2020 में हम भारतीयों को 1920 के इटली को जानने की जरूरत क्यों है? – रामचंद्र गुहा

इटली के उस अतीत से हमें भारत के वर्तमान और भविष्य को समझने में मदद मिल सकती है मुसोलिनी रोजगार और खुशहाली देने में नाकाम रहा. मोदी सरकार तो आर्थिक मोर्चे पर कहीं ज्यादा विफल रही है. बुरे तरीके से बनाई गई अव्यावहारिक नीतियों ने उस प्रगति का काफी हद तक नाश कर दिया है जो देश ने उदारीकरण के बाद करीब तीन दशक में हासिल की थी.

मैं जीवनियां खूब पढ़ता हूं. इनमें बहुत सी विदेशी हस्तियों की होती हैं जो उनके देश, काल और परिस्थितियों के बारे में बताती हैं. हाल ही में मैंने कनाडाई विद्वान फाबियो फर्नांडो रिजी की किताब ‘बेनेडेट्टो क्रोसे एंड इटैलियन फासिज्म’ खत्म की है. इस किताब में एक महान दार्शनिक की जीवनी के सहारे उस दौर की एक बड़ी सच्चाई बताई गई है.

मैं जीवनियां खूब पढ़ता हूं. इनमें बहुत सी विदेशी हस्तियों की होती हैं जो उनके देश, काल और परिस्थितियों के बारे में बताती हैं. हाल ही में मैंने कनाडाई विद्वान फाबियो फर्नांडो रिजी की किताब ‘बेनेडेट्टो क्रोसे एंड इटैलियन फासिज्म’ खत्म की है. इस किताब में एक महान दार्शनिक की जीवनी के सहारे उस दौर की एक बड़ी सच्चाई बताई गई है.

दिसंबर 1925 में इटली की सरकार ने एक कानून बनाया. इसमें प्रेस और उसकी आजादी पर काफी पाबंदियां लगाई गई थीं. इसका नतीजा यह हुआ कि कुछ ही महीनों के भीतर एक-एक करके देश के सबसे अहम अखबारों में से ज्यादातर फासीवादियों के हाथों में आ गए. मालिकों को आर्थिक या राजनीतिक दबाव के चलते अखबार बेचना पड़ा. उदारवादी संपादकों को इस्तीफा देना पड़ा और उनकी जगह ऐसे लोगों ने ले ली जो सत्ता प्रतिष्ठान के लिए ज्यादा मुफीद थे.

उसी साल यानी 1925 में बेनेडेट्टो क्रोसे ने सत्ताधारी पार्टी और मुसोलिनी की विचारधारा की विशेषताओं के बारे में कहा कि यह कई चीजों का अजीब मेल है. उनके शब्दों में इसमें ‘सत्ता के प्रति समर्पण का आग्रह था और आम लोगों के पूर्वाग्रहों का समर्थन भी. इसमें कानूनों का सम्मान करने की बात कही जाती थी और कानूनों का उल्लंघन भी दिखता था. इस विचारधारा में अत्याधुनिक सिद्धांतों के साथ सड़ांध मारते पुराने विचारों का कूड़ा भी था और संस्कृति के प्रति घृणा के साथ एक नई संस्कृति विकसित करने की बांझ कोशिशें भी थीं.’

इस तरह देखें तो 1920 के दशक के इतालवी राष्ट्र राज्य और आज की मोदी सरकार के समय में असाधारण समानताएं दिखती हैं. यह सरकार भी संविधान के बारे में सम्मान के साथ बात करती है जबकि व्यवहार में वह इसकी भावना का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करती है. यह पुरातन ज्ञान का बखान करती है और आधुनिक विज्ञान का उपहास. महान प्राचीन संस्कृति के गीत गाती है जबकि व्यवहार में बहुत हल्कापन दिखाती है.

1920 के दशक में इटली के ज्यादातर स्वतंत्रचेत्ता बुद्धिजीवियों का जबरन देशनिकाला हो गया था. लेकिन बेनेडेट्टो क्रोसे ने अपनी मातृभूमि नहीं छोड़ी और फासीवाद का बौद्धिक और नैतिक प्रतिरोध करते रहे. जैसा कि उनके जीवनीकार ने लिखा है, ‘सरकार मीडिया और शिक्षण तंत्र का इस्तेमाल करके मुसोलिनी की व्यक्ति पूजा और सत्ता प्रतिष्ठान के प्रति पूर्ण समर्पण की संस्कृति को बढ़ावा दे रही थी. डूचे का समर्थन करने वाली नई पीढ़ी से कहा जा रहा था कि वह सवाल किए बिना विश्वास, आज्ञा का पालन और युद्ध करने के लिए तैयार रहे. उधर, क्रोसे इसके बजाय उदार मूल्यों, स्वतंत्रता, मनुष्य की गरिमा, हर व्यक्ति को अपने फैसले लेने की छूट और व्यक्तिगत जवाबदेही की बात कर रहे थे.’

रिजी की किताब को आगे पढ़ते हुए मेरे सामने ये पंक्तियां आईं:

‘1926 के आखिर तक उदार इटली की मृत्यु हो चुकी थी. मुसोलिनी ने अपनी ताकत और बढ़ा ली थी और ऐसे कानूनी उपाय भी कर लिए थे जिनसे उसकी तानाशाही जारी रह सके. राजनीतिक पार्टियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और प्रेस की आजादी खत्म कर दी गई थी. विपक्ष दंतविहीन बना दिया गया था और संसद शक्तिहीन. साल 1927 आते-आते कोई भी राजनीतिक कार्रवाई लगभग असंभव हो गई थी; सार्वजनिक जगहों यहां तक कि निजी चिट्ठियों में भी सरकार की आलोचना खतरे से खाली नहीं थी. सरकार की नीतियों के विरोध में विचार व्यक्त करने वाले कर्मचारियों की नौकरी जा सकती थी. गृह मंत्रालय के तहत आने वाली पुलिस की एक इकाई की ताकत तो बढ़ाई ही गई थी, एक गोपनीय और प्रभावी पुलिस संगठन की स्थापना भी कर दी गई थी. ओवरा नाम के इस रहस्यमय और डरावने संगठन का मकसद था फासीवाद के खिलाफ किसी भी संकेत और असहमति का दमन. थोड़े ही समय में इसने एक लाख से भी ज्यादा लोगों की जानकारियों से जुड़ी फाइलें इकट्ठा कर लीं जिनमें फासीवादी नेता भी शामिल थे. इसके अलावा उसने स्पेशल एजेंटों, जासूसों और मुखबिरों का एक प्रभावी जाल भी बना लिया था जिसकी पहुंच विदेशों तक थी.’

जब मैं रिजी की किताब से इन शब्दों को उतार रहा था तो उसी समय खबर आ रही थी कि गृह मंत्रालय ने वित्त आयोग से नागरिकों के ‘रियल टाइम सर्वेलेंस’ के लिए फंड बनाने के मकसद से 50 हजार करोड़ रु की मांग की है. यह ऐसे समय पर हो रहा है जब राज्य आरोप लगा रहे हैं कि केंद्र उन्हें उनका बकाया नहीं दे रहा और स्वतंत्र विचारकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों पर थोपे गए फर्जी मामलों के जरिये गृह मंत्रालय पहले ही खतरनाक रूप से अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर रहा है.

उधर, 1929 में इटली की संसद के बारे में रिजी ने लिखा है: ‘संसद की भूमिका सरकार के फैसलों पर मुहर लगाने भर की रह गई थी. गिने-चुने विपक्षी सदस्यों के भाषणों को या तो नजरंदाज कर दिया जाता था या फिर अक्सर उस शोर के जरिये दबा दिया जाता था जो सदन और दर्शक दीर्घा से उनका मजाक उड़ाने के लिए उठता था.

फाबियो फर्नांडो रिजी की किताब एक देश के एक व्यक्ति पर केंद्रित है और इसमें कोई तुलनात्मक विश्लेषण नहीं किया गया है. लेखक ने यह जरूर कहा है कि ‘इतालवी फासीवाद ने एक सत्तावादी तंत्र पैदा किया जिसकी पहुंच लगातार बढ़ती रही, लेकिन उसके पास इतना समय नहीं था और शायद इतनी ताकत भी कि यह अधिनायकवादी समाज बना सके.’ इसका मतलब है कि मुसोलिनी का इटली जितना भी भयंकर रहा हो, वह उतना भयानक नहीं था जितना हिटलर का जर्मनी.

बेनेडेट्टो क्रोसे की बौद्धिक रूप से समृद्ध जीवनी पढ़ने के बाद मैंने डेविड गिल्मर की शानदार किताब ‘द परस्यूट ऑफ इटली’ का रुख किया. यह शुरुआत से इस देश का व्यापक इतिहास बताती है. किताब के चार सौ पन्नों में से 30 में मुसोलिनी की सत्ता वाले दिनों का वर्णन है. रिजी की तरह गिल्मर ने भी इटली के अतीत के बारे में जो कहा है उसका एक बड़ा हिस्सा मैं वर्तमान में सिहरन के साथ अपने देश में घटते देखते देख रहा हूं. इस टिप्पणी पर गौर कीजिए:

‘1930 के दशक में सरकार की कार्यशैली में दिखावा और बढ़ गया था. परेडें ज्यादा होने लगी थीं, वर्दियां भी ज्यादा दिखने लगी थीं, सेंसरशिप बढ़ने लगी थीं, धमकियों में भी बढ़ोतरी हो गई थी, लीडर (मुसोलिनी) के भाषण बढ़ गए थे. अपनी बालकनी से मुसोलिनी का भीड़ को संबोधित करके चीखना, इशारे करना और चेहरे पर ऐंठन का भाव लाना भी बढ़ गया था. जब भी मुसोलिनी देश और उसकी प्रतिष्ठा से जुड़ी बात करता, भीड़ नारे लगाती – डूचे! डूचे! डूचे!’

नरेंद्र मोदी के शासन के बारे में भी काफी हद तक यही होता दिखता है. खास कर 2019 में उनकी दूसरी बार जीत के बाद तो उनकी हर बात पर ‘मोदी! मोदी! मोदी!’ का नारा लग रहा था.

सवाल उठता है कि इटली के इस तानाशाह को इतना भारी जनसमर्थन कैसे मिला? गिल्मर इसका जवाब देते हैं: ‘मुसोलिनी का शासन इसलिए भी इतना लंबा चल सका कि इटली की जनता उसमें अपना कुछ अक्स देखती थी. वह उम्मीदों और आशंकाओं और उन पीढ़ियों का नुमाइंदा था जिन्हें लगता था कि इटली के उदारवादी राजनेताओं और युद्ध के समय के उसके सहयोगियों के धोखे की वजह से इटली वहां नहीं है जहां उसे होना चाहिए था.’

इसी तरह मोदी सरकार ने भी लोगों को यकीन दिलाया है कि दूर अतीत में एक कथित स्वर्णिम समय था जब हिंदुओं का देश ही नहीं, दुनिया में भी वर्चस्व था. उसका तर्क रहा है कि मुसलमान और ब्रिटिश आक्रमणकारियों ने हिंदुओं को इस प्रतिष्ठित स्थान से नीचे गिरा दिया. नरेंद्र मोदी ने खुद को एक ऐसे नेता के तौर पर पेश किया है जो कांग्रेस के उन भ्रष्ट नेताओं से लड़ रहा है जो हिंदुओं और भारत को फिर नीचे गिरा देंगे.

2020 के भारत में 1920 के दशक के इटली से जुड़ी इन किताबों को पढ़ने और कई समानताएं देखने के बाद मैं हताश हो गया. हालांकि कुछ अपवादों ने मुझे तसल्ली भी दी. नरेंद्र मोदी के भारत में भाजपा को विपक्षी पार्टियों से लड़ना पड़ा है. इन पार्टियों की धार केंद्र में भले ही कुंद हो गई हो लेकिन, देश के करीब आधा दर्जन बड़े राज्यों में वे अब भी खासी मजबूत हैं. मीडिया को पालतू बना लिया गया है, लेकिन इसे पूरी तरह नष्ट नहीं किया जा सका है. मुसोलिनी के इटली में ऐसा नहीं था. उस इटली में सरकार से हिसाब मांगने वाले अकेले बेनेडेट्टो क्रोसे ही थे, लेकिन नरेंद्र मोदी के भारत में अब भी कई लेखक और बुद्धिजीवी हैं जो निडरता के साथ उन मूल्यों की सुरक्षा में खड़े हैं जो हमारे गणतंत्र का आधार हैं, और वे उन सभी भाषाओं में अपनी बात रख रहे हैं जो इस गणतंत्र में बोली जाती हैं.

‘द परस्यूट ऑफ इटली’ में यह बताने के बाद कि मुसोलिनी ने सत्ता में अपनी पकड़ कैसे मजबूत की, डेविड गिल्मर लिखते हैं: ‘लेकिन फासीवाद खुशहाली नहीं ला सका और इसलिए इसका आकर्षण जाता रहा. इटली की जनता को भले ही भरमा दिया गया था कि शासन अच्छे से चल रहा है, लेकिन उसे यह झांसा नहीं दिया जा सका कि उसकी समृद्धि बढ़ी है.’ मुसोलिनी रोजगार और खुशहाली देने में नाकाम रहा. मोदी सरकार तो आर्थिक मोर्चे पर कहीं ज्यादा विफल रही है. बुरे तरीके से बनाई गई अव्यावहारिक नीतियों ने उस प्रगति का काफी हद तक नाश कर दिया है जो देश ने उदारीकरण के बाद करीब तीन दशक में हासिल की थी.

आज लाखों युवा नरेंद्र मोदी का आंख मूंदकर समर्थन करते हैं. जो नियति उनका और हमारा इंतजार कर रही है उसकी भविष्यवाणी बेनेडेट्टो क्रोसे के वे शब्द करते हैं जो उन्होंने मुसोलिनी का अंधा समर्थन करने वाले लाखों युवाओं के बारे में कहे थे. जब इस तानाशाह की मौत हो गई और उसकी सत्ता आखिरकार बिखर गई तो क्रोसे ने दुख के साथ लिखा कि ‘नैतिक ऊर्जा के इस खजाने को दमनकारी सत्ता ने बहकाया, उसका शोषण किया और आखिर में उसे धोखा दिया.’

बेनीतो मुसोलिनी और उसकी फासीवादी विचारधारा को लगता था कि वे इटली पर हमेशा राज करेंगे. मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान भी कुछ ऐसा ही सोचता है. हमेशा राज करने के ऐसे सपने हमेशा सपने ही रह जाते हैं. लेकिन जब तक मौजूदा विचारधारा सत्ता में है, वह आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक मोर्चे पर इसकी भयानक कीमत वसूलती रहेगी. मुसोलिनी ने जो तबाही मचाई उससे उबरने में इटली को कई दशक लग गए. नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी जो विध्वंस कर रही है उससे उबरने में भारत को इससे भी ज्यादा वक्त लग सकता है.

रामचंद गुहा प्रसिद्ध इतिहासकार हैं, येउनके निजि वचार हैं। सौज- सत्याग्रहःः लिंक नीचे दी गई है

https://satyagrah.scroll.in/article/136044/1920-italy-mussolini-bharat

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *