हिंदुओं को आँकड़ों में बदलने का षड्यंत्र क्या है? क्यों है? -अपूर्वानंद

हिंदुओं को आँकड़ों में बदल कर या उन्हें मात्र एक जनसंख्यात्मक समूह की इकाई में शेष करके उन्हें व्यक्ति के तौर पर किसी अधिकार की इच्छा से वंचित किया जा रहा है। जब कोई मुख्यमंत्री कहता है कि आँकड़ों का खेल न खेलें, इससे मुर्दा ज़िंदा नहीं हो जाएँगे तो वह क्या कहना चाहता है? क्यों मारे जा रहे लोग गिनती में नहीं लिए जा रहे हैं? आप मुझे किसी गिनती में शामिल ही नहीं करेंगे तो मेरा वजूद क्या होगा?

“2,15,523: मेरे पिता भी आख़िर इस संख्या में शामिल हो गए

यह ट्वीट सिर्फ़ यहाँ तक नहीं। पिता की मृत्यु की सूचना का यह तरीक़ा नाटकीय प्रतीत हो सकता है। लेकिन बेटे ने ट्वीट की आगे की कड़ियाँ पढ़ने का अनुरोध उनसे किया जिनकी नज़र इस सूचना पर पड़ी होगी। यह संख्या जाहिर है उन लोगों की है जो उस क्षण तक भारत में कोरोना वायरस से संक्रमित होने के बाद हस्पताल न मिलने, ऑक्सीजन के लिए भटकते हुए, दवा के अभाव में मारे गए।

अपने पिता को साँस की इस जद्दोजहद में खोने के बाद बेटे की इच्छा है कि लोग जानें कि वे 2,15,523 में से सिर्फ एक संख्या नहीं। उसने बतलाया कि उसके पिता वायुसेना में मिग लड़ाका विमान उड़ानेवाले कुशल और बहादुर पाइलट थे। लेकिन वे बेटे के सबसे अच्छे दोस्त भी थे। ऐसे पिता जिन्होंने अपने बेटे के प्रेम प्रसंग पर भृकुटी नहीं तानी बल्कि उसे सुगम बनाने में मदद की। बेटे के होनेवाले सास-ससुर की हिचकिचाहट को उनसे मिलकर दूर किया। वह जो सरकारी खाते में या इस महामारी का विश्लेषण करनेवालों के लिए महज एक संख्या है, वह प्रेम से धड़कता हुआ दिल था, बेटा यह बताना चाहता है। वह अनुरोध करता है कि आप थोड़ा वक़्त उसकी ट्वीट की कड़ियों को पढ़ने में लगाएँ। बचपन से बेटे की अलग-अलग उम्र में पिता के उसके साथ की तस्वीरों को देखकर उस अभाव को महसूस करें जो बेटे के जीवन में स्थायी हो गया है।

हर संख्या एक चेहरा है। एक चेहरा है। एक दिल है। एक ही नहीं कई रिश्तों को अपने भीतर समेटे हुए है। वह एक कहानी भर नहीं पूरा उपन्यास है। व्यक्ति का संख्या में अमूर्त हो जाना उसके आत्मीयों, परिजनों के लिए सबसे बड़ा सदमा है। इसीलिए इस अभाव को, अनुपस्थिति को दर्ज किया जाना चाहिए, स्वीकार किया जाना चाहिए। एक व्यक्ति इस देश, राष्ट्र के कुल व्यक्तियों का कितना प्रतिशत होगा? उसके न रह जाने से क्या इस विशाल संख्या को कोई फर्क पड़ेगा?

संख्यात्मक भावनिरपेक्षता से लैस भारत के स्वास्थ्य मंत्री ने पत्रकारों को भी रोजाना आँखों के आगे दीख रही मौतों से, सड़कों पर दम तोड़ते लोगों के दृश्य से विचलित न होने को कहा क्योंकि इस संक्रमण के दौर में भारत में मृत्यु की दर विश्व में अन्य देशों की मृत्यु दर से कहीं कम है। यानी वे पिता, माता, पति, पत्नी, प्रेमी, मित्र को खोने पर अपना आपा खोनेवाले लोगों को देश में भावनात्मक अस्थिरता फैलाने से सावधान कर रहे हैं। उनके पास आँकड़े का आश्वासन है।

लिन या हिटलर के कंसंट्रेशन कैंप में सबसे पहले चेहरा छीनकर कैदी को संख्या में बदल दिया जाता था। शरीरों पर उस संख्या का गोदना गोदकर कैदी को सन्देश दिया जाता था कि इस अथाह संख्या सागर में वह एक बूँद की हैसियत भर रखता है। व्यक्ति को संख्या में शेष कर देना उसका सबसे बड़ा अपमान है।

इस समय संख्या आश्वासन है। अरब से ऊपर की आबादी में जो आपका आत्मीय मर गया, वह 0.00001% भी तो नहीं था। उसके न रह जाने के बाद भी संख्या का यह समन्दर खाली नहीं होता! स्वास्थ्य मंत्री की भावनारिक्त देहमुद्रा इस बेटे को मानो यही कह रही थी।

इसी समय फिर से संख्यात्मक असुरक्षा का मनोविज्ञान भी सक्रिय हो गया है। देश विदेश के अख़बारों और टी वी पर जलती हुई चिताओं, सामूहिक दाह-संस्कार, अग्नि की प्रतीक्षा करते हुए पार्थिव शरीरों की कतारों के चित्रों को लेकर आपत्ति जाहिर की जा रही है। कल एक संपादक मित्र ने बतलाया कि कुछ व्हाट्सऐप समूहों में यह चर्चा शुरू करने की कोशिश की जा रही है कि आखिर क्या कारण है कि हिंदुओं की मृत्यु का ही इतना प्रचार किया जा रहा है। मनोचिकित्सकों के एक समूह का बयान आया है कि इस प्रकार मृत्यु के प्रसारित किए जाने से लोगों पर मनोवैज्ञानिक रूप से प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इसी के साथ सूक्ष्मता से यह भी कहने का प्रयास किया जा रहा है कि चिताओं की ऐसी तस्वीरों से भारत के बाहर की दुनिया में भारत, बल्कि हिंदुओं की छवि धूमिल हो रही है क्योंकि बाहर के लोगों को दाह-संस्कार को लेकर सम्मान नहीं है। वे इस प्रचार के कारण हिंदुओं को असभ्य मानेंगे।

एक धीमा प्रचार यह भी आरम्भ हो गया है कि आखिर हिंदू ही ज़्यादा क्यों मर रहे हैं! अभी यह हल्की कानाफूसी भर है लेकिन अतीत के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि आगे इसे लेकर हिंदुओं में एक संख्यात्मक असुरक्षाबोध भरने की कोशिश की जाएगी। यह कि आख़िर कौन सी साज़िश थी जिसके कारण हिंदू ही ज़्यादा मरे, मुसलमान या सिख या ईसाई नहीं।

अभी यह चर्चा असंवेदनशील लग सकती है लेकिन इस पर अभी ही विचार करना आवश्यक है। यह इसलिए कि जब मृत्यु की लहर थमेगी तब जनसंख्यात्मक असुरक्षा की राजनीति का नया दौर शुरू होगा। जनसंख्या में जो कमी आई है उसे लेकर सामूहिक क्रोध पैदा करने का अभियान चलाया जाएगा। जनसंख्यात्मक प्रतिद्वंद्विता की तरफ़ समाज को धकेला जाएगा। व्यक्ति के अभाव को एक जनसंख्यात्मक षड्यंत्र का परिणाम बताकर उस अभावजनित क्षोभ को उस आबादी के ख़िलाफ़ मोड़ने की कोशिश की जाएगी जो जाने क्यों और किस तरह खुद को बचाए रखने में कामयाब हो गई है। इसके कारण पैदा हुए जनसंख्यात्मक असंतुलन को हिंसा के ज़रिए ही ठीक किया जा सकता है, यह संदेश दिया जाएगा। 

जनसंख्यात्मक असुरक्षा और जनसंख्यात्मक ईर्ष्या की राजनीति के कारण ही वह राज्य-नीति पैदा हुई है जो मरते हुए लोगों को संख्या में बदलकर दावा करती है कि अभी तो करोड़ों शेष हैं फिर शिकायत क्या!

एक तरफ़ वह उन्हें यह कहती रही है कि उनके ख़िलाफ़ जनसंख्यात्मक षड्यंत्र किया जा रहा है, उनके विरुद्ध एक दीर्घकालीन जनसंख्यात्मक युद्ध छेड़ दिया गया है और अपनी जनसंख्या में आनुपातिक वृद्धि ही इस समय उनका धर्म है। इसका एक आशय ‘दूसरी’ जनसंख्या को हर प्रकार से नियंत्रित करना है। इस तरह यह राजनीति उनसे व्यक्तिबोध छीन लेती है। एक बार व्यक्ति से संख्या में बदल जाने के बाद आप व्यक्ति के जाने का अफ़सोस भी नहीं कर सकते, इस राजनीति पर आधारित राज्य-नीति से उसे लेकर शिकायत भी नहीं कर सकते।

इसीलिए आज के शासक दल में एक तरह का इत्मीनान दीखता है। वह संभवतः निश्चिंत है कि पिछले सौ वर्षों से अधिक से हिंदू समाज में जो जनसंख्यात्मक व्यग्रता भर दी गई है और पिछले 7 वर्षों में राजकीय संस्थाओं के सहारे उसे जैसे सक्रिय किया जा सका है, वह आगे भी उत्तेजित की जा सकती है।

हिंदुओं को आँकड़ों में बदल कर या उन्हें मात्र एक जनसंख्यात्मक समूह की इकाई में शेष करके उन्हें व्यक्ति के तौर पर किसी अधिकार की इच्छा से वंचित किया जा रहा है। जब कोई मुख्यमंत्री कहता है कि आँकड़ों का खेल न खेलें, इससे मुर्दा ज़िंदा नहीं हो जाएँगे तो वह क्या कहना चाहता है? क्यों मारे जा रहे लोग गिनती में नहीं लिए जा रहे हैं? आप मुझे किसी गिनती में शामिल ही नहीं करेंगे तो मेरा वजूद क्या होगा?

आँकड़ों के इस अपमान से हिंदू खुद को तभी बचा सकता है, जीवन और मृत्यु की गरिमा भी वह तभी वापस हासिल कर सकता है जब वह इस जनसंख्यात्मक इकाई में खुद को शेष करने के षड्यंत्र को समझकर उसका मुक़ाबला करने को तत्पर हो।

अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं। ये उनके निजी विचार हैं। सौज- सत्यहिन्दी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *