सिलेबस कम करने के नाम पर भारतीय राष्ट्रवाद की मूल अवधारणाओं पर चोट- राम पुनियानी

सांप्रदायिक ताकतों ने पहले कोरोना प्रसार के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराया और अब पाठ्यक्रम को हल्का करने के नाम पर भारतीय राष्ट्रवाद की मूल अवधारणाओं से जुड़े अध्याय- संघवाद, नागरिकता, राष्ट्रीयता, धर्मनिरपेक्षता, मानवाधिकार आदि को सिलेबस से हटाया जा रहा है

कोविड-19 ने जहां पूरी दुनिया में कहर बरपा कर रखा है, वहीं कई देशों के शासक इस महामारी के बहाने अपने-अपने संकीर्ण लक्ष्य साधने में लगे हैं। कई देशों में अलग-अलग तरीकों से प्रजातांत्रिक अधिकारों को सीमित किया जा रहा है, जिसके विरोध में अमेरिका में एक अभियान शुरू हुआ है जो उस ‘दमघोंटू’ सांस्कृतिक माहौल का विरोध कर रहा है, जिसके चलते वर्चस्वशाली विचारधारा से सहमत होने पर जोर दिया जा रहा है, स्वतंत्र बहस पर पहरे लगाए जा रहे हैं और मत विभिन्नता के प्रति सहिष्णुता को कमजोर किया जा रहा है।

आज यही सब भारत में भी हो रहा है। सांप्रदायिक शक्तियों ने पहले कोरोना के प्रसार के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराया और अब पाठ्यक्रम को ‘हल्का’ करने के नाम पर भारतीय राष्ट्रवाद की मूल अवधारणाओं से संबंधित अध्यायों को पाठ्य पुस्तकों से हटाया जा रहा है। अभियान के तहत संघवाद, नागरिकता, राष्ट्रीयता, धर्मनिरपेक्षता, मानवाधिकार, विधिक सहायता और स्थानीय स्वशासन संस्थाओं से संबंधित सामग्री पुस्तकों से हटाई जा रही है।

सांप्रदायिक शक्तियों के लिए शिक्षा का क्षेत्र हमेशा से बहुत महत्वपूर्ण रहा है। वे लगातार यह दावा करती आ रही हैं कि पाठ्यक्रमों का ‘भारतीयकरण’ किया जाना चाहिए, क्योंकि उनके निर्माण में वामपंथियों की भूमिका के चलते उन पर मैकाले, मार्क्स और मोहम्मद का प्रभाव है।

देश में पाठ्यक्रमों के भारतीयकरण का पहला प्रयास साल 1998 में किया गया था। तत्कालीन एनडीए सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने पाठ्यक्रमों में बदलाव किये थे, जिसे ‘शिक्षा के भगवाकरण’ का नाम दिया गया था। उस समय दक्षिणपंथी और सांप्रदायिक ताकतों का मुख्य फोकस सामाजिक विज्ञानों पर था। पाठ्यक्रमों में पौरोहित्य और ज्योतिष जैसे विषय और किताबों में जाति व्यवस्था और हिटलर मार्का राष्ट्रवाद का बचाव करने वाले अध्याय जोड़े गए थे।

साल 2004 में एनडीए सरकार के सत्ता से बाहर होने के बाद आई यूपीए सरकार ने इनमें से कुछ विकृतियों को ठीक करने का प्रयास किया। साल 2014 के बाद से, शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले आरएसएस के अनुषांगिक संगठन अति सक्रिय हैं। उनकी कोशिश है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सहयोग से, पाठ्यक्रमों में हिन्दू राष्ट्रवादी एजेंडे के अनुरूप परिवर्तन किए जाएं।

संघ परिवार का एक सदस्य है ‘शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास’। वह चाहता है कि किताबों में से अंग्रेजी और उर्दू के शब्द हटा दिए जाएं। उसकी यह भी मांग है कि राष्ट्रवाद पर रबीन्द्रनाथ टैगोर के विचार, एमएफ हुसैन की आत्मकथा के अंश और मुस्लिम राजाओं की उदारता के उदाहरणों सहित वे सभी हिस्से किताबों से बाहर कर दिए जाएं जिनमें बीजेपी को हिन्दू पार्टी बताया गया है, मनमोहन सिंह द्वारा सिख-विरोधी दंगों के लिए माफी मांगने का संदर्भ है और गुजरात के 2002 के दंगों में हुए भारी खून-खराबे की चर्चा की गई है। वे इसे पाठ्यक्रम का ‘भारतीयकरण’ करना मानते हैं।

संघ का जाल बहुत बड़ा है। उसके एक प्रचारक दीनानाथ बत्रा ने ‘शिक्षा बचाओ अभियान समिति’ का गठन किया है, जो विभिन्न प्रकाशकों पर दबाव डालती रही है कि वे उन किताबों का प्रकाशन बंद कर दें जो संघ की विचारधारा से मेल नहीं खाते।

हम सबको याद है कि इन्हीं शक्तियों ने वेंडी डोनिगेर की पुस्तक ‘द हिन्दू’ पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी, क्योंकि वह प्राचीन भारत को दलितों और स्त्रियों के सरोकारों के परिप्रेक्ष्य से देखती है। बत्रा ने स्कूलों के लिए नौ किताबों का एक सेट प्रकाशित किया है, जिनमें भारत के इतिहास को आरएसएस के चश्मे से देखा गया है और समाज विज्ञान की संघी समझ को प्रस्तुत किया गया है। इन पुस्तकों का गुजराती में अनुवाद हो चुका है और राज्य के स्कूलों में इन किताबों की हजारों प्रतियां खपा दी गई हैं।

भारतीय राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता और मानवाधिकारों से संबंधित अध्यायों को पाठ्यक्रमों से हटाने का हालिया निर्णय इसी दिशा में एक और कदम है। ये वे शब्द हैं जो हिन्दू राष्ट्रवादियों को बेचैन और असहज कर देते हैं। वे लंबे समय से धर्मनिरपेक्षता को बदनाम करते आए हैं। साल 2015 के गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर सरकार की ओर से जारी विज्ञापन में संविधान की जो उद्देशिका प्रकाशित की गई थी उसमें से ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द गायब था।

पिछले कुछ दशकों में राममंदिर आन्दोलन के जोर पकड़ने के समांतर भारतीय स्वाधीनता संग्राम के धर्मनिरपेक्ष चरित्र और संविधान के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को नकारने के सतत प्रयास किये जा रहे हैं। कई आरएसएस चिन्तक और बीजेपी नेता इसी कारण संविधान में परिवर्तन किये जाने की मांग करते रहे हैं।

धर्मनिरपेक्षता, भारतीय राष्ट्रवाद की संकल्पना का अविभाज्य हिस्सा है। धार्मिक और सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के हामी कई छात्र नेताओं पर हमले करते रहे हैं। भारतीय राष्ट्रवाद के अध्ययन से हमें पता चलता है कि हमारा स्वाधीनता आन्दोलन कितना विविधवर्णी और बहुवादी था। भारत का स्वाधीनता संग्राम, भारतीय राष्ट्रवाद के मूल्यों में रचा-बसा था और यही कारण है कि हिन्दू और मुस्लिम सम्प्रदायवादी हमारे औपनिवेशिक आकाओं के विरुद्ध इस महासंग्राम से दूर रहे। इसी महासंग्राम से विविधवर्णी भारत उपजा।

चूंकि हमारे देश में सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हैं, इसलिए नागरिकता से संबंधित अध्यायों को हटाने की बात कही जा रही है। संघवाद, भारत के राजनैतिक और प्रशासनिक ढांचे का आधार है। जैसे-जैसे तानाशाही प्रवृत्तियां बढ़ती जाएंगी वैसे-वैसे संघवाद कमजोर होता जाएगा। और इसलिए, संघवाद के बारे में सामग्री को पाठ्य-पुस्तकों से हटाया जा रहा है।

सत्ता का विकेन्द्रीकरण, प्रजातंत्र की मूल आत्मा है। सच्चा प्रजातंत्र वही है जिसमें सत्ता आम नागरिकों के हाथों तक पहुंचे। स्थानीय स्वशासन संस्थाएं यही करती हैं। शक्तियों और अधिकारों को केंद्र और राज्य सरकारों, शहरी स्वशासन संस्थाओं और पंचायतों के बीच बांटा गया है। संघवाद और स्थानीय स्वशासन संस्थाओं से संबंधित अध्यायों को हटाने का निर्णय, शासक दल की सोच और विचारधारा को प्रतिबिंबित करता है।

हम प्रस्तावित परिवर्तनों के सभी निहितार्थों पर चर्चा नहीं कर रहे हैं, परन्तु मानवाधिकारों से संबंधित अध्याय हटाने के निर्णय के एक पहलू पर नजर डालना जरूरी है। मानवाधिकार और मानवीय गरिमा एक-दूसरे से जुड़े हैं। भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के कई मानवाधिकार घोषणापत्रों पर हस्ताक्षर किये हैं। अब जो संकेत मिल रहे हैं, उनसे ऐसा लगता है कि आगे चलकर अधिकार केवल कुछ कुलीनों के लिए होंगे और विशाल वंचित वर्ग को केवल उसके कर्तव्यों पर ध्यान देने के लिए कहा जाएगा।

कुल मिलाकर, कोरोना के इस त्रासदी के बहाने सरकार शिक्षा के क्षेत्र में शासक दल का एजेंडा आगे बढ़ाने पर अमादा दिखती है। पाठ्यक्रमों के उन हिस्सों को हटाया जा रहा है जो शासक दल को भाते नहीं हैं। इसके अलावा, सरकार पाठ्यक्रमों का ‘भारतीयकरण’ करने की संघ परिवार की मांग को भी तवज्जो दे रही है। अगर सब कुछ ऐसा ही चलता रहा है तो हो सकता है कि हमारे बच्चे अब यह पढ़ें कि रामायण और महाभारत में वर्णित घटनाक्रम सचमुच घटा था और प्राचीन भारत में स्टेम सेल तकनीकी से लेकर प्लास्टिक सर्जरी तक सब कुछ था। और हां, यह भी कि हमारे पूर्वज हवाई जहाजों में सैर करते थे और आणविक हथियारों का प्रयोग करते थे।

लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं । (हिंदी रूपांतरणः अमरीश हरदेनिया)

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