काकोरी कांड का मतवाला शहीद शायर अशफाक़ उर्फ़ वारसी उर्फ़ हसरत

शाहीन अंसारी

अशफाक पर महात्मा गांधी का काफी प्रभाव था, लेकिन चौरी-चौरा कांड के बाद जब महात्मा गांधी ने अपना असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था, तब हजारों की संख्या में युवा खुद को धोखे का शिकार समझ रहे थे। अशफ़ाक उल्ला खान उन्हीं में से एक थे। उन्हें लगा अब जल्द से जल्द भारत को अंग्रेज़ों की गुलामी से मुक्ति मिलनी चाहिए। इस उद्देश्य के साथ वह शाहजहांपुर के प्रतिष्ठित और समर्पित क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल और चंद्रशेखर आज़ाद के साथ जुड़ गए।

कभी तो कामयाबी पर मेरा हिन्दोस्ताँ होगा
रिहा सैय्याद के हाथों से अपना आशियाँ होगा
अशफ़ाक़ उल्ला खान

अंग्रेजी शासन से देश को आज़ाद कराने के लिए हंसतेहंसते फांसी का फंदा चूम कर अपने प्राणों की आहुति देने वाले अशफ़ाक़ उल्ला खान जंगआजादी के महानायक थे। निर्भय और प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी अमर शहीद अशफ़ाक़ उल्ला खान भारत माँ के सच्चे सपूत थे।

काकोरी कांड के बाद जब अशफ़ाक़ को गिरफ्तार कर लिया गया तो अंग्रेजों ने उन्हें सरकारी गवाह बनाने की कोशिश की और कहा कि यदि हिन्दुस्तान आज़ाद हो भी गया तो उस पर हिन्दुओं का राज होगा तथा मुसलमानों को कुछ नहीं मिलेगा। इसके जवाब में अशफ़ाक़ ने अंग्रेजों से कहा था− “तुम लोग हिन्दू−मुसलमानों में फूट डालकर आजादी की लड़ाई को नहीं दबा सकते। हिन्दुस्तान में क्रांति की ज्वाला भड़क चुकी है जो अंग्रेजी साम्राज्य को जलाकर राख कर देगी। हिंदुस्तान आज़ाद हो कर रहेगा। अपने दोस्तों के खिलाफ मैं सरकारी गवाह बिल्कुल नहीं बनूंगा।”

अशफ़ाक़ उल्ला खान का जन्म 22 अक्टूबर 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले के जलालनगर में हुआ था। इनका पूरा नाम अशफ़ाक़ उल्ला खान वारसी हसरतथा। इनका परिवार आर्थिक रूप से संपन्न था। इनके पिताजी का नाम मोहम्मद शफीक उल्ला खान था और इनकी माताजी का नाम मजहूर-उन-निसा था। अशफ़ाक़ उल्ला खान परिवार में सबसे छोटे थे और उनके तीन बड़े भाई थे। परिवार में सब उन्हें प्यार से अच्छू कहते थे।

बचपन से ही अशफ़ाक़ उल्ला खान को खेलने, घुड़सवारी, निशानेबाजी और तैरने का बहुत शौक था। बचपन से अशफ़ाक़ उल्ला खान में देश के प्रति कुछ करने का जज़्बा था। वे हमेशा इस प्रयास में रहते थे कि किसी क्रांतिकारी दल का हिस्सा बना जाएं, इसके लिए वे कई लोगों से संपर्क करते रहते थे।

अशफ़ाक उल्ला खां एक बेहतरीन उर्दू शायर/कवि थे। अपने  तखल्लुस (उपनाम) ‘वारसी’ और ‘हसरत’ से वह उर्दू शायरी और गजलें लिखते थे। वह हिंदी और अंग्रेजी में भी लिखते थे। अपने अंतिम दिनों में उन्होंने कुछ बहुत प्रभावी पंक्तियां लिखीं, जो उनके बाद स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे लोगों के लिए मार्गदर्शक साबित हुईं।

किये थे काम हमने भी जो कुछ भी हमसे बन पाए
ये बातें तब की हैं आज़ाद थे और था शबाब अपