हर विधायिका के पास ख़ुद को नियंत्रित करने की शक्ति होती है, लेकिन दिल्ली में इस शक्ति का दमन लेफ़्टिनेंट गवर्नर की सहूलियत के लिए किया जा रहा है। एक पूर्ण केंद्रीयकृत सरकार में लोकतांत्रिक प्रतिगमन लगातार बढ़ता हुआ दिखाई देता है। हम सत्ता द्वारा असहमति के लिए बढ़ती असहिष्णुता के गवाह बन रहे हैं। यह लोकतंत्र में एक ख़तरनाक चलन है, लेकिन परिसंघीय स्तर पर यह और भी ख़तरनाक है, क्योंकि लिखित संविधान अपने-आप काम नहीं करते।
जब हम आज़ाद हुए तो हमारी राजनीतिक और सांस्कृतिक एकता के साथ-साथ भौगोलिक वजहों से संघीय ढांचे वाला एक संसदीय लोकतंत्र हमारी जरूरत थी। लेकिन हालिया घटनाएं, जैसे जम्मू और कश्मीर राज्य का खंड-अ से निष्कासन, हमारे यहां राज्यों की असहमति को दबाने की बढ़ती प्रवृत्ति की ओर इशारा करती हैं, ताकि केंद्रीय ताकत को बढ़ाया जा सके।
यह निबंध भारत के संविधान में निहित लोकतांत्रिक संघवाद को कमज़ोर करने की प्रवृत्तियों की ओर ध्यान दिलाता है, जो संविधान के “भारत राज्यों का संघ है” वाक्यांश में लक्षित होता है। जम्मू-कश्मीर के संविधान और राज्य के दर्जे को ख़त्म करना संघीय व्यवस्था पर पहला गंभीर हमला था। इसके बाद केंद्र ने अंधाधुंध तरीके से राज्य बाज़ार कानूनों पर आधिपत्य जमाने की कोशिश की, जो ज़्यादातर राज्य के क्षेत्र में आते हैं। अब हमारे सामने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र संशोधन विधेयक 2021 है।
इस विधेयक के नतीजों को ठीक ढंग से समझने के लिए हमें हमारे संघीय संसदीय लोकतंत्र के कुछ बुनियादी तत्वों को ध्यान में रखना होगा। इन तत्वों में सबसे आगे लोकतांत्रिक सरकार की कल्पना थी, जो बिना चुने हुए लोगों की तानाशाही के उलट मतदाताओं के प्रति जवाबदेह हो।
सरकार सिर्फ़ सामूहिक तौर पर विधायिका के प्रति जवाबदेह नहीं होती, बल्कि यह सीधे तौर पर संप्रभु लोगों के लिए भी जवाबदेह होती है। यह प्रशासन की एक ऐसी व्यवस्था का हिस्सा होती है, जहां जनता विधायिका में अपने सीधे चुने हुए प्रतिनिधियों के ज़रिए, सदन या चुने हुए प्रतिनिधियों की समितियों से सरकार पर सतत निगरानी रखती है।
उस वक़्त भी सरकार के काम का परीक्षण होता है, जब आम जनता चुनावों में मतदान करती है।
दूसरे शब्दों में कहें तो “सामूहिक ज़िम्मेदारी” का मतलब “प्रतिनिधि सरकार” होती है। सरकार ना केवल सिर्फ़ संप्रभु लोगों का प्रतिनिधित्व करती है, बल्कि लगातार लोगों के प्रति जवाबदेह भी होती है। अगर हम “दलीय व्यवस्था” को ध्यान में रखें, तो संघीय व्यवस्था में भी दो स्तरों पर इसी सिद्धांत का पालन किया जाता है।
प्रतिनिधिक प्रशासन एक ऐसा उपकरण है, जिसके जरिए लोकप्रिय भावना की पूर्ति नीतियों के ज़रिए की जाती है। लोगों की सहमति से अपनी ताकत पाने वाली सरकार को यह तय करना चाहिए किे वह लोगों पर हमेशा संविधान के दायरे में प्रशासन करे। वह संविधान जो लोगों ने खुद अपने लिए अंगीकार किया है।
यहां हमें “मदद और सलाह” के सिद्धांत को नहीं भूलना चाहिए, जो संप्रभु और उसके द्वारा प्रशासित में आखिर तक संबंध बनाने वाला सिद्धांत है। इसका मतलब मंत्रीपरिषद द्वारा शक्तियों के कार्यकारी प्रशासन से होता है, जो लोगों का प्रतिनिधित्व करती है।
वाक्यांश “मदद और सलाह” को एक ऐसे अहम तत्व के रूप में पहचाना जाता है, जिसके बिना, गैर-चुने हुए लोगों की तानाशाही पर लगाम, नियंत्रण या उसे ख़त्म नहीं किया जा सकता। यह वह बुनियादी सिद्धांत हैं, जिनपर हमारे संसदीय लोकतंत्र का निर्माण हुआ। इनमें से किसी भी सिद्धांत को अलग करने से हमारा लोकतंत्र ढह जाएगा और आज़ादी के लिए हमारा संघर्ष पानी-पानी हो जाएगा।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली का नियंत्रण पहले अनुच्छेद 239 के ज़रिए होता था। इसका प्रशासन सीधे राष्ट्रपति या उसके द्वारा नियुक्त प्रशासक द्वारा होता था। केंद्र शासित प्रदेशों में सभी मामलों पर कानूनों का निर्माण अनुच्छेद 246(4) के तहत संसद करती है।
