानना है कि यह बीजेपी की दूरगामी प्रभाव वाली रणनीति का हिस्सा है. वे कहते हैं, ‘‘जेडीयू में नीतीश कुमार ने सेकेंड लाइन ऑफ लीडरशिप को कभी डेवलप नहीं किया. वैसे यह उनके स्वभाव में भी नहीं है. उनके बाद पार्टी में कोई मजबूत उत्तराधिकारी भी नहीं है. बीजेपी के लिहाज से यह स्थिति नीतीश को किनारे करने तथा उनके वोट बैंक को अपने साथ करने के लिए काफी मुफीद है.”
कुर्मी-कोइरी व महादलित नीतीश कुमार की ताकत माने जाते हैं. इनके लिए वे ब्रांड बन चुके हैं. शरण बताते हैं, ‘‘नीतीश कुमार के करीब 16.5 प्रतिशत कोर वोटर हैं. जिनके लिए वे ही सब कुछ हैं. वे जिधर रहेंगे, इनका वोट उधर ही जाएगा.” बीजेपी की नजर नीतीश के साथ भी या उनके बाद भी इसी वोट बैंक पर है. कुर्मी जाति के सम्राट चौधरी को उपमुख्यमंत्री बनाना उनके वोट में सेंध की कोशिश ही है. बीजेपी ने अपनी ओर से शुरुआत भी कर दी है.
243 सीट वाली बिहार विधानसभा में बहुमत के लिए 122 विधायकों के समर्थन की जरूरत है. एनडीए के साथ 128 तो महागठबंधन के साथ 115 विधायक हैं. संभवत: बहुमत की कम दूरी को देख ही तेजस्वी यादव कह रहे, ‘‘अभी खेल शुरू हुआ है, खेला अभी बाकी है.” लालू यादव का मौन भी कुछ यही बता रहा.
साभार DW