भारतीय जनता पार्टी के आइटी सेल और सोशल मीडिया के बारे में आम तौर पर लोगों की जानकारी बहुत सीमित है। जो थोड़ी-बहुत जानकारी है भी, वह कई तरह के पूर्वाग्रहों और गलत धारणाओं पर आधारित है। इसे हम अवधारणा-निर्माण (नैरेटिव-बिल्डिंग) और आधिपत्यीकरण (हेजेमनाइजेशन) के खेल की तरह समझें। पढ़े-लिखे होने का दावा करने वाले लोगों को थोड़ा सामान्य ज्ञान बढ़ाने के लिहाज से दो-तीन तथ्य जानना जरूरी है।
सोशल मीडिया में भारत के सबसे बड़े दल को अपनी सेवा देने के कारण मैं कुछ बातें निश्चित तौर पर कह सकता हूं। पहली बात तो यह कि भाजपा के पास अगणित आइटी सेल कर्मचारी नहीं हैं, उसके राज्य कार्यालयों में तो महज एक या दो लोग से भी काम चलता है, जब तक चुनाव का समय न आए। दूसरी बात, भाजपा के आधिकारिक हैंडल से लिखने के लिए एक-एक शब्द पर आपको समझदारी और बेहद संयम से काम लेना होता है। कुछेक अतिरिक्त (या फेक) हैंडल जरूर बने होते हैं, लेकिन वह केवल विपक्षियों के वक्तव्यों का जवाब देने के लिए। राजनीतिक दल के साथ काम करना बेहद दबावपूर्ण होता है। एक श्री और जी लगाने के चक्कर में नौकरियां चली जाती हैं।
तीसरी बात, यदि भारत के सवा अरब मनुष्यों में से कोई भी अपनी आइडी से कुछ भी भाजपा के पक्ष में, वामपंथ के खिलाफ लिखता है, तो वह आइटी सेल का नहीं होता। इसी तरह भाजपा का विरोध करने वाला हरेक व्यक्ति ‘लिब्रांडू’, ‘वामी-कौमी’ या ‘सिकुलर’ नहीं होता।
गोदी मीडिया बनाम डिज़ाइनर मीडिया
सूचनाओं का महाविस्फोट कहिए या चौतरफा पसरा कूड़ा, आप चारों तरफ केवल और केवल ख़बरों से घिरे हैं। पोस्ट-ट्रुथ के इस ज़माने में आप किस पर भरोसा करेंगे, यह बहुत मुश्किल है। किसी ने गोदी-मीडिया शब्द को कॉइन किया, तो किसी ने डिजाइनर मीडिया और राष्ट्रवादी मीडिया। इन सबके बावजूद यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि आज भी मीडिया से लेकर अकादमिक बहसों तक वामपंथ की एक धारा का ही कब्ज़ा है, भले ही हल्ला चौतरफा मीडिया के मोदीमय होने या गोदी-मीडिया का क्यों न हो।
वरिष्ठ पत्रकार अभय कुमार दुबे अपनी नयी किताब ‘हिंदू एकीकरण और ज्ञान की राजनीति’ में इसी धारा को ‘मध्यमार्गी विमर्श’ करार देते हैं। उनके ‘मध्यमार्ग’ में वामपंथी, कांग्रेसी और तमाम सेकुलर-लिबरल विचारधारा के लोग आ जाते हैं। इसे मध्यमार्ग का विमर्श कहना कहां तक ठीक होगा, इस बहस में न पड़ते हुए यहां हम देख सकते हैं कि अभय कुमार दुबे भी दक्षिणपंथी राजनीति को हिंदू-एकीकरण के प्रोजेक्ट से जोड़ देते हैं तो बाकी सभी का समरूपीकरण करते हुए उसे एक ही झाडू से बुहार के ‘ज्ञान की राजनीति’ का नाम देते हैं। ‘विमर्श-नवीसी’ की स्वघोषित शैली और विवादात्मक अंदाज़ में अभय कुमार दुबे इस किताब में मूल तौर पर उन छह आस्थाओं (आप इसे मान्यताएं भी कह सकते हैं) की व्याख्या और पल्लवन ही करते हैं, जो मध्यमार्गी विमर्श की जड़ में है। आप उन छह आस्थाओं से पूरी तरह सहमत हों या न हों, लेकिन इतना तो मानना होगा कि दुबे ने दक्षिणपंथी विमर्श को समझने के जो छह सूत्र दिए हैं, दरअसल उन्हीं में भाजपा की संचार-प्रविधि के सूत्र भी छुपे हुए हैं।
भाजपा की कम्युनिकेशन-स्ट्रेटेजी को समझना हो, तो सबसे पहले उसकी मातृ-संस्था संघ को समझना होगा। भाजपा का ही एक धड़ा मूल तौर पर बृहद् विचार-परिवार का होने की बात भले स्वीकार कर ले, लेकिन संघ से नाभिनाल संबंध को नकार देगा, लेकिन वह कहानी फिर कभी। आज जब मोदी-सरकार के छह वर्ष बीत चुके हैं तो यह जानना बड़ा मौजूं होगा कि भाजपा की संचार-प्रविधि आखिर किस तरह से काम करती है, जो सीधा वोटर्स के दिल को छूकर लगती है। इसके लिए सबसे पहले तो इस बात को समझना होगा कि भाजपा के लिए उसका ऑडिएंस बिल्कुल स्पष्ट है और उनका सारा कम्युनिकेशन बिल्कुल उसी के लिए है। वह हिंदुओं के लिए ही है और समय-समय पर, ‘फ्रिंज’ पर भले ही भाजपा का संचार मुसलमानों से संबोधित होता है, लेकिन वह भी उन मसलों को लेकर ही है जिनसे बहुसंख्यक हिंदू-मानस प्रभावित होता है। तीन तलाक हो या यूनिफॉर्म सिविल कोड, हरेक मुद्दा इसके ही बरअक्स देख सकते हैं।
यहीं वह मीडिया-स्ट्रेटेजी या कम्युनिकेशन-स्ट्रेटेजी आती है, जिसके बीज हम आरएसएस के सरसंघचालक के 2013 में संपादकों के साथ मीटिंग में देख सकते हैं। संघ आमतौर पर प्रचार और मीडिया की दमक से दूर का संगठन इससे पहले माना जाता रहा था और शायद इसी वजह से संघ को लेकर कई तरह की मिथ्या या अगंभीर धारणाएं भी बन जाती थीं, लेकिन मीडिया को लेकर संघ की शर्म या हिचक उसी समय खत्म हुई। उससे पहले राम माधव को बाकायदा प्रवक्ता बनाकर भी संघ ने मीडिया के साथ गलबंहियां की थीं।
भाजपा की पहली रणनीति या कहें पहला पड़ाव ही वही था, जिसे अभय कुमार दुबे मध्यमार्गी विमर्श की पहली आस्था कहते हैं-
भारत में हिंदू बहुसंख्यक हैं लेकिन यह एक जनसंख्यामूलक तथ्य भर है; भारतीय सभ्यता एक सामासिक सभ्यता है जिसे पूरी तरह हिंदू सभ्यता कहना ग़लत होगा; हिंदू भिन्न-भिन्न अस्मिताओं से मिल कर बने हैं, और उनके बीच इतने अंतर्विरोध एवं विरोधाभास मौजूद हैं !
भाजपा ने इस आस्था पर ही प्रहार करना शुरू किया। विराट हिंदू एकीकरण का अश्वमेध का घोडा जब छूटा तो उसके हरावल दस्ते में वही पिछड़े, अति-पिछड़े और अनुसूचित जाति-जनजाति के नेता और कार्यकर्ता थे, जिन पर उसके विरोधी ‘सेकुलर भारत’ की लड़ाई लड़ने का दांव लगाए बैठे थे। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार खुद ओबीसी थे और यूपी से लेकर बिहार तक पिछड़ों की राजनीति को भाजपा ने साध लिया था। यहीं उसका पहला चरण पूरा हुआ था।
भाजपा की दूसरी रणनीति थी, विरोध की ईंटों को ही कामयाबी की सीढ़ी में इस्तेमाल कर लेना। 2019 के लोकसभा चुनाव को याद कीजिए, तो सबसे बड़ा अभियान ‘मैं भी चौकीदार’ दरअसल राहुल गांधी ने मानो गिफ्ट पैक में लपेट कर भाजपा को थमा दिया था। जब तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष ने राफेल के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी को घसीटना शुरू किया, तो भाजपा ने बड़ी चालाकी से ‘चौकीदार चोर है’ को ‘मैं भी चौकीदार’ में बदल दिया। इस अभियान की बात करें या भाजपा के किसी भी अभियान की, वह आक्रमण चौतरफा इस तरह होता है कि लोगों के दिमाग पर स्मृतियां उसी मात्र की रह जाती हैं। इस अभियान में भी गीत बना, वीडियो-ऑडियो बना, रथ निकले और हर वक्त, हर जगह ‘’मैं भी चौकीदार’’ का नारा गूंजने लगा। इसने कहीं न कहीं लोकसभा चुनावों की फिजां पलट दी।
भाजपा की एक अहम रणनीति है- कभी भी व्यक्ति पर नहीं, वाद पर प्रहार करो। इसी वजह से कई बार इसके समर्थकों को झुंझलाते हुए भी देखा जा सकता है कि फलाना झूठ (समर्थकों की नज़र में) तो इतना फैल गया है, जबकि पार्टी उसका कुछ नहीं कर रही है। भाजपा के आइटी सेल वालों को जब विरोधी पर प्रहार करना भी होता है, तो असम्मानजनक शब्दों का प्रयोग वर्जित है। पोस्ट अगर राजनैतिक हो तो उसकी दो या तीन स्तरों पर फिल्टरिंग होती है और तब ही वह पोस्ट होती है। बीजेपी इस मामले में बीबीसी के ‘राइटिंग नॉर्म्स’ फॉलो करती है और बिहार में तेजस्वी हों या यूपी में अखिलेश, पर्याप्त आदर के साथ ही उनका भी नाम लिया जाता है। हां, पोस्ट की रीच बढ़ाने और वायरल कराने के लिए कई फर्जी ट्विटर और फेसबुक अकाउंट भी बनाए जाते हैं, लेकिन उनसे किसी तरह का आधिकारिक संवाद नहीं किया जाता है।
मुझे याद है कि बिहार में तेजस्वी पर प्रहार करते हुए इतना तक ध्यान रखा जाता था कि भाजपा के आधिकारिक हैंडल से सोशल मीडिया पोस्ट या मीडिया के पास गयी प्रेस-रिलीज में भी ‘जंगलराज’ शब्द का उल्लेख न किया जाए। इसके पीछे तर्क यह दिया जाता था कि तेजस्वी जिस बिरादरी से आते हैं, यह शब्द उस बिरादरी को खिन्न कर सकता है। सीधे शब्दों में कहें तो यादव मतदाता इस शब्द से चिढ़ सकते हैं, इसलिए भाजपा ने भरसक पूरे लोकसभा चुनाव के दौरान इस शब्द से परहेज किया। यूपी में भी अखिलेश यादव को टोंटीचोर लिखने पर खासी लंबी डिबेट चली। अगर आप भाजपा के संवादों को देखें तो पाएंगे कि विरोधी नेताओं-नेत्रियों को पूरे सम्मान और आदर के साथ ही उद्धृत करता है।
व्यक्ति से बढ़कर वाद पर प्रहार हो- यह कहा जाता है, जब भाजपा के नेता आपको अपनी कम्युनिकेशन-रणनीति के संबंध में बताते हैं। इन पंक्तियों के लेखक को याद है कि बिहार भाजपा के कद्दावर नेता और लोकसभा चुनाव में महती भूमिका निभाने वाले एक सज्जन ने इतनी बार ‘सटल (महीन) तरीके से विरोधियों पर प्रहार कीजिए’ का नारा बुलंद किया था कि उनका नाम ही ‘सटल बाबू’ पड़ गया था।
संघ परिवार वामपंथ के डर पर ‘संवाद’ का मुलम्मा चढ़ाता है
भाजपा के कट्टर समर्थक यह मानते हैं कि इंडियन एक्सप्रेस, द हिंदू, एनडीटीवी, लल्लनटॉप आदि पूरी ठसक से एजेंडा-सेटिंग करके, फेक न्यूज़ ठेलकर भी निष्पक्षता के पर्याय बने हुए हैं, जबकि हिंदू एकता की बात करने वाला कोई भी मीडिया अगर नज़र आता है, जैसे ऑपइंडिया और सुदर्शन न्यूज़ तो उनके कंटेंट और प्रजेंटेशन पर चर्चा करने के बजाय सीधा उन्हें फेक और ट्रोल बताकर हाशिये पर डाल दिया जाता है। भाजपा का मानना है कि कांग्रेसी-वामी युति से स्थापित जो हिंदू विरोधी ‘नैरेटिव’ बना है, उसे ध्वस्त करने के लिए एक कद्दावर ईको-सिस्टम का बनना अब तक बाकी है।
ये भाजपा समर्थक प्रणव मुखर्जी के संघ-कार्यक्रम में जाने पर मचे हल्ले या ऐसी ही घटनाओं को शिकायती लहजे में याद दिलाते हैं। दरअसल, इस शिकायत के पीछे भाजपा की पूरी तरह से केंद्रीकृत संवाद प्रणाली है। राज्यों में भी वही करने की छूट और इजाजत है, जो मुख्यालय से मंजूर होती है। इसीलिए, मुख्यालय से किसी ‘भाई साहब’ के आने पर राज्य मुख्यालयों में अफरातफरी मच जाती है, भले ही वह भाई साहब कोई खिलंदड़ा नौजवान ही क्यों न हो। मुद्दे की बात यही है कि भाजपा का कम्युनिकेशन पूरी तरह से केंद्र-संचालित और एक व्यक्ति (नरेंद्र मोदी) पर केंद्रित है। बिहार भाजपा ने भी जब लोकसभा चुनाव में थोड़ी सी अलग राह पकड़ी थी और स्थानीय नेताओं को केंद्रस्थ करना शुरू किया, तो केंद्र से एक टीम आयी। इसीलिए, आप बिहार भाजपा के लोकसभा चुनाव अभियान के शुरुआती और अंतिम दौर में एक साफ अंतर पाएंगे।
अति-केंद्रीयता का ही नतीजा है कि कई बार भाजपा की संवाद-शैली अत्यंत निचले स्तर की प्रतीत होती है। कई बार भाजपा को उनके लिए भी कठघरे में खड़ा होना होता है, जिनसे उसका कोई लेना-देना ही नहीं है। इसे कुछ इस तरह समझना चाहिए। पहली बात तो यह कि भाजपा को कांग्रेसी-वामपंथी युति का जवाब देना है, इसलिए उसे आक्रामक भी होना है। दूसरे, ठीक ‘हिंदू’ समाज की तरह ही भारत के दक्षिणपंथी खेमे में कोई एकरूपता नहीं है। इसीलिए, किसी फ्रिंज संगठन के नाम पर किसी भी तरह के ऊटपटांग बयान के लिए भी भाजपा को ही जवाब देना होता है। सत्ता में होने की वजह से