हम बारीकी से विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि वर्ष 2014 के बाद भारत में लिबरल जनतंत्र के बरअक्स हिन्दुत्व की जो बहुसंख्यकवादी सियासत हावी होती गयी, उसके कई तत्व इसी आंदोलन /सरगर्मी में मजबूती पाते गए हैं।
[ग्रीक पुराणों में मिनर्वा को ज्ञान, विवेक या कला की देवी समझा जाता है, जिसका वाहन है उल्लू।
उन्नीसवीं सदी के महान आदर्शवादी दार्शनिक हेगेल का ‘फिलॉसाफी आफ राइट’ नामक किताब का चर्चित कथन है, ‘‘मिनर्वा का उल्लू तभी अपने पंख फैलाता है, जब शाम होने को होती है’’; (Only when the dusk starts to fall does the owl of Minerva spread its wings and fly.) – कहने का तात्पर्य दर्शन किसी ऐतिहासिक परिस्थिति को तभी समझ पाने के काबिल होता है, जब वह गुजर गयी होती है।]
अपनी अतीत की ग़लतियों की तहे दिल से आलोचना करना, साफ़गोई के साथ बात करना, यह ऐसा गुण है, जो सियासत में ही नहीं बल्कि सामाजिक जीवन में भी इन दिनों दुर्लभ होता जा रहा है। इसलिए अग्रणी वकील एवं नागरिक अधिकार कार्यकर्ता जनाब प्रशांत भूषण ने अपनी अतीत की ग़लतियों के लिए जब पश्चताप प्रगट किया तो लगा कुछ अपवाद भी मौजूद हैं।
दरअसल इंडिया टुडे से एक साक्षात्कार में उन्होंने ‘इंडिया अगेन्स्ट करप्शन’ आंदोलन जिसका चेहरा बन कर अण्णा हजारे उभरे थे – जिसकी नेतृत्वकारी टीम में खुद प्रशांत शामिल थे – को लेकर एक अनपेक्षित सा बयान दिया। उनका कहना था कि यह आंदोलन ‘संघ-भाजपा’ द्वारा संचालित था। ईमानदारी के साथ उन्होंने यह भी जोड़ा कि उन्हें अगर इस बात का एहसास होता तो वह तुरंत अण्णा आंदोलन से तौबा करते, दूर हट जाते।
विडम्बना ही है इतने बड़े खुलासे के बावजूद छिटपुट प्रतिक्रियाओं के अलावा इसके बारे में मौन ही तारी है या बहुत कमजोर सी सफाई पेश की गयी है।
न अण्णा आंदोलन के उनके अग्रणी टीम के लोग कुछ खास बोले हैं, न ही बुद्धिजीवियों के उस समूह से – जिन्होंने अण्णा आंदोलन में एक ‘नयी रौशनी’ देखी थी, ‘अण्णा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ अण्णा’ का सुर उछाला था – किसी प्रबुद्धजन ने कोई ठोस बात रखी है।
इस सूचक मौन के क्या निहितार्थ हो सकते हैं ?
क्या वह सब इस बात से सहमत हैं कि सभी संघ के गेम प्लान का शिकार बन गए थे या सोचते हैं कि अब लगभग एक दशक पुरानी हो चुकी इस बात का क्या पोस्टमार्टम किया जाए !
निश्चित ही यह बात पहली दफा नहीं उठी है।
ग़ौरतलब है कि यह आंदोलन जब अपने उरूज पर था तब दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेस के अग्रणियों ने, कई वामपंथी एवं अन्य सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने यहां तक कि कई पत्रकारों ने इसके बारे में खुलासे किए थे, मगर उनकी अनदेखी की गयी थी। मिसाल के तौर पर उन दिनों ‘तहलका’ में लिखते हुए इफ़्तिख़ार गिलानी ने यह सवाल पूछा था कि क्या ‘इज़ आरएसएस रनिंग द अन्ना शो? -18 अगस्त 2011) उनके मुताबिक ‘अण्णा हजारे को मिल रहे समर्थन का बड़ा हिस्सा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के युवा कार्यकर्ताओं का है। यह कांग्रेस का आरोप नहीं है बल्कि भाजपा की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज की स्वीकारोक्ति है। …उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि हजारे की मुहिम में संघ की भूमिका के बारे में कोई सन्देह नहीं होना चाहिए।’
मेल टुडे (अगस्त 26, 2011) के अपने आलेख में राजेश रामचन्द्रन सिविल सोसायटी को संसद के ऊपर बताने की अण्णा आंदोलन से निःसृत प्रवृत्ति में ‘संविधान के पुनर्लेखन के संघ परिवार के एजेण्डे’ को फलीभूत होता देखे थे। उन्होंने इस बात को भी रेखांकित किया था कि वाजपेयी की अगुआई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन की सरकार के दौरान जब भ्रष्टाचार के एक-एक काण्ड उजागर हो रहे थे, मृत सैनिकों के लिए मंगाये गये ताबूतों में करोड़ों के वारे न्यारे हुए थे, सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों का माटी के मोल निजीकरण किया जा रहा था, तब किस तरह आज के तमाम ‘योद्धा’ मौन थे; .. मगर जब 2009 के चुनावों में भाजपा की दुर्गत हुई, उसके सीटों की संख्या 147 से 115 तक पहुंची,तब मुद्दों की तलाश में रहनेवाली पार्टी के हाथों भ्रष्टाचार का मुद्दा आया।
प्रस्तुत आंदोलन की रूपरेखा तैयार करने में संघ परिवार से सम्बद्ध लोगों, संगठनों की शुरूआत से सक्रियता को भी उन्होंने रेखांकित किया था।
जाहिर है इसके बारे में अन्य तथ्य भी पेश किए जा सकते हैं।
लेकिन क्या संघ- भाजपा की सक्रियता, उसके लिए फैसिलिटेटर/उत्प्रेरक की भूमिका में संघ या उसके आनुषंगिक संगठन की मौजूदगी, आधिकारिक तौर पर भी संघ नेतृत्व द्वारा उज्जैन की बैठक में पारित ‘अण्णा के समर्थन’ का प्रस्ताव यही एकमात्र पहलू है जो इस आंदोलन के बारे में विवादास्पद था।
हम बारीकी से विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि वर्ष 2014 के बाद भारत में लिबरल जनतंत्र के बरअक्स हिन्दुत्व की जो बहुसंख्यकवादी सियासत हावी होती गयी, उसके कई तत्व इसी आंदोलन /सरगर्मी में मजबूती पाते गए हैं। ध्यान रहे कि लिबरल जनतंत्र का अर्थ यही निकलता है कि अल्पमत के अधिकारों को मद्देनज़र रखते हुए बहुमत की इच्छा की बात की जाएगी, और ये ऐसे अधिकार होंगे जो संवैधानिक, न्यायिक एवं अन्य ढंग से सुरक्षित किए जाएंगे।
अगर अण्णा आंदोलन ने एक किस्म के झुण्डवादी जन तंत्र के विचार को वैधता/लोकप्रियता नहीं दिलाई होती, अगर उसने जनतंत्राविरोधी प्रवृत्तियों को हवा देने का काम नहीं किया होता या उसने लोकतंत्र को किसी मसीहाई से प्रति स्थापित करने के विचार को लोकप्रिय नहीं बनाया होता तो तय बात है कि 2014 की मोदी की जीत नामुमकिन थी।
जानेमाने अकादमिक एवं विद्वान कांति वाजपेयी ने (विच डेमोक्रेसी वी वान्ट? टाईम्स ऑफ इण्डिया) उन्हीं दिनों इसकी विवेचना करते हुए लिखा था:
”.. अण्णा हजारे के समर्थन में जुटी भीड़ में यह समझदारी काफी प्रचलित है कि जनतंत्र का मतलब होता है ‘‘जन की इच्छा’’। चूंकि लोगों में काफी भिन्नताएं हैं, जन की इच्छा का अक्सर यही मतलब निकलता है कि बहुमत क्या चाहता है, जिसमें अन्य कोई मसला विचारणीय नहीं समझा जाता है। यह एक किस्म का बहुसंख्यकवादी अर्थात झुण्डवादी जनतंत्रा (majoritarian democracy) है, जिसके बारे में क्लासिकीय ग्रीकों से लेकर महात्मा गांधी तक सभी चिन्ता प्रगट कर चुके हैं क्योंकि इसका अर्थ यही निकल सकता है कि बहुमत कभी अल्पमत के अधिकारों को कुचलने का भी निर्णय ले। …”
इस आंदोलन की जनतंत्र विरोधी प्रव्रत्तियां तथा व्यक्तिविशेष को संसद से ऊपर स्थापित करने की जारी कवायद के बारे में बात करते हुए अम्बेडकरी विद्वान प्रो. सुखदेव थोरात ने ‘नायक पूजा’ को लेकर डॉ. अम्बेडकर की चेतावनी को साझा किया था। (अम्बेडकर्स वे एण्ड अन्ना हजारेज् मेथडस्, प्रो. सुखदेव थोरात, द हिन्दू 23 अगस्त 2011)
उनके मुताबिक डॉ. अम्बेडकर इस राजनीतिक संस्कृति को लेकर बेहद चिन्तित थे जहां लोग ‘‘महान लोगों के कदमों पर अपनी आज़ादियों न्यौछावर करते थे या उन पर इस तरह यकीन करते थे कि वह उनकी संस्थाओं को अन्दर से खोखला कर सकें।’’…यह चेतावनी अन्य किसी मुल्क की तुलना में भारत की जनता के सन्दर्भ में सबसे अधिक जरूरी थी क्योंकि यहां भक्ति, या जिसे भक्ति का मार्ग कहा जा सकता है, वह अन्य मुल्कों की तुलना में यहां की राजनीति में काफी काम करता है, ऐसा अम्बेडकर का कहना था। उन्होंने आगे कहा कि भक्ति या धर्म में नायक पूजा से आत्मा को मुक्ति मिल सकती है, मगर राजनीति में, भक्ति या नायक पूजा, पतन और अन्ततः अधिनायकवाद में ही परिणत हो सकता है।
इसे महज संयोग नहीं कहा जा सकता कि मार्क्सवादी अर्थशास्त्री एवं जानेमाने जन बुद्धिजीवी प्रो. प्रभात पटनायक ने भी उन्हीं दिनों ‘जनतंत्र जहां समाज के मामलों को आकार देने के लिए लोग कर्ता (subject सब्जेक्ट) की भूमिका प्राप्त करते है’ के बरअक्स आंदोलन से प्रस्फुटित मसीहाई की विवेचना की थी। मेसियानिजम वर्सस डेमोक्रेसी’ (‘मसीहाई बनाम जनतंत्र’ द हिन्दू 24 अगस्त 2011) नामक आलेख में उन्होंने समझाया था कि किस तरह ‘मसीहाई एक तरह से सामूहिक कर्ता, पीपुल/अवाम, को व्यक्तिगत कर्ता से अर्थात मसीहा से प्रति स्थापित करता है। लोग भले ही अच्छी खासी तादाद में शामिल हों …लेकिन यह सब वे दर्शक के तौर पर करते हैं।’
मसीहाई राजनीतिक गतिविधि किस तरह लोगों को सुन्न बना देती है इसकी चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा था कि ‘जिस तरह बॉलीवुड की फिल्म में हीरो अकेले ही विलेन का खात्मा कर देता है, उसी तर्ज पर मसीहाई गतिविधि में ‘फाइटिंग’ का समूचा काम अर्थात कर्ता की भूमिका मसीहा को सौंपी जाती है, लोगों की उपस्थिति महज ताली पीटने के लिए होती है। …जब टीम अण्णा अपने आप को ‘‘पीपुल/अवाम’’ के तौर पर संबोधित करती है वह एक तरह से यही बात सम्प्रेषित करती है कि मसीहाई ही जनतंत्र है।’’
वे लोग जो उपरोक्त आंदोलन में जनता की भागीदारी को लेकर गदगद थे उनको आगाह करते हुए उन्होंने लिखा था कि ‘…यह हमारे लिए गंभीर चिन्ता का विषय होना चाहिए, क्योंकि यह हमारे समाज की पूर्वआधुनिकता और हमारे जनतंत्र की जड़ों के खोखलेपन को ही रेखांकित करता है।’’‘
आंदोलन में मीडिया की भूमिका या इसमें इस्तेमाल प्रतीक भी – जो अब सरे आम हो गए हैं – आनेवाले दिनों का संकेत देते दिखे हैं, जिसमें ‘सच्चे भारतीय’ को गढ़ा जा रहा था।
अरूंधति रॉय ने उन्हीं दिनों लिखा था कि ‘‘अण्णा की क्रांति में नज़र आनेवाली कोरियोग्राफी, आक्रामक राष्ट्रवाद और तिरंगे का इस्तेमाल सभी आरक्षण विरोधी आंदोलन, विश्व कप जीतने पर निकली झांकी और नाभिकीय परीक्षण के बाद हुए आयोजनों से आयातित दिखता है। वह हमें संकेत देता है कि अगर हम इस अनशन का साथ नहीं देते हैं, तब हम ‘सच्चे भारतीय’ नहीं हैं। 24*7 घण्टे चल रहे चैनलों ने भी तय किया है कि इस मुल्क में अन्य कोई ख़बर नहीं है जिसको प्रसारित किया जाना जरूरी है।’
गौरतलब है कि मीडिया द्वारा प्रणित इस ‘अण्णा क्रांति’ का सम्मोहन इस कदर था कि न किसी ने यह समझने की कोशिश की कि ‘दूसरे महात्मा’ के तौर पर पेश किए गए यह वही अण्णा हजारे हैं जिन्होंने कभी मराठी वर्चस्ववाद का समर्थन किया था और 2002 के मुसलमानों के जनसंहार में सूबे की अगुआई करनेवाले गुजरात के मुख्यमंत्री के विकास मॉडल की तारीफ की थी और इतना ही नहीं टीम अण्णा के अग्रणी सदस्यों में कुछ ‘यूथ फार इक्वालिटी’ – जो आरक्षण विरोधी आंदोलन रहा है – से सम्बद्ध रहे हैं तो कई ऐसे एनजीओ से जुड़े हैं जिन्हें कोका कोला, लेहमान ब्रदर्स जैसी अन्तरराष्ट्रीय कम्पनियों से उदारहृदय से फण्ड मिलते रहे हैं। (वही, व्हाय ए एम नॉट अण्णा, अरूंधति रॉय)
आज़ादी के बाद यह पहला मौका नहीं था जब भ्रष्टाचार के खात्मे के नाम पर संघर्ष खड़ा हुआ था।
70 के दशक में जयप्रकाश नारायण की अगुआई में चले बिहार आंदोलन या 80 के दशक के उत्तरार्द्ध में वीपी सिंह की पहल पर बोफोर्स घोटाले के खिलाफ जनता सरगर्म हुई थी। यह सभी तंज़ीमें मुख्यतः लीडरों या उनकी अगुआई में जारी अनियमितताओं पर ही केन्द्रित रहती आयी है। उन्होंने उन संरचनात्मक कारणों की लगातार अनदेखी की है कि भ्रष्टाचार -जिसे आम जनमानस में भी ‘अवैध लूट’ का दर्जा हासिल है – का मुल्क की आर्थिक नीतियों से क्या रिश्ता हो सकता है।
लेकिन इन आन्दोलनों का साझापन यहीं खत्म नहीं होता।
इन तीनों आन्दोलनों ने भारतीय राजनीति में हिन्दुत्व दक्षिणपंथ को अधिकाधिक वैधता प्रदान करने का, उसके साफ-सुथराकरण/ सैनिटाइजेशन का काम किया है। बिहार आंदोलन में संघ की सक्रियता से उसे अपने अतीत के तमाम पापों से – फिर चाहे आज़ादी के आंदोलन से दूरी रखने का सवाल हो या बकौल वल्लभभाई पटेल ‘गांधी हत्या के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने या मानस बनाने का सवाल हो’ – मुक्ति पाने में सहूलियत हुई थी, बोफोर्स के मसले पर संघ-भाजपा की सक्रियता ने तथा बाद में वीपी सिंह के शासन को एक तरफ से सहयोग देने से उसके संकीर्ण, एकांगी एवं नफ़रत भरे एजेण्डा को नॉर्मलाइज होने में/स्वीकार्य होने में सहायता मिली थी और अण्णा आंदोलन वह चरम मुक़ाम था, जब उसने ऐसी छलांग लगायी कि वह समूचे संविधान को ही फ़िलवक़्त खोखला बना देने की स्थिति में पहुंच गया है।
ध्यान रहे भ्रष्टाचार विरोधी विमर्श से दक्षिणपंथ को मिलती वैधता की परिघटना महज हिन्दोस्तां तक सीमित नहीं है।
ब्राजील – जिसके राष्ट्रपति बोलसोनारो गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि बनाए गए थे – इसकी एक ऐसी नायाब मिसाल प्रस्तुत करता है।
इतिहास इस बात का गवाह है कि किस तरह वहां सामाजिक न्याय की नीतियों की हिमायती वर्कर्स पार्टी की सरकार को किसी ‘लावा जाटो’ / (car wash) corruption investigation भ्रष्टाचार की जांच के मामले को उछाल कर बदनाम किया गया था, कॉर्पोरेट मीडिया एवं उच्च मध्यम वर्ग की अगुआई में राजनीति को ‘शुद्ध’ बनाने की ऐसी मुहिम चलायी गयी थी, जिसकी परिणति न केवल वर्कर्स पार्टी की सत्ता से बेदखली में हुई थी बल्कि बोलसोनारो नामक कटटर दक्षिणपंथी विचारों के हिमायती विवादास्पद शख्स के सत्तारोहण में भी हुई थी।
अगर भारत में ‘दूसरे महात्मा’ के तौर पर प्रोजेक्ट किए गए अण्णा हजारे भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के आइकॉन बनाए गए थे तो ब्राजील में ‘लावा जाटो’ मामले में जज रहे सेर्गिओ मोरो, को भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का मसीहाई सुपरस्टार घोषित किया गया था।
(सुभाष गाताडे वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार-लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)सौज न्यूजक्लिकः लिंक नीचे दी गई हैं–
https://hindi.newsclick.in/JP-to-Anna-anti-corruption-movement