किसान आंदोलन की पूरे देश में हलचल है। किसान आंदोलन के चलते न सिर्फ किसान बल्कि एक बहुत बडा वर्ग उद्वेलित है जिसमें युवा वर्ग की भागेदारी एक नए बदलाव का संकेत दे रही है। विगत लगभग 6 माह से जारी यह आंदोलन एक नया इतिहास रच रहा है जिसके भीतर से उठती ध्वनियों में एक नई स्वरलहरी की अनुगूंज है जिसे समझना ज़रूरी है । इधर 25-30 वर्षों में पली बढ़ी नौजवान पीढ़ी के वैश्विक नवउदारवाद व मुक्त बाज़ार से हुए स्वप्नभंग से हाशिए पर जाती मार्क्सवादी पार्टियों को मार्क्सवाद को गांधी मार्ग के जरिए भारत में नई रणनीति के तहत क्रियान्वयन से संभवतः नई संजीवनी मिल सकती है ।
मेरी अल्प बौद्धिक समझ और थोड़े बहुत अध्ययन के अनुसार मार्क्सवाद के समग्र चिंतन का केंद्रीय चरित्र या धूरी जिसे कह सकते हैं वो है ‘द्वंद्वात्मकता’। मार्क्स की द्वंद्वात्मक दृष्टि में विश्व की तमाम वस्तुएं यहां तक कि घटनाएं व गतिविधियां भी उनकी गति, उनके द्वंद्व और परिर्वतन पर निहित है जिसके अंतर्विरोधों को मानवीय संदर्भ में हल करने के लिये ‘द्वंद्वात्मकता’ एक अनिवार्य दृष्टि है।
हमारे देश मे मार्क्सवाद अभी भी आम जनता के लिए रहस्यमयी बना हुआ है । वो पार्टियां जो मार्क्सवादी हैं सैद्धांतिक रूप से तो सर्वहारा वर्ग की पैरोकार होने की कोशिश करती हैं मगर व्यवहारिक रूप से उनसे जुड़ नही पाई हैं । सर्वहारा वर्ग के बीच वे जिस बौद्धिक आतंक के साथ जुड़ना चाहती हैं वो उनसे इसी भय से दूर होता जाता है । भारतीय परिस्थितियों में श्रमिको और विचारधारा की यह द्वंद्वात्मकता ही इन पार्टियों की सबसे बड़ी समस्या है। आज परिस्थितियां बड़ी तेजी से बदल रहीं हैं मगर मार्क्सवादी पार्टियों में उस मुताबिक बदलाव नज़र नहीं आ रहे जिसकी धमक चमक के चलते बीसवीं सदी में युवाओं के बीच मार्क्सवाद सबसे ज्यादा लोकप्रिय था , बल्कि युवाओं में एक अजब सा जूनून था
किसान आंदोलन की पूरे देश में हलचल है। किसान आंदोलन के चलते न सिर्फ किसान बल्कि एक बहुत बडा वर्ग उद्वेलित है जिसमें युवा वर्ग की भागेदारी एक नए बदलाव का संकेत दे कही है। विगत लगभग 6 माह से जारी यह मोर्चा एक नया इतिहास रच रहा है जिसके भीतर से उठती ध्वनियों में एक नई स्वरलहरी की अनुगूंज है जिसे समझना ज़रूरी है । इधर 25-30 वर्षों में पली बढ़ी नौजवान पीढ़ी के वैश्विक नवउदारवाद व मुक्त बाज़ार से हुए स्वप्नभंग से हाशिए पर जाती मार्क्सवादी पार्टियों को मार्क्सवाद को गांधी मार्ग के जरिए भारत में नई रणनीति के तहत क्रियान्वयन से संभवतः नई संजीवनी मिल सकती है ।
मार्क्सवाद के साथ गांधी मार्ग का समन्वय समय की मांग है जिस पर मार्क्सवादियों को गंभीरता से विचार करना चाहिए । सैद्धांतिक रूप से गांधीवाद के साथ समन्वय निश्चित रूप से काफी कठिन है मगर काल स्थान और परिवेश के मुताबिक यदि इससे आपके आंदोलन को स्वीकृति व समर्थन हासिल होता हो तो जमीनी लड़ाई के लिए गांधी मार्ग को अपनाने में कोई दुविधा भी नहीं होनी चाहिए ।
मार्क्सवादी पार्टियों के लिए भारतीय जन मानस को समझना बहुत जरूरी है जिस पर इन्होंने कभी विचार नहीं किया। सैद्धांतिक जड़ता किसी भी विचारधारा के प्रगतिशील प्रवाह का सबसे बड़ा रोड़ा होता है। भारत में मार्क्सवादी पार्टियां प्रगतिशील कार्य प्रणाली की बजाय आंख बंद कर जड़ सिद्धांतों पर ही चलती रहीं जिसका खामियाजा आज भुगतना पड़ रहा है।
आज श्रम और श्रमिक की परिभाषाएं तक बदलती जा रही हैं। जिस 8 घंटे काम के लिए संघर्ष किया गया था । वो अब सिर्फ सरकारी कार्यालयों तक ही सिमटकर रह गया है। कॉरपोरेट कल्चर में काम के घंटों का कोई हिसाब नही रह गया और तो और कॉरपोरेट के इस श्रम विरोधी अन्याय के खिलाफ कोई संगठन खड़ा करने तक की हिमाकत कर सकते हैं।
नई सदी में परंपरागत श्रमिको के साथ साथ नवउदारवादी विश्व में एक नए श्रमिक वर्ग का उदय हुआ है जिस पर मार्क्सवादी पार्टियों को नई तरह विचारकर अपनी रणनीति बनानी होगी।
बीसवीं सदी के औजार और उपकरण भोथरे हो चुके हैं । नई सदी में इन्हे नई धार देनी होगी।मार्क्सवाद की विचारधारा की मूलभावनाओं को कायम रखते हुए जनस्वीकार्यता के नए उपकरण तलाशने होंगे।
जीवेश प्रभाकर
भारत जैसे देश में यहां के जमीन से जुड़े प्रश्न हल करने के लिए गांधीवाद अपरिहार्य है। फिर भी हम मार्क्स का चिंतन समझने का प्रयास निरंतर जारी रखेंगे, यही आज का वास्तव है। बधाई!