नाज़ियों पर सोवियत विजय के 75 साल और पुतिन की पश्चिम को दो-टूक

By प्रकाश के रे

राष्ट्रपति पुतिन के नेतृत्व में रूस ने वह जगह फिर से हासिल कर ली है, जो सोवियत संघ के पतन के बाद उससे छिन गयी थी. चीन ने प्रगाढ़ मित्रता, अमेरिकी पाबंदियों से घिरे ईरान और वेनेज़ुएला जैसे देशों के साथ खड़ा होना, सीरिया में निर्णायक हस्तक्षेप, ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन के माध्यम से विकासशील अर्थव्यवस्थाओं का प्रभावशाली मंच तैयार करना तथा रूस की रणनीतिक क्षमता को स्थापित करना आदि ऐसे उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि वर्तमान भू-राजनीतिक परिदृश्य में राष्ट्रपति पुतिन एक महत्वपूर्ण उपस्थिति हैं.

  द्वितीय विश्व युद्ध में नाज़ीवाद के विरुद्ध निर्णायक जीत की 75वीं वर्षगाँठ पर रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने उस महायुद्ध, उसके बाद की दुनिया और वर्तमान वैश्विक स्थिति पर एक विस्तृत लेख लिखा है. उन्होंने बताया है कि क्यों हर साल नौ मई का दिन रूस के लिए सबसे बड़ा दिन होता है और उस विश्व युद्ध से आज हम क्या सीख सकते हैं. लेकिन पश्चिमी देशों में इस लेख के महत्व पर चर्चा करने के बजाय पुतिन पर आरोपों का दौर शुरू हो गया है कि रूसी राष्ट्रपति इतिहास को फिर से लिखने का प्रयास कर रहे हैं. पुतिन के लेख को प्रकाशित करते हुए अमेरिकी प्रकाशन ‘नेशनल इंटेरेस्ट’ ने भूमिका में उनकी इस बात को रेखांकित किया है कि यूरोपीय राजनेता, विशेषकर पोलैंड के नेता, ‘म्यूनिख़ धोखे’ को बिसार देना चाहते हैं, जिसने सोवियत संघ को यह इंगित किया था कि सुरक्षा के मुद्दे पर पश्चिमी देशों को उसके हितों की परवाह नहीं है.

पुतिन के लेख और पश्चिम की प्रतिक्रिया पर चर्चा से पूर्व रूस के हवाले से वैश्विक राजनीति के समकाल पर एक नज़र डालना ज़रूरी है. प्रभावशाली रूसी विद्वान प्रोफ़ेसर सर्गेई कारागानोव ने एक हालिया लेख में कहा है कि पश्चिम के लोकतांत्रिक देशों को यह पता नहीं है कि बिना शत्रु के कैसे रहा जा सकता है. पूर्व राष्ट्रपति बोरिस येल्त्सिन और वर्तमान राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के विदेश नीति सलाहकार रहे प्रोफ़ेसर कारागानोव की बात से भले आप असहमत हों, पर जिस प्रकार बरसों से अमेरिका और यूरोपीय देश किसी-न-किसी बहाने रूस पर पाबंदियाँ लगाते रहे हैं तथा राष्ट्रपति पुतिन पर पश्चिमी लोकतंत्रों को संकटग्रस्त करने का आरोप लगाते रहे हैं, उसे देखते हुए यह तो मानना ही पड़ेगा कि इस रूसी विद्वान की बात पूरी तरह से ग़लत नहीं है.

बहरहाल, यह भी एक सच है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप रूस को जी-7 में शामिल करना चाहते हैं और यूरोपीय संघ रूस से वाणिज्य-व्यापार बढ़ाने की कोशिश में है. इससे स्पष्ट है कि राष्ट्रपति पुतिन के नेतृत्व में रूस ने वह जगह फिर से हासिल कर ली है, जो सोवियत संघ के पतन के बाद उससे छिन गयी थी. चीन ने प्रगाढ़ मित्रता, अमेरिकी पाबंदियों से घिरे ईरान और वेनेज़ुएला जैसे देशों के साथ खड़ा होना, सीरिया में निर्णायक हस्तक्षेप, ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन के माध्यम से विकासशील अर्थव्यवस्थाओं का प्रभावशाली मंच तैयार करना तथा रूस की रणनीतिक क्षमता को स्थापित करना आदि ऐसे उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि वर्तमान भू-राजनीतिक परिदृश्य में राष्ट्रपति पुतिन एक महत्वपूर्ण उपस्थिति हैं.

रूस की ऐतिहासिक भूमिका को समझने के लिए प्रोफ़ेसर कारागानोव की यह बात मददगार हो सकती है कि जब भी कोई ताक़त- चाहे वे चंगेज़ खान के वंशज हों, स्वीडन के चार्ल्स बारहवें हों, या फिर नेपोलियन या हिटलर हों- वैश्विक या क्षेत्रीय वर्चस्व की कोशिश करती है, रूस उसके बरक्स खड़ा होता है. आज रूस सैन्य और राजनीतिक प्रभाव के मामले में पर्याप्त सक्षम हैं, लेकिन आर्थिक, तकनीकी और साइबर के क्षेत्र में उसे बाज़ार और बाहरी सहयोगियों की दरकार है, जिनकी तलाश रूस करेगा और उन्हें पाएगा. कारागानोव रूस को अमेरिका व चीन के बीच संतुलन बनानेवाली शक्ति तथा गुट-निरपेक्ष देशों के नए समूह के अगुवा के रूप में भी देखते हैं.

राष्ट्रपति पुतिन ने अपने लेख की शुरुआत में महान बलिदान को मार्मिक शब्दों में रेखांकित करते हुए लिखा है कि उस युद्ध ने हर परिवार के इतिहास पर गहरी छाप छोड़ी है. हम जानते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध में आठ करोड़ के लगभग लोग मारे गए थे, जिनमें आधे से अधिक चीन और सोवियत संघ के थे. लेनिनग्राद की घेराबंदी के दौरान मरे अपने भाई का उल्लेख भी पुतिन ने किया है, जिसकी आयु दो साल थी. उस युद्ध में उनके पिता लड़ते हुए बुरी तरह से घायल हुए थे. इतिहास के महत्व को बताते हुए उन्होंने लिखा है कि वे और उनकी उम्र के लोग यह मानते हैं कि उनके बच्चों और आगामी पीढ़ियों को अपने पूर्वजों के संघर्ष को समझना चाहिए. पीढ़ियों को यह जानना चाहिए कि नाज़ियों को हराने में सोवियत लोग सबसे आगे थे. लेकिन इससे यूरोप में कई लोगों को मुश्किल है, पर, पुतिन ने लिखा है, कोई भी एक तथ्य को भी ग़लत नहीं साबित कर सका है कि उस युद्ध को किसने और कैसे लड़ा और जीता. उन्होंने यह भी कहा है कि कुछ राजनेता आदतन यह कहते हैं कि रूस इतिहास का पुनर्लेखन करने की कोशिश कर रहा है. दिलचस्प बात है कि पुतिन के लेख़ के बाद अमेरिका और यूरोप में ऐसे लेखों और टिप्पणियों की बाढ़ आ गयी है, जिनका शीर्षक ठीक यही है कि रूस इतिहास को दुबारा लिखना चाहता है. ऐसे लेख छापने वालों में सीएनएन, न्यूयॉर्क टाइम्स, फ़ोर्ब्स, फ़ॉरेन पॉलिसी जैसे प्रकाशन हैं. कई मंचों ने इन्हीं शब्दों में आयी पोलैंड की प्रतिक्रिया को अपना शीर्षक बनाया है.

बहरहाल, द्वितीय विश्व युद्ध आधुनिक इतिहास के अध्ययन में एक महत्वपूर्ण विषय है और इसके ऊपर बीते सालों में अनगिनत शोध, किताबें, फ़िल्में आदि दुनिया का सामने हैं तथा यह सिलसिला अब भी जारी है. सो, इतिहास की बहस में यहाँ पड़ना उचित नहीं होगा. पुतिन के लेख का महत्व इस बात में भी है कि वह वैश्विक मंच पर रूस की ताज़ा धमक का ऐलान है और यूरोप को एक ठोस संकेत है कि अब रूस उनकी धौंस और पाबंदियों की कतई परवाह नहीं करता है. इसके साथ ही पुतिन द्वितीय विश्व युद्ध की तरह पश्चिम के साथ हर तरह के सहयोग के आकांक्षी भी हैं और उसकी ज़रूरत पर ज़ोर भी दे रहे हैं. वे लिखते हैं कि विश्व युद्ध का गहन अध्ययन होना चाहिए और आज की दुनिया को उससे सबक़ लेना चाहिए. उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के बाद की ग़लतियों, ख़ासकर जर्मनी के ख़िलाफ़ हुई वर्साय की संधि, को भी दूसरे महायुद्ध के कारणों में गिना है. उन्होंने यह भी उल्लेख किया है कि द्वितीय विश्व युद्ध के विजेता नेताओं- स्टालिन, चर्चिल और रूज़वेल्ट- ने वैचारिक और अन्य मतभेदों के बावजूद ऐसी विश्व व्यवस्था बनायी, जिसने वैश्विक युद्ध को अब तक रोके रखा है, जबकि दुनिया में तमाम तरह के मतभेद, विवाद और विरोधाभास हैं. पुतिन ने पाँच ताक़तवर देशों- अमेरिका, चीन, रूस, फ़्रांस और ब्रिटेन- की आगामी बैठक में वैश्विक दरारों को पाटकर एक संतुलित विश्व व्यवस्था बनाने की कोशिश का आग्रह किया है, जिसका आधार परस्पर विश्वास ही हो सकता है.

लेकिन पुतिन इस बात से आगाह है कि पश्चिम ने पिछले कुछ सालों में उनके और चीन समेत कुछ देशों के साथ कैसा व्यवहार किया है. बर्लिन की दीवार गिरने और सोवियत संघ के पतन के बाद जब उदारवादी लोकतंत्र अपनी जीत और ‘इतिहास के अंत’ की घोषणा तो कर रहा था, पर उसे अपने विरोधाभासों की परवाह न थी. पुतिन ने अपने लेख में बताया है कि पहले महायुद्ध के बाद ब्रिटिश और अमेरिकी कम्पनियाँ जर्मनी में निवेश कर रही थीं और मुनाफ़ा कमा रही थीं, पर मनमाने ढंग से बनाए नक़्शों से पैदा हो रहे असंतोष को नहीं देख रही थीं. इतना ही नहीं, मुनाफ़ा पर नज़र गड़ाए ये देश उग्र विचारधाराओं को भी शह दे रहे थे. ऐसा आज भी हो रहा है. पिछली सदी के अंत में पश्चिम आदतन नए दुश्मन की तलाश में था और उसने अपने ही प्रायोजित गिरोहों को ‘इस्लामिक आतंकवाद’ का नाम देकर कुछ साल तक अशांति पैदा की. पश्चिम यह नहीं देख पा रहा था कि एशिया के देश तेज़ी से उभर रहे हैं. जब उन्हें ख़तरा महसूस हुआ और 2008 के वित्तीय संकट ने उनके भीतर के खोखलेपन को उजागर किया, तो रूस और चीन को दुश्मन बनाया गया. इन देशों के मित्र राष्ट्र भी लपेटे में आए. कोरोना संकट ने इस दुश्मनी को नया धार दे दिया है.

कुछ साल पहले एक इंटरव्यू में पुतिन से एक अमेरिकी पत्रकार ने पूछा था कि क्या आपने सचमुच अमेरिकी चुनाव में दख़ल दिया है और ट्रंप को जीताने में मदद की है. इस पर पुतिन ने उलटा सवाल किया था कि क्या आपको अपने लोकतंत्र पर भरोसा नहीं है. जेम्स बाल्डविन ने पचास के दशक में लिखा था कि जो लोग असलियत से आँखे चुराते हैं, वे अपनी ही बर्बादी को बुलावा देते हैं, और जो भोलेपन के ख़ात्मे के बहुत बाद भी भोले बने रहते हैं, वे ख़ुद को ही निर्दयी बना देते हैं. पुतिन इसीलिए पश्चिम को बार-बार आगाह करते रहे हैं और इस लेख में भी उन्होंने यही किया है. विश्व व्यवस्था बदल रही है और उसका केंद्र पश्चिम से खिसक चुका है. इस सच को पश्चिम को स्वीकार करना चाहिए.

लेखक सुपरिचित पत्रकार हैं। साहित्य और कला के रसिक हैं तथा फिल्मों पर शोध कर चुके है।  सौज- मीडिया विजिल

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