इटली, फ्रांस और यूरोप के कई देशों की पार्लियामेंट के चुनिंदा और आम तौर पर दक्षिण-धुर दक्षिणपंथी सदस्यों का जो समूह कश्मीर के दौरे पर पहुंचा है, वह यूरोपीय संघ का संसदीय प्रतिनिधिमंडल नहीं है। उसके ईयू के डेलेगेशन होने की बात उतनी ही झूठ है, जितनी पिछले मार्च में सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे में केचुआ का यह दावा कि भारतीय सांख्यिकी संस्थान ने चुनाव नतीजों की लगभग सौ प्रतिशत शुद्धता सुनिश्चित करने के लिए, इस्तेमाल किए जाने वाले कुल 10.35 लाख ईवीएम में से 479 की मतगणना का वीवीपैट पर्चियों से मिलान एवं सत्यापन को पर्याप्त बताया है। सच यह है कि आपको आईएसआई के नाम केचुआ का ऐसा कोई पत्र नहीं मिलेगा, जिसमें उससे ऐसा अध्ययन करने के लिए कोई विशेषज्ञ समिति बनाने का अनुरोध किया गया हो या आईएसआई का ऐसा कोई आधिकारिक फैसला कि संस्थान के दिल्ली केन्द्र के एक महानुभाव, चेन्नई मैथमेटिकल इंस्टीच्यूट के निदेशक और भारत सरकार के सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के एक उप निदेशक की एक समिति यह अध्ययन करेगी।
केचुआ के लिए तो पता नहीं इन तीन लोगों का चयन किसने किया था। आप केवल इसमें एक मंत्रालय के डिप्टी डायरेक्टर की मौजूदगी से इसका अनुमान भर लगा सकते हैं। लेकिन दौरा शुरू होने के कुछ ही समय के भीतर साफ हो गया कि ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, चेक गणराज्य और अन्य यूरोपीय देशों की पार्लियामेंट के इन सदस्यों को जुटाने और इन्हें कश्मीर दौरे पर ले जाने की पहल और प्रायोजन एक लगभग अनाम एनजीओ ‘वीमेंस इकॉनॉमिक ऐंड सोशल थिंक टैंक’ की किन्हीं मादी शर्मा ने किया और सांसदों के आने-जाने, घूमने-ठहरने और सेवा-टहल का खर्च किसी ‘इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ नॉन अलायंड स्टडीज’ ने उठाया। इन मादी शर्मा का साहस देखिए कि सात अक्टूबर को भेजे न्योते में उन्होंने सांसदों को यह नहीं कहा कि वह उन्हें पीएम नरेन्द्र मोदी से मिलवाने की कोशिश करेंगी, बल्कि बताया कि पीएम उनसे मिलना चाहते हैं। पीएम उनसे मिले भी। और दिल्ली से श्रीनगर तक उन्हें मिले स्टेट वेलकम और इंतजामातों के तो कहने ही क्या।
यह तब है, जब पिछले पांच अगस्त को जम्मू-कश्मीर का स्पेशल स्टेटस खत्म करने के बाद कांग्रेस के नेता राहुल गांधी और उनके साथ श्रीनगर पहुंचे पत्रकारों के दल को हवाई अड्डे से ही वापस भेजा जा चुका है, माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी, राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद और कई विपक्षी नेताओं को वहां नहीं जाने दिया गया। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में वित्त और विदेश मंत्रालय संभाल चुके यशवंत सिन्हा को एयरपोर्ट से बाहर नहीं निकलने दिया गया, विदेशी पत्रकारों को कश्मीर जाने और वहां के हालात पर रिपोर्ट करने की इजाजत नहीं दी गई और पांच अगस्त के बाद के प्रारंभिक दिनों-हफ्तों में नहीं, अभी इसी महीने अमरीकी कांग्रेस के सदस्य क्रिस वैन होलेन को वहां नहीं जाने दिया गया। हां मुश्किल यह जरूर थी कि ये सब अपनी नजर से हालात का जायजा लेने पर आमादा थे और याद रखना चाहिए कि पीएम से मुलाकात के बाद कश्मीर के हाई-प्रोफाइल दौरे पर पहुंचे सांसदों में से एक फ्रांस की धुर-दक्षिणपंथी पार्टी ‘नेशनल रैली’ की थियेरी मारियानी ने एएफपी से कहा है, ‘हम कश्मीर में स्थिति देखने जा रहें हैं, कम-से-कम उतना, जितना वे दिखाना चाहते हैं।’
आखिर यह यों ही नही हुआ कि उत्तर-पश्चिम इंग्लैंड के क्रिस डेविस ने ज्यों ही कहा कि वह पुलिस, सुरक्षा और अधिकारियों के बिना कश्मीर जाना और वहां बेरोकटोक, अपनी मर्जी से लोगों से बातचीत करना पसंद करेंगे, उन्हें समूह से बाहर कर दिया गया।
अब अगर यह तय है कि देखना क्या है, तो तय तो यह भी होगा ही कि देखकर बताना क्या और कितना है, रिपोर्ट क्या देनी है। हां, समूह का दौरा संपन्न होने के बाद ही यह पता चलेगा कि दिल्ली लौटकर वह कोई रिपोर्ट जारी करेगा या नहीं, कोई प्रेस कांफ्रेंस करेगा या नहीं। इसकी उम्मीद करनी तो नहीं चाहिए, यद्यपि मादी शर्मा ने इन पार्लियामेंटेरियंस को ई-मेल से दौरे की कार्ययोजना का जो ब्यौरा भेजा है, उसमें 30 अक्टूबर को प्रेस कांफ्रेंस करना शामिल है। समूह के वैचारिक आग्रहों से लेकर दौरे के प्रायोजन और उसके लिए वित्त-प्रबंधन तक पर इतने सवाल, संदेह और रहस्य हैं कि यह लगभग एक असंभावना है। वैसे सच यह भी है कि यह आधिकारिक तौर पर और ठसके से झूठ बोलने का समय है।
आखिर अटार्नी जनरल ने रफाल मामले मे सुप्रीम कोर्ट को कहा ही था कि सीएजी इन विमानों की कीमतों सहित सौदे के तमाम मामलों की जांच कर अपनी रिपोर्ट संसद की लोकलेखा समिति को दे चुका है और समिति के निरीक्षण एवं जांच के बाद इसका प्रासंगिक हिस्सा संसद में पेश किया जा चुका है। और केचुआ ने तो कोर्ट में हलफनामा देने से पहले ईवीएम से मिलान के लिए वीवीपैट के सेम्पल-साईज को लेकर कथित विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट के बारे में इसी साल 22 मार्च को एक प्रेस रिलीज भी जारी किया था। बस, हमने वाचाल और आक्रामक झूठ के भूमंडलीकरण के इस वक्त में उसे अन-नोटिस्ड जाने दिया, अमरीका से उलट, जहां मुख्यधारा का मीडिया न केवल जीवित है, बल्कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के हर झूठ को दर्ज कर रहा है, उसका हिसाब रख रहा है।
(लेखक राजेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)