भाजपा भी इन पर लगाम नहीं कसती कि आखिर वोट तो आएंगे ही। यही वजह है कि राजस्थान में कोई रैगर अगर किसी की हत्या करता है, तो निशाने पर भाजपा होती है। किसी बुद्धिजीवी की हत्या हो जाती है तो पहली नज़र में ही हत्यारा संघी हो जाता है। यह समझना ज़रूरी है कि जिस तरह लिबरल धड़े या वामपंथ में सभी संगठन किसी एक कम्युनिस्ट पार्टी से संचालित नहीं होते उसी तरह दक्षिणपंथ के सारे संगठन संघ की छतरी तले नहीं चलते।
कई बार केंद्र के स्तर पर उहापोह की वजह से भी कई आरोपों का जवाब या उन पर प्रतिक्रिया देर से आती है। जैसे, जेएनयू में चार साल पहले नारेबाजी की घटना को देखें और आज कन्हैया कुमार को देखें। भाजपा नेतृत्व ने उन्हें नेता स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यहां ध्यान देने वाली बात है कि आज तक कन्हैया के खिलाफ मुकदमा नहीं शुरू हो सका है और इसीलिए वह लोगों को यकीन दिलाने में सफल हो सके हैं कि सरकार उनके पीछे खामखां पड़ी है।
संघ और भाजपा में एक आत्महंता प्रवृत्ति भी है। वे सर्टिफिकेट बटोरने के लिए किसी भी तरह वामपंथी विद्वानों या संस्थाओं से सनद चाहते हैं, जिस पर वे संवाद का मुलम्मा चढ़ाते हैं।
संघ के एक वरिष्ठ नेता से कुछ दिनों पहले जब लंबी बातचीत हुई थी, तो उन्होंने अपनी कुंठा निकालते हुए कहा था:
कुछ न भूलने वालों को याद होगा कि संसद में तब की शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी ने सफाई दी थी कि न जी, हम तो वामपंथियों के साथ भी काम करते हैं। यही बात पत्रकारिता के साथ भी है। जब सोनिया गांधी ने परदे के पीछे से दस साल तक देश चलाया, तो उन्होंने सफाई दी क्या? ये तथाकथित पत्रकार जब उनका चरण-चुंबन करते थे, तो क्या ‘पत्रकारिता का पतन काल’ नाम से लेख छपे क्या, जैसे अभी अमित शाह के कुछ पत्रकारों के साथ मिलने पर हो रहा है, नरेंद्र मोदी के साथ सेल्फी खिंचवाने पर होता है? जब एक सुपर संवैधानिक संस्था ‘एनएसी’ देश को चला रही थी पिछले दरवाजे से, तो इस देश के पत्रकारों ने कुछ लिखा क्या? मुझे नहीं याद आता है।
अवधारणा-निर्मिति और सच को झूठ में बदलने का हुनर
अवधारणा-निर्मिति के साथ ही छवि यानी इमेज-निर्माण की बात को देखना सचमुच मज़ेदार है। यह देखना कुछ उसी तरह का है कि भारत में राइट विंग को ट्रोल, स्त्री-विरोधी, बकवादी करार कर मेनस्ट्रीम से बाहर कर दिया गया है। आज गोदी मीडिया की रट लगाते हुए यह सर्वमान्य सी धारणा बना दी गयी है कि पूरा मीडिया ही भाजपा और मोदी के पक्ष में काम कर रहा है, लेकिन आप वॉशिंगटन पोस्ट से लल्लनटॉप तक देखें तो फासीवादी मोदी और भाजपा पर वज्र-प्रहार करते हुए लेख दिखेंगे।