इस तरह दिल्ली में संप्रभु लोगों के पास उनके प्रशासन में कोई स्वायत्ता नहीं होती थी। इसके बाद 1962 में अनुच्छेद 239 A आता है, जो जवाबदेह विधायिका और प्रशासन का वायदा करता है, लेकिन दिल्ली को अपने दायरे से बाहर रखता है। लेकिन दूसरे केंद्रशासित प्रदेशों के लिए बनाए गए 239A के ज़रिए संसद मतलब सरकार द्वारा सीमित लोकतंत्र का उपहार दिया गया।
9 साल बाद दिल्ली के संप्रभु लोगों को विधायी और कार्यकारी लोकतांत्रिक स्वायत्तता दे दी गई। संसद ने स्थायी संविधान सभा की भूमिका निभाते हुए अनुच्छेद 239AA को लागू कर दिया।
हालांकि राज्य बनाए जाने से इंकार कर दिया गया, लेकिन एक राजनीतिक व्यवस्था बनाई गई, जहां संघीय लोकतंत्र के सारे सिद्धांतों को प्रभावी बनाया गया। दिल्ली के लोगों को संविधान ने खुद संप्रभुता दी है, ताकि संसद की चंचलता से बचा जा सके।
अगर हम अनुच्छेद 239A के तहत केंद्रशासित प्रदेशों और दिल्ली के लिए खास 239AA की तुलना करें, तो हमें दिल्ली के संवैधानिक दर्जे में अंतर पता चल जाएगा। अनुच्छेद 239AA हमारे संघीय ढांचे के संसदीय लोकतंत्र के सभी बुनियादी तत्वों का क्रियान्वयन सुनिश्चित करता है।
खुद संविधान द्वारा सीधे चुने जाने वाली विधानसभा का गठन कर एक प्रतिनिधिक लोकतंत्र, जिसमें “सामूहिक जिम्मेदारी” शामिल है, का प्रावधान कर दिया गया। यहां तक कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का विधायी क्षेत्र भी सिर्फ़ कुछ अपवादों को छोड़कर विधानसभा के जिम्मे कर दिया गया। इस तरह यह संसद की पहुंच से बाहर आ गया।
इस गठन के पीछे “प्रतिनिधिक सरकार” का विचार था, जो संविधान के अध्याय-3 में राज्यों के लिए दर्शाया गया है, जिसमें संसद भी छेड़छाड़ नहीं कर सकती।
अनुच्छेद 239AA के दो अहम पहलू
अनुच्छेद 239AA(3)(b) के तहत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के मामले में संसद को समानांतर विधायी शक्तियां दी गई हैं: टकराव की स्थिति में संसद का कानून विधानसभा पर अध्यारोही होगा।
कार्यकारी शक्तियों के क्रियान्वयन के मामले में, “मदद और सलाह” के प्रावधान की सीमा के बावजूद, लेफ्टिनेंट गवर्नर किसी मामले पर अलग नजरिया रख सकता है। वह अनुच्छेद 239AA(4) के तहत किसी मामले को राष्ट्रपति को भी भेज सकता है।
इस तरह संविधान राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को विधायी या कार्यकारी मामलों में पूरी स्वतंत्रता नहीं देता। लेकिन इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने 2018 के संवैधानिक पीठ के फ़ैसले में दो अहम पहलू पर खुद को निर्भर रखा:
यहां अनुच्छेद 239AA द्वारा प्रभावी बनाए गए बदलावों के उद्देश्य को ध्यान में रखना होगा। NCT के कार्यकारी और विधायी क्रियान्वयन के लिए जो संघीय ढांचा बनाया गया था, उसे ध्यान में रखा जाना होगा। इसका मतलब स्थानीय मुद्दों के मामले में कार्यपालिका और विधानसभा, दोनों को स्वायत्तता देना है।
लोगों की सहमति से चुनी गई सरकार को यह तय करना चाहिए कि लोगों की संप्रभुता को अक्षुण्ण बनाए रखा जा सके। दूसरे शब्दों में कहें तो संविधान और जिम्मेदार प्रशासन के प्रतिनिधिक लोकतांत्रिक स्वरूप को बचाए रखने के लिए कठोर प्रयास करने होंगे।
अनुच्छेद 239AA की व्याख्या संदर्भगत और सामंजस्यपूर्ण है, जहां हर हिस्सा दूसरे के साथ मेल करता है।
इन सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इन सवालों के जवाब देकर ऊपर की पहेली सुलझाई:
क्या अनुच्छेद 239AA को शामिल कर जो संशोधन किए गए थे, क्या वाकई उनसे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लोगों के जीवन में कुछ सार्थक बदलाव आया है या फिर आज भी यह लगो अपने प्रशासन में भागीदारी के क्रम में पहले जैसी स्थिति में ही हैं?
कोर्ट ने माना कि जो बदलाव किए गए उन्हें लोकतांत्रिक ढांचे और शक्तियों के विकेंद्रीकरण के सदंर्भ में देखना होगा। यह प्रतिनिधिक प्रशासन को लाने के लिए जानबूझकर किया गया बदलाव था।
इसे ही उद्देश्यवादी व्याख्या कहते हैं, यह महज़ कोई शाब्दिक व्याख्या नहीं है। किसी भी संवैधानिक प्रावधान का निर्माण, जिसका संविधान के उद्देश्य के साथ टकराव होता हो या फिर वह उद्देश्य को ख़त्म करता हो, उसका निरसन करना होगा। इसे ही हम “संवैधानिक नैतिकता” कहते हैं।
अनुच्छेद 239AA के विशेष प्रावधानों पर सुप्रीम कोर्ट
“सामूहिक जवाबदेही” और “मदद व सलाह” के सिद्धातों पर विशेष बल के साथ प्रतिनिधिक लोकतंत्र को लाने का उद्देश्य लोगों की संप्रभुता को दोबारा स्थापित करना था, ताकि वे स्थानीय मुद्दों पर फ़ैसले कर सकें। इससे निरंकुश शासन पर लगाम लगेगी और बिना चुने हुए लोगों के साथ-साथ केंद्र के नियंत्रण पर भी अंकुश लगेगा।
विधायी क्षेत्र को राज्य सूची में रखना संघीय सिद्धांतों का प्रतीक है, जहां स्थानीय मुद्दों का फ़ैसला स्थानीय स्तर पर ही किया जाना है।
अगर कोई बाहरी प्रशासन एक सामूहिक फ़ैसले को लागू होने से रोकता है, तो संघीय ढांचे में सामूहिक ज़िम्मेदारी की अवधारणा का ह्रास होता है। इसके चलते प्रतिनिधिक लोकतंत्र से चलने वाला लोकतांत्रिक प्रशासन भी कमज़ोर होता है। लोकतांत्रिक ढांचे का यह ह्रास “बिना चुने हुए” लेफ़्टिनेंट के ज़रिए केंद्र का नियंत्रण बढ़ाता है। इसलिए कोई भी राजनीतिक कार्रवाई, जिसका इस तरीके का अंजाम हो, वह ना केवल अलोकतांत्रिक है, बल्कि संवैधानिक नैतिकता से भी विरोधाभास रखती है। जबकि कोर्ट का कहना है कि संवैधानिक नैतिकता वह अवधारणा है जो ना केवल खास प्रावधानों के कठोर ढंग से पालन पर टिकी है, बल्कि संविधान की “आत्मा” के अनुरूप भी है।
इन पहलुओं को ध्यान में रखते हुए ही किसी को अनुच्छेद 239AA(3) और 239AA(4) का उद्देश्यात्मक ढंग से विश्लेषण करना चाहिए।
मौजूदा विवाद, अनुच्छेद 239AA (4) के विस्तार से जुड़ा है, जो लेफ़्टिनेंट-गवर्नर को किसी मामले पर लोकप्रिय सरकार से अलग मत अपनाने और उसे राष्ट्रपति के रास्ते केंद्र तक पहुंचाने का अधिकार देता है।
अगर संदर्भ को ध्यान में रखते हुए सौहार्द्रपूर्ण व्याख्या देखी जाए, तो इसका मतलब लेफ्टिनेंट गवर्नर की मनमर्जी नहीं होती। इसके बजाए अनुच्छेद 239AA में उल्लेखित लोकतांत्रिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए लेफ्टिनेंट-गवर्नर की चुनी हुई सरकार से अलग जाने की शक्ति को देखा जाना चाहिए।
असहमत होने के अधिकार का इस्तेमाल मुख्य उपबंध (4) को दबाने के लिए नहीं किया जा सकता, जो लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली परिषद को प्रशासन में प्राथमिक निर्णय लेने की शक्ति देता है।
यह प्रावधान बस NCT की कार्यकारी शक्तियों का संतुलन बनाने के लिए है, ताकि वह संविधान का पालन करे और अपनी शक्तियों का गलत इस्तेमाल ना करे। इसलिए असहमत होने का अधिकार बहुत नियंत्रित है। इसलिए लेफ्टिनेंट-गवर्नर संविधान में उल्लेखित “मदद और सलाह” से बंधा हुआ है।
यह प्रावधान कैबिनेट प्रकार की सरकार के गठन की व्यवस्था करता है, जहां कार्यकारी शक्ति NCT की सरकार में निहित है, ना कि केंद्र में।
‘संवैधानिक नैतिकता और भावना‘
केंद्र को अध्यारोही होने वाली कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शक्ति देना संवैधानिक नैतिकता और भावना के खिलाफ है। इससे सहयोगात्मक संघवाद और लोगों की संप्रभुता, जो संसद नहीं, बल्कि संविधान का उपहार हैं, उसका खात्मा हो जाएगा। यह दूसरे केंद्र शासित प्रदेशों से NCT का बुनियादी अंतर है।
वाक्यांश “किसी भी मामले” को अगर संदर्भ के साथ देखा जाए, तो इसका मतलब “हर मामला” नहीं होता। लेफ्टिनेंट गवर्नर की शक्ति अपवाद है, सामान्य प्रचलन नहीं। लेफ्टिनेंट गवर्नर को संवैधानिक मूल्यों के बारे में चिंता करनी होगी, ना कि मशीनी ढंग से व्यवहार करना होगा। उन्हें संवैधानिक नैतिकता से निर्देशित होना होगा और वह सिर्फ़ सही कारणों से ही NCT के हितों में इस कदम को उठा सकते हैं।
उन्हें प्रतिनिधिक लोकतंत्र का सम्मान करना होगा, जहां लोगों की आवाज को अनसुना नहीं किया जाता।
यहां लेफ़्टिनेंट गवर्नर को फ़ैसलों से अवगत रखना जरूरी है, ताकि वे सोच-समझकर अपना फ़ैसला ले सकें। लेकिन वो लोगों की आवाज को दबा नहीं सकते। NCT की कार्यकारी शक्तियों को अप्रत्यक्ष तरीके से केंद्र को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता, बल्कि उन्हें स्थानीय लोगों को पास ही होना होता है। स्थानीय मुद्दों से संबंधित अवरोही शक्तियां केंद्र या चुनकर ना आए हुए व्यक्ति के हाथ में नहीं दी जा सकतीं।
संशोधन अधिनियम, 2021 में 4 बड़े बदलाव
1) NCT की विधानसभा द्वारा बनाए गए किसी भी कानून में “सरकार” का मतलब लेफ्टिनेंट गवर्नर से होगा। अगर हम अध्याय-3 के सिद्धांतों को ध्यान में रखें, तो इस पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। वहां सरकार का मतलब “गवर्नर” से है, क्योंकि सारी कार्यकारी शक्तियां गवर्नर में निहित होती हैं, जिनका उपयोग मंत्रिपरिषद की “मदद और सलाह” के आधार पर होता है। यह संशोधन अपने आप में अहानिकारक है, बशर्ते यह किसी बदतर स्थिति के आने की शुरुआत ना हो।
2) दूसरा संशोधन NCT की विधायी शक्तियों को काटने का निष्ठुर प्रयास है। हमें वास्तविकता देखने के लिए पर्दा हटाना होगा। एक संघीय ढांचे में लोगों की विधायिका के पास किसी विषय पर कानून बनाने की शक्ति होती है, वहां किसी दूसरी विधायिका द्वारा अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अगर संयोग से अतिक्रमण होता है, तो संविधान उसकी अनुमति देता है।
यहां यह देखना अहम है कि जो नया कानून पारित किया गया है, क्या वो आवंटित क्षेत्र से सही तरीके से मेल खाता है या नही। घटनात्मक अतिक्रमण पूरक होता है। इसके ना होने की स्थिति में कानून निर्माण की प्रक्रिया असंभव हो जाती है।
जिन संघीय व्यवस्थाओं में विधायी शक्तियों का बंटवारा होता है, वहां विवाद के निपटारे के लिए सिद्धांत बनाए गए हैं। यह संघीय ढांचे का एक जरूरी हिस्सा है और इसे प्रभावी बनाता है। लेकिन दूसरे संशोधन ने गंभीर तरीके से NCT की विधायी शक्तियों में कटौती कर दी है। इससे अनुच्छेद 239 AA में बताए गए संघीय मूल्यों का उल्लंघन होता है।
इससे सुप्रीम कोर्ट द्वारा जिस बदलाव की प्रक्रिया को मान्यता दी गई है, उसका भी हनन होता है और वह कमजोर होती है। यहां संविधान में जो चीज निहित है, उसे संसद द्वारा कानून बनाकर नहीं नकारा जा सकता। संसद हद से हद तभी NCT विधायिका पर वरीयता पा सकता है, जब समवर्ती शक्तियों की बात हो।
3) तीसरा संशोधन भी अपने प्रशासन में लोगों की आवाज दबाने का एक और प्रयास है। इस संशोधन से NCT विधायिका को दैनिक प्रशासन के मामलों में निगरानी और मांग की शक्तियां गंभीर तरीके से प्रभावित हुई हैं।
यह प्रतिबंध राज्य सूची के मामलों में भी लागू होते हैं। यह निश्चित तौर पर गंभीर चिंता का विषय है, क्योंकि इससे NCT के लोगों और विधायिका के प्रति “सामूहिक जिम्मेदारी” खत्म हो रही है।
संसद द्वारा केंद्र या उसके द्वारा नियुक्त लेफ्टिनेंट गवर्नर की मदद कर बड़े स्तर की संवैधानिक अनैतिकता की गई है। विधायिका की रोजाना के मामलों का आलोचनात्मक विश्लेषण अनुच्छेद 239AA द्वारा दी गई प्रतिनिधिक लोकतंत्र की एक अहम विशेषता है। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों के चलते केंद्र सरकार की NCT से संबंधित जिन शक्तियों में कटौती हुई थी, यह उन्हें पाने के खुल्लेआम प्रयास हैं।
4) जब उपरोक्त संशोधनों का 2021 के कानून के चौथे संशोधन के साथ विश्लेषण किया जाता है, तो सावधानी की घंटी बजती है। NCT की सरकार को अब अनुच्छेद 239 AA के तहत लेफ्टिनेंट गवर्नर की पूर्वानुमति की जरूरत होती है, जहां वह सरकार के फ़ैसले से असहमत हो सकता है।
इसके गंभीर नतीजे हो सकते हैं। फ़ैसले के मुताबिक़, किसी फ़ैसले को सहमति नहीं माना जा सकता। सबसे बेहतर यह हो सकता है कि लेफ्टिनेंट गवर्नर को सूचित रखा जाए, ताकि वो उपबंध 4 के मुताबिक़ फैसला ले सके।
इन सीमित उद्देश्य के लिए अलग से किसी कानून की जरूरत नहीं थी, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से यह पहले ही प्रभावी हो चुका था। यह निश्चित तौर पर पर्दे के पीछे से NCT की विधायी और कार्यकारी शक्तियों को नियंत्रित करने और उपबंध 4 की जरूरतों को लागू करने की कोशिश है, जिसके तहत किसी मामले को राष्ट्रपति (केंद्र पढ़िए) के पास भेजा जा सकता है, जिससे लेफ्टिनेंट गवर्नर के पास पूरी ताकत के इस्तेमाल की शक्ति उपलब्ध हो जाती है। हर विधायिका के पास खुद को नियंत्रित करने की शक्ति होती है। लेकिन अब इस शक्ति की कटौती लेफ्टिनेंट गवर्नर की सहूलियत के लिए की जा रही है।
अनुच्छेद 239AA के तहत NCT को जो हासिल हुआ है, ताजा प्रयास उसे और इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों के प्रभाव को ख़त्म करने की दिशा में हैं। ऐसा लगता है जैसे फ़ैसलों की कद्र करने के बजाए केंद्र उनकी अवमानना करने पर उतारू है। यहां परिणाम सिर्फ लोगों की संप्रभुता को छीनना ही नहीं है, बल्कि
सौज- न्यूजक्लिकः लेखक सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील हैं। यह उनके निजी विचार हैं। इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें–