कोविड-19 से लड़ाई अगर युद्ध स्तर पर लड़ी जा रही है तो लोगों को मुफ्त में टीका क्यों नहीं मुहैया करवाया जा रहा?मोदी सरकार के तमाम फैसलों में सबसे अविचारपूर्ण है- टीके के वितरण का तथाकथित ‘उदारीकरण’ करने का उसका फैसला। पहले केंद्र सरकार, दोनों टीका उत्पादकों की अकेली खरीददार थी, जो उनसे 150 रु0 प्रति खुराक के हिसाब से टीका खरीद रही थी। इसके बाद, एक तो सरकार खुद ही लोगों को ये टीके मुफ्त लगवा रही थी और इसके अलावा टीके लगवाने के लिए दूसरे चैनलों का भी इस्तेमाल कर रही थी। इसमें निजी अस्पताल भी शामिल थे, जो टीके के लिए 250 रु0 प्रति खुराक ले रहे थे क्योंकि उन्हें केंद्र सरकार को टीके का दाम भी देना पड़ रहा था।
लेकिन, टीकों के वितरण के तथाकथित ‘उदारीकरण’ के जरिए, उसने अचानक राज्य सरकारों और निजी अस्पतालों को ऐसी स्थिति में धकेल दिया है, जहां उन्हें सीधे इन टीका उत्पादक फर्मों से टीके खरीदने हैं और वह भी उनकी ही तय की हुई कीमतों पर।
एक ओर तो टीके की कमी है और दूसरी ओर महामारी का प्रकोप तेजी से बढ़ रहा है, जिसके चलते जल्द से जल्द टीकाकरण जरूरी हो गया है। इन हालात में टीका उत्पादक फर्मों ने सरकार के इस उपहार को हाथों-हाथ लिया है और बड़ी खुशी से टीकों के लिए ऐसे अनाप-शनाप दामों का एलान कर दिया है, जिनका उनकी उत्पादन लागत से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। (बेशक, बाद में उन्होंने राज्य सरकारों से वसूल किए जाने वाले दाम में कुछ कमी का भी एलान कर दिया जो वास्तव में यही दिखाता है कि उन्होंने टीके के दाम अपनी मनमर्जी से तय किए हैं, न कि किसी तार्किक आधार पर।)
इसके बाद से कई राज्य सरकारों ने मुफ्त टीके मुहैया कराने का एलान तो किया है। लेकिन, यह तो वक्त ही बताएगा कि राज्यों की नाजुक वित्तीय हालत, उन्हें वाकई यह करने भी देती है या नहीं। बहरहाल, निजी अस्पताल जरूर टीके के बढ़े-चढ़े दाम की भरपाई, टीके लगाने के लिए अनाप-शनाप फीस वसूल करने के जरिए कर लेंगे। इस तरह आबादी के अच्छे-खासे हिस्से को, कोविड के खिलाफ टीके लगवाने के लिए, अच्छी-खासी रकम खर्च करनी पड़ रही होगी।
बहुत से लोग दलील देंगे कि निजी अस्पतालों की सेवाओं का उपयोग करने वाले कुछ खाते-पीते लोगों से अगर टीके लगाने का पैसा लिया जा रहा है, तो इसमें हर्ज ही क्या है? शासन क्यों इन लोगों के टीकाकरण का बोझ उठाए? इस दलील का जवाब, दो स्तर पर दिया जा सकता है।
पहला तो यही कि चूंकि निकट भविष्य में टीके की कुछ कमी तो रहने ही जा रही है, उस सूरत में यदि सीमित स्टॉक में से टीके हासिल करने के लिए राज्य सरकारों और निजी अस्पतालों के बीच होड़ हो रही होगी (याद रहे कि उनके बीच वितरण के लिए देश के कुल टीका उत्पादन का आधा ही रहेगा क्योंकि आधा तो केंद्र सरकार के लिए सुरक्षित कर दिया गया) तो यह स्वत:स्पष्टï है कि इन टीकों की आपूर्ति का झुकाव, निजी अस्पतालों की ओर ही ज्यादा रहेगा क्योंकि उन्हें टीका बेचना, टीका उत्पादकों के लिए ज्यादा लाभकारी होगा। इसलिए, राज्य सरकारों को टीकों की और ज्यादा कमी का सामना करना पड़ेगा और यह कुछ गरीबों को भी टीके के लिए निजी अस्पतालों की शरण लेने के लिए मजबूर कर रहा होगा।
राज्य सरकारों और निजी अस्पतालों के बीच, टीकों के हिस्से के वितरण के अनुपात यानी यह तय किए बिना ही कि दोनों के बीच बंटने वाले हिस्से में से किसे कितना हिस्सा मिलेगा, उनके लिए दो अलग-अलग दाम तय करना, सरासर अविचारपूर्ण है। लेकिन, मोदी सरकार ने ठीक यही तो किया है।
दूसरी और कहीं ज्यादा बुनियादी बात यह है कि मुफ्त टीकाकरण का प्रावधान, शासन द्वारा सभी के जीने के अधिकार को स्वीकार किए जाने को दिखाता है। जीने का अधिकार, एक सार्वभौम अधिकार है। इसकी सार्वभौमता, सबके लिए समान कीमत के जरिए ही अभिव्यक्त हो सकती है और ऐसी एक समान कीमत, शून्य ही हो सकती है। इससे ज्यादा कोई भी कीमत, वह चाहे समान हो या असमान हो, अलग-अलग लोगों पर उनकी आमदनी की स्थिति के हिसाब से अलग-अलग असर डालेगी। यह निहितार्थत: यही कहना होगा कि शासन, अलग-अलग होगों के जीवन का अलग-अलग मूल्य लगा रहा है। इस तरह, सबके लिए मुफ्त टीकों का प्रावधान, इस प्रस्थापना की अभिव्यक्ति का इकलौता तरीका है कि शासन की नजरों में सभी की जिंदगियों का मूल्य बराबर है।
जिस तरह वोट देने का अधिकार चूंकि एक निश्चित आयु से अधिक के सभी नागरिकों का सार्वभौम अधिकार है और इसलिए उसके लिए किसी तरह के भुगतान की शर्त नहीं लगायी जा सकती है (क्योंकि भुगतान की ऐसी कोई भी शर्त वोट देने के अधिकार की समानता का और इसलिए सार्वभौमिकता का उल्लंघन करेगी), उसी तरह से जीवन का अधिकार, जिस पर कोविड-19 के खिलाफ टीकाकरण आधारित है, सब को हासिल होने के लिए, पूरी तरह से मुफ्त होना ही चाहिए।
बेशक, शासन को इसके लिए संसाधन जुटाने होंगे और जाहिर है कि इसके लिए शासन अलग-अलग लोगों से अलग-अलग हिसाब से कर वसूल कर रहा होगा। लेकिन, कराधान के इस अंतर को किसी भी तरह से, टीकाकरण तक लोगों की पहुंच से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। टीकाकरण, सार्वभौम तथा मुफ्त ही होना चाहिए और कराधान को एक अलग ही मुद्दा रहना चाहिए। और अगर टीके को सबसे लिए मुफ्त होना है, तो इसका एक ही तरीका हो सकता है कि केंद्र सरकार ही टीके की सारी की सारी आपूर्ति को खरीदे और विभिन्न चैनलों से, जिसमें निजी अस्पताल भी शामिल हैं, जनता के बीच इन टीकों का वितरण कराए। निजी अस्पताल भी लोगों को मुफ्त ही टीका लगाएं न कि उसके लिए 250 रु0 की भी कथित नाममात्र की राशि वसूल करें, जो कि पहले वसूल की जा रही थी।
तीन-स्तरीय कीमतों की व्यवस्था (केंद्र, राज्य तथा निजी अस्पतालों के लिए अलग-अलग कीमत) के लागू किए जाने से पहले तक, केंद्र सरकार 150 रु0 प्रति खुराक के हिसाब से सारे टीके खरीद रही थी। चूंकि उसके बाद से लागत मूल्य में शायद ही कोई बढ़ोतरी हुई होगी, उसी दाम में अब भी केंद्र सरकार थोक में टीके खरीद सकती है। अब मान लीजिए कि देश में पूरे 120 करोड़ लोगों को टीके की दोनों खुराक लगायी जानी हों, तब भी टीकों का कुल खर्चा 36,000 करोड़ रु0 ही बैठता है।
तेरह राजनीतिक पार्टियों के नेताओं ने नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर सुझाव दिया है कि सरकार के बजट में आम टीकाकरण के लिए जो राशि रखी गयी है, उसका इस्तेमाल कोविड-19 के खिलाफ जनता का टीकाकरण करने के लिए किया जाना चाहिए। लेकिन, अगर सरकार ऐसा भी नहीं करना चाहती है और इसके बजाए इस काम के लिए अतिरिक्त संसाधन जुटाना चाहती है, तो उसे राजकोषीय घाटे को बढ़ाकर, कोविड-टीकाकरण पर जरूरी खर्चा करना चाहिए। अगर इस अतिरिक्त राजकोषीय घाटे की भरपाई करने के लिए बाद में साधन जुटाए जा सकें तो और भी अच्छा है। वर्ना 36,000 करोड़ रु0 का अतिरिक्त राजकोषीय घाटा भी अपने आप में इतना थोड़ा है कि इससे, किसी को चिंता होने का कोई कारण नहीं है। यह रकम, देश के जीडीपी के 0.2 फीसद से भी कम ही बैठेगी। अगर सरकार को वित्तीय बाजारों की प्रतिक्रिया का डर सता रहा हो तो, राजकोषीय घाटे में इतनी मामूली बढ़ोतरी पर तो वित्तीय बाजारों का ध्यान तक नहीं जाएगा। वैसे भी, जब करोड़ों लोगों की जिंदगियां दांव पर लगी हुई हैं, वैश्विक वित्तीय पूंजी की प्रतिक्रियाओं को लेकर चिंतित होना तो, अपने आप में अपराध ही माना जाएगा।
फिर भी, कोविड-19 के टीके के वितरण का ‘उदारीकरण’ करने की सरकार की इस हरकत की, अगर इस कदम की शुद्घ अमानवीयता को छोडक़र, कोई भी दूसरी सफाई खोजनी हो तो, वह यही हो सकती है कि सरकार को विश्व वित्तीय पूंजी की प्रतिक्रिया की चिंता है। चूंकि कोरोना वाइरस की दूसरी लहर, पहली लहर के विपरीत जो कि बुजुर्गों के लिए ज्यादा घातक साबित हुई थी, युवाओं के लिए भी उतनी ही घातक है जितनी बुजुर्गों के लिए, टीकाकरण के अभियान का विस्तार कर, उसके दायरे में युवाओं को भी लाया जाना जरूरी था। इसलिए, कहा जा सकता है कि सरकार को इसका डर था कि टीकाकरण की पुरानी व्यवस्था को ही पैमाना बढ़ाकर जारी रखा जाता है तो, उससे राजकोषीय घाटा और बढ़ जाएगा और इससे वैश्विक वित्तीय पूंजी नाराज हो जाएगी। लेकिन, अगर कोई सरकार वैश्विक वित्तीय पूंजी की प्रतिक्रियाओं को अपने नागरिकों की जिंदगियों की चिंता के ऊपर रखती है, तो इसे तो राष्ट्र के साथ विश्वासघात ही कहा जाएगा।
आखिर में, टीकों की आपूर्ति का सवाल। केंद्र सरकार ने, कोवीशील्ड के उत्पादक, एसआइआइ को 3,000 करोड़ रु0 और कोवैक्सीन के उत्पादन, भारत बायोटैक को 1,500 करोड़ रु0 दिए हैं, अपनी उत्पादन क्षमताओं का विस्तार करने के लिए। लेकिन, यह अभी तक स्पष्टï नहीं है कि वे अपनी उत्पादन क्षमता का विस्तार कितनी अवधि में करेंगे और कैसे उनकी बढ़ती हुई उत्पादन क्षमता, हमारे देश के टीकाकरण के कार्यक्रम से कदम से कदम मिलाकर चलेगी। इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर सरकार ने जनता को विश्वास में ही नहीं लिया है।
इसके अलावा दो समस्याएं और हैं। एक तो यह कि एसआइआइ ने टीके बनाने के लिए ब्रिटेन में 24 करोड़ पाउंड का निवेश करने के लिए, ब्रिटिश सरकार के साथ एक समझौते पर दस्तखत किए हैं। चूंकि भारत की कोविड महामारी की स्थिति इस समय दुनिया भर में बदतरीन मानी जा रही है, भारत के लिए टीके के उत्पादन में किसी भी तरह के स्थगन को और उसके लिए टीके के उत्पादन के प्रयासों तथा संसाधनों के अन्य बाजारों की ओर किसी भी तरह मोड़े जाने को, रोकना ही होगा। इसके लिए, एसआइआइ की गतिविधियों पर, सरकार की निगरानी जरूरी हो जाती है। एसआइआइ के प्रबंधन में सरकार के प्रतिनिधित्व के माध्यम से, यह सुनिश्चित किया जा सकता है। इसकी जरूरत इसलिए और भी ज्यादा है कि सरकार ने एसआइआइ को 3,000 करोड़ रु0 दिए हैं और यह पैसा किस तरह खर्च किया जाता है, इस पर सरकार को नजर तो रखनी ही चाहिए। ठीक ऐसी ही व्यवस्था भारत बायोटैक के मामले में भी करनी होगी।
चूंकि एस्ट्राजेनेका पहले ही योरपीय यूनियन के लिए आपूर्ति की अपनी वचनबद्घताओं को पूरा करने में पिछड़ चुकी है, इसकी संभावनाओं को भी खारिज कर के नहीं चला सकता है कि एसआइआइ और भारत बायोटैक भी सार्वजनिक धन लेने के बाद भी, उसी तरह से तय कार्यक्रम के मुताबिक आपूर्तियां करने में हाथ खड़े कर सकते हैं। इसलिए, प्रबंधन में उपयुक्त पदों पर सरकार के प्रतिनिधित्व के जरिए, इन टीका उत्पादक कंपनियों के प्रबंधन में कम से कम सरकार की निगरानी तो सुनिश्चित की ही जानी चाहिए, ताकि यह भी सुनिश्चित किया जा सके कि ये कंपनियां मुनाफाखोरी न कर के 150 रु0 प्रति खुराक के हिसाब से ही सरकार को अपने टीके मुहैया कराएं और आपूर्ति की समय सूची का पालन भी सुनिश्चित किया जाए।
दूसरे, टीकों का उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकार को इन दोनों फर्मों से आगे भी जाना होगा। उसे अनिवार्य लाइसेंसिंग का सहारा लेना चाहिए और नये टीका उत्पादन कारखाने, बेहतर होगा कि सार्वजनिक क्षेत्र में ही, स्थापित करने चाहिए ताकि उनसे 150 रु0 प्रति खुराक के हिसाब से टीका हासिल कर सके।
कोविड-19 का संकट तो, युद्घ के हालात जैसा ही है। उससे निपटने के लिए भी ऐसे कदमों की जरूरत है, जो युद्घ के लिए जरूरी कदमों जैसे ही दूर तक असर करने वाले हों।
सौज- न्यूजक्लिक- अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।