इसकी वजह यही है जो अभय कुमार दुबे बताते हैं- ‘ज्ञान की राजनीति’ का मतलब ही है भाजपा या राइट-विंग का विरोध। यहीं दूसरी स्थापना भी सामने आती है, जिसके तहत हरेक भाजपाई या दक्षिणपंथी मूर्ख, अनपढ़ और ट्रोल आर्मी का सदस्य होता है। यह लगभग इतनी बार और इतने पक्के तरीके से कहा गया है कि एक अलिखित सत्य ही बन गया है। ऐसे में भाजपा को दरअसल, दो स्तरों पर बाजीगरी दिखानी होती है। एक तरफ तो अपने कट्टर हिंदू समर्थकों को पुचकारना होता है और दूसरी तरफ उस रेखा को भी पार नहीं करना होता है जिसके उस पार उस पर फासीवादी, आपातकाल लगानेवाली, हिंदू बहुसंख्यकवाद की समर्थक पार्टी की मुहर लगे।
यही कारण है कि मोदी हों या योगी, इनके राज में मुसलमानों के कल्याण की योजनाओं में न तो कमी आती है, न उसके फंड में किसी तरह की बाधा आती है। बावजूद इसके, छवि से निकलने के लिए भाजपा को अभी और दूरी तय करनी है। भाजपा के खिलाफ का जो ईको-सिस्टम है, उससे निबटने या उसे तोड़ने के लिए वह कई स्तरों पर प्रयास कर भी रही है, जिसमें यूनिवर्सिटी में अपने लोगों की भर्ती से लेकर मीडिया-संस्थानों को विज्ञापन के लोभ और सरकारी दंड तक का प्रावधान शामिल है। एनएसडी और आइसीएसएसआर के दो ताज़ा मामलों से इसे समझिए।
भाजपा को यह बात पता है कि इस देश का बहुसंख्यक हिंदू धर्मप्राण है, लेकिन कट्टर नहीं। इसीलिए, चाहे पीएम की केदारनाथ यात्रा हो या काठमांडू में शिव-मंदिर जाना, भाजपा का मीडिया और सोशल मीडिया सेल इनकी डुगडुगी बजाना नहीं भूलता। प्रधानमंत्री के ललाट पर त्रिपुंड और टीके की गहराई भी इसी से तय होती है या की जाती है कि संदेश किस हद तक और कहां तक पहुंचाना है। बनारस में सफाईकर्मियों का पैर धोना हो या छात्रों के साथ मन की बात, मोदी जब प्रधानमंत्री नहीं थे, तब भी और अब भी, भाजपा के सबसे चतुर कम्युनिकेटर हैं। प्रधानमंत्री बनने के बाद सारा कम्युनिकेशन उनके गिर्द ही होने लगा है, यह एक बिल्कुल अलग बात है।
धुंध में सच की तलाश
रिपोर्टिंग से लेकर पोस्ट-ट्रुथ तक हमने एक लंबा सफर तय कर लिया है। घटनाओं के इतने वीडियो, इतनी व्याख्याएं आ रही हैं कि सच और झूठ के बीच का फर्क ही मिट गया है, बिल्कुल धुंधला हो गया है।
सस्ते डेटा ने हरेक आदमी को इतना सशक्तीकृत तो कर ही दिया है कि वह अपने मन की बात सोशल मीडिया पर लिख सके। यही वजह है कि बने-बनाए नैरेटिव्स टूट रहे हैं, दिग्गजों को चुनौती मिल रही है, किसी भी बात पर तुरंत ही पुराने रिकॉर्ड तैरने लगते हैं। इसीलिए, फेक न्यूज़ में आपके फंसने का भी ख़तरा बढ गया है।
ऐसे में सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। आपको खुद ही बेहद जिम्मेदारी से सूचना को ग्रहण करना और उसे बांटना सीखना होगा।
संपादकीय नोट: यह स्तम्भ इस वर्ष के आरंभ में हिंदी की पत्रिका तद्भव के मीडिया विशेषांक (मार्च 2020) के लिए लिखे गये एक लम्बे और अप्रकाशित लेख का संपादित अंश है। उस वक्त लेखक स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे थे। सौज- जनपथः लिंक नीचे दी गई है