सरकार गठित संस्थाओं में पद हासिल करने के लिए पदलोलुप और मौकापरस्त चारण भाट नुमा लोग मंत्रियों के दरबार में हाजिरी बजाते रहते हैं। ज्यादातर सत्ता भी चारण भाटों का सानिध्य पसंद करती है।मगर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने जिस तरह संस्कृति परिषद के गठन की व्यापक परिकल्पना की है और उत्साह दिखाया है उससे यह उम्मीद की जा सकती है कि इस परिषद में यथायोग्य विद्वान विशेषज्ञ विभिन्न पीठों, अकादमियों, परिषदों में नियुक्त किए जाएंगे।
छत्तीसगढ़ सरकार संस्कृति परिषद का गठन करेगी। एक लम्बे अरसे और बड़ी शिद्दत से प्रदेश के कला, साहित्य संस्कृति से जुड़े सभी सुधिजन इसकी जरूरत महसूस कर रहे थे। किसी भी राज्य में साहित्य संस्कृति का विकास उसकी समृद्धि और वैभव का प्रतीक होता है ।राज्य बनने के पश्चात छत्तीसगढ़ के साहत्यि संस्कृति रंगकर्म, लोक कला के विकास और उन्नयन के साथ साथ इन क्षेत्रों में सृजनात्मक व शोध कार्य की संभावनाओं के मद्देनजर इसकी जरूरत महसूस की जाती रही है।
छत्तीसगढ़ गठन के पश्चात से इस ओर कम ही ध्यान दिया गया। राज्य गठन के शुरुवाती दौर में इस पर बहुत चर्चा हुई, सलाहकार की नियुक्ति भी की गई मगर न सलाहकार ने कोई रुचि दिखाई न सरकार ने और दो दशक यूं ही बीत गया। इस दौरान विभिन्न अकादमी, परिषद और आयोग फुटकर में गठित होते रहे और कई दरबारी लाल उपकृत होते रहे। उम्मीद करते हैं अब ऐसा नहीं होगा।
बहरहाल यह बहुत खुशी की बात है कि राज्य गठन के दो दशकों के पश्चात ही सही मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अब खुद रूचि लेकर इनके पुनर्गठन की दिशा में व्यापक स्तर पर एक सुनियोजित योजना को मूर्तरूप देने की दिशा में पहल की है। इसका प्रारूप तैयार भी हो गया है। पहले कभी सार्वजनिक रूप से इसके गठन,प्रारूप आदि की कोई जानकारी सार्वजनिक नहीं रही, संभव है इस पर वृहत पैमाने पर विद्वजनों से राय मशविरा हुआ होगा, मगर ऐसी भी कोई पुख्ता जानकारी सार्वजनिक नहीं है। इस पर विद्वजनों एवं विशेषज्ञों से सार्वजनिक मंचों पर चर्चा की जानी चाहिए।
छत्तीसगढ़ संस्कृति परिषद की कल्पना एक छत की तरह की गई है। खबरों के मुताबिक मुख्यमंत्री परिषद के अध्यक्ष एवं संस्कृति मंत्री उपाध्यक्ष सहित परिषद में कुल 9 सदस्य होंगे। सदस्यों में जनप्रतिनिधि, प्रशासनिक अधिकारी एवं प्रतिष्ठित विद्वजन मनोनीत किए जायेंगे। इस परिषद के अंतर्गत कला संस्कृति की सभी इकाइयों को समाहित किया जाएगा। मुख्य मंत्री की मंशा के मुताबिक छत्तीसगढ़ संस्कृति परिषद के माध्यम से राज्य में साहित्य, संगीत, नृत्य, रंगमंच, चित्र व मूर्तिकला, सिनेमा और आदिवासी लोककलाओं को प्रोत्साहन और उन्हें संरक्षण का कार्य सुचारू हो सकेगा। इसके लिए परिषद सांस्कृतिक विरासतों की पहचान, उनका संरक्षण और संवर्धन करेगी। संस्कृतिकर्मियों व संस्थाओं को विभिन्न विधाओं के लिए दिए जाने वाले फैलोशिप, पुरस्कारों का संयोजन भी परिषद करेगी।
अब तक प्रदेश में कला संस्कृति के लिए एकमात्र विभाग संस्कृति विभाग ही था। उल्लेखनीय है कि प्रदेश गठन के समय से ही इस विभाग के संचालक पद पर नौकरशाह ही पदस्थ किए जाते रहे हैं।संभवतः यह सोचा जाता रहा कि नौकरशाह एक बेहतर प्रशासक होते हैं अतः विभाग का बेहतर प्रबंधन कर सकेंगे। मगर पूर्व संचलकों में एक दो को छोड़कर ज्यादातर को कला साहित्य की कोई समझ तो दूर कभी उनका इससे कोई सरोकार ही नहीं रहा था।
विगत वर्षों में मगर छत्तीसगढ़ में साहित्यकारों ने भी कभी इस पर न तो सवाल उठाया और न खुलकर अपनी राय व्यक्त की । अपने नीहित स्वार्थ और बौनी आकांक्षाओं के चलते एक बड़े प्रयोजन और बहुआयामी परियोजना से आंखें मूंद अल्पकालिक आत्मसुख में ही मगन रहे आए। जिन गंभीर और विजनरी लोगों ने इस पर सरकार का ध्यान दिलाना चाहा उन्हें हाशिए पर डाल उनकी घनघोर उपेक्षा की गई
ग़ौरतलब है कि सरकार गठित संस्थाओं में पद हासिल करने के लिए पदलोलुप और मौकापरस्त चारण भाट नुमा लोग मंत्रियों अफसरों के दरबार में हाजिरी बजाते रहते हैं। ज्यादातर सत्ता भी चारण भाटों का सानिध्य पसंद करती है। ऐसे में सरकारी संस्थाओं में मीडियाकर और दोयम दर्जे के मौकापरस्त लोगों का बोलबोला होने की संभावना बढ़ जाती है। मगर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने जिस तरह संस्कृति परिषद के गठन की व्यापक परिकल्पना की है और उत्साह दिखाया है उससे यह उम्मीद की जा सकती है कि इस परिषद में यथायोग्य विद्वान विशेषज्ञ विभिन्न पीठों, अकादमियों, परिषदों में नियुक्त किए जाएंगे। यह जरूरी भी है कि परिषद में दृष्टि संपन्न विद्वानों का मनोनयन किया जाए तभी मुख्यमंत्री का मंशा फलीभूत होगी, पद के प्रति न्याय होगा एवं वांछित परिणाम प्राप्त कर पाएंगे ।
यह भी ज़रूरी है कि सरकार की स्पष्ट संस्कृति नीति हो जो हमारे संविधान की भावना के अनुरूप लोकतंत्र को मजबूत करने, धर्म निरपेक्षता को पुष्ट करने और समतावादी समाज की रचना को बल प्रदान करने की दिशा में सहायक सिद्ध होने वाली होनी चाहिए। राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति या तुष्टिकरण की बजाय संस्कृति नीति का उद्देश्य जनसरोकारी और लोकहितकारी होना चाहिए।
मेरा मानना है कि संस्कृति परिषद को पूर्ण स्वायतता दी जानी चाहिए। स्वायत्तता के लिए विद्यालयों, विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों या शासकीय सेवारत कर्मचारियों अथवा अधिकारियों को इससे पूरी तरह अलग रखा जाए। परिषद के कार्यक्रमों, योजनाओं आदि पर शासकीय एवं प्रशासनिक दखल न के बराबर होना चाहिए। संस्कृति परिषद के लिए अलग बजट का आबंटन हो। विभिन्न पदों पर जातीय,क्षेत्रीय समीकरण या अन्य दबाव से मुक्त होकर विद्वान तथा विषय विशेषज्ञ की नियुक्ति की जानी चाहिए । ऐसा काम हो कि परिषद राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त करे। संस्कृति परिषद तथा भविष्य में गठित होने वाले सभी परिषद,पीठ, अकादमी आदि शिक्षा या उच्च विभाग के अंतर्गत न हो। ये संस्कृति विभाग के अंतर्गत हों और सीधे मुख्यमंत्री से सम्बध्द हों। निदेशक आदि जो भी हो उसका कार्यकाल कम से कम तीन वर्ष का हो। इससे कम में वांछित परिणाम नहीं मिल पाते। संस्कृति परिषद के काम पूरी तरह और अनिवार्य रूप से पारदर्शी हों तथा समय समय पर प्रकाशित किए जाएं। ये मेरी अपेक्षाएं हैं।
मेरा मानना है राज्य गठन के पश्चात पहली बार साहित्य कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण काम होने जा रहा है,इसके दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखते हुए कला संस्कृति से जुड़े सभी संजीदा व्यक्तियों को आगे आकर अपनी सहभागिता सुनिश्चित करनी चाहिए। निश्चित रूप से वरिष्ठ साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों एवं विद्वजनों के पास मुझसे भी बेहतर सुझाव होंगे। मेरा अनुरोध है सभी विद्वदनों को इस महती काम में अपनी जिम्मेदारी समझते हुए स्वतः आगे आकर मुख्यमंत्री को अपने सुझाव जरूर भेजने चाहिए। । हम सब यह चाहते हैं हैं कि इसका आग़ाज अच्छा हो ताकि आगे बेहतर परिणम हासिल हो सके। हम उम्मीद करते हैं मुख्यमंत्री अपनी परिकल्पना और इस महत्वपूर्ण कार्य को अंतिम रूप देने से पहले सभी के सुझावों पर ग़ौर कर एक बेहतर संरचना की दिशा में कार्य करेंगे।
जरूरी सुझाव!
मेरे मन की बात है, जीवेश भाई