गांधीः चमकाओ इतना कि पूरा देश, पूरी दुनिया इस चमक से भर जाए – प्रियंवद

मेरे पास गांधी की पीतल की एक प्रतिमा है। करीब सवा फिट ऊँची। बहुत पहले मेरे पिता पैंतीस रुपए में खरीद कर लाए थे। कहाँ से, यह मुझे याद नहीं। प्रतिमा तीन सीढ़ियों के ऊपर रखी है। गांधी का ‘बस्ट’ बना है। पीतल पर सारा काम है। गांधी के चादर की सलवटें, गले की झुर्रियाँ, तिरछी गरदन, होठों पर हँसी, एक दाँत होठ के ऊपर, हल्के रोएं, होठों के किनारों पर सिकुड़नें, चश्मा, माथे की सलवटें, बड़े कान, सब कुछ बहुत जीवन्त और साफ है। यह प्रतिमा हमेशा मेरे घर प्रमुखता से रखी रही। फिर लगभग पचास साल पहले, मेरी बड़ी बहन अपनी शादी में पिता से माँग कर ले गयी। प्रतिमा उसके पास रही। लगभग पन्द्रह साल पहले मैं उससे ले आया। अब यह मेरे लिखने पढ़ने के कमरे में रखी है।

      सुबह चार बजे जब मैं वहाँ बैठता हूँ तो कमरे में सिर्फ गांधी दिखते हैं, होते हैं। थोड़ी देर बाद चिड़ियों की चहचहाहट और अजान की आवाजें भी शामिल हो जाती हैं, पर कुछ देर सिर्फ गांधी होते हैं। आज यह लिखते हुए मैंने देखा कि पीतल का रंग थोड़ा मटमैला हो गया है। उनकी मुस्कराहट दब गयी है। ऑंखों में वीरानी है। लम्बे कान पर जाले का एक तार आ गया है। गांधी शायद अब थक गए हैं। शायद मुक्ति चाहते हैं। हर तरह से, हर ओर से, हर व्यक्ति से। राष्ट्रपिता होने से, नोटों से, स्वच्छता अभियान से, सैकड़ों आयोजनों से, प्रतिमाओं से, असंख्य लिखी जा रही पुस्तकों से, बहसों से, इस्तेमाल किए जाने से, इस देश से, इस दुनिया से। डेढ़ सौ साल की उमर कम नहीं होती। इतना तो गांधी ने कभी जीना नहीं चाहा था। तो क्या गांधी को अब मुक्त कर दिया जाए? समय आ गया? गांधी की डेढ़ सौवीं जयन्ती पर शायद यही हमारी उनके लिए सबसे बड़ी भेंट होगी।

      तो क्या मैं भी गांधी को इस प्रतिमा से मुक्त कर दूँ? क्या इस पीतल को गला का पर्दे टाँगने के छल्ले बनवा लूँ या फिर कुछ गुलदान? पर फिर जो जगह खाली होगी उसका क्या होगा? वहाँ किसे रखूँगा? क्या हिन्दू भारत के किसी नए राष्ट्रपिता की प्रतिमा? किसी नए महानायक की? क्या कमजोर, दमित मनुष्य के पक्ष में खड़ा होने वाला कोई दूसरा ढूँढा जाएगा? क्या अहिंसा, करुणा, प्रेम, सत्य का प्रतिनिधित्व कोई दूसरा करेगा? या फिर ‘पोस्ट ट्रूथ’ में ये सब निकृष्ट जीवन मूल्य हो जाएँगे? क्या पूरी दुनिया में पूंजी, राज्य, और धर्म की बढ़ती हिंसा और बर्बरता को प्रार्थनाओं में शामिल कर लिया जायगा? क्या हथियार, गोला बारूद, विराट उद्योग, तकनीक ही मनुष्य और समाज का धुरी बनेंगे? ऐसा हुआ तो? इतिहास में ऐसा कई बार हुआ है। रोम में कितने ही क्रूर शासकों की प्रतिमाएं देवताओं के साथ खड़ी की गयी हैं। ऐसा हुआ तो मैं क्या करूँगा? किससे पूछूँ? कौन बताएगा? सर उठा कर देखता हूँ। गांधी ही बताएंगें और कौन?

1990 में प्रकाशित ‘वे वहाँ कैद हैं’ उपन्यास में दादू प्रधानमंत्री को पत्र लिखते हैं, और बताते हैं कि सन 47 में ऐसे ही ऍंधेरे बढ़े थे, तब मैंने बापू से पूछा था अब क्या करूँ? तब बापू ने कहा था ‘अपने अंदर की लौ और तेज करो’। मैं तब से यही कर लेता हूँ। जब ऍंधेरे बढ़ते हैं लौ और तेज कर लेता हूँ। जीवन की मोमबत्ती दोनों सिरों से जला लेता हूँ। ”मि. प्राइम मिनिस्टर, अंधेरे बढ़ रहे हैं, पर इतिहास में कभी किसी अंधेरे ने लौ को नहीं जीता है। आप पर यह सिध्द करने का दायित्व आ गया है।”

   मैं कांगज का टुकड़ा उठाता हूँ । काम पर आने वाले लड़के के लिए काम लिखता हूँ । गाँधी की सफाई करो । चमकाओ, इतना कि पूरा कमरा, पूरा देश, पूरी दुनिया इस चमक से भर जाए ।

(‘अकार’में प्रकाशित कथाकार प्रियंवद के लेख का अंश)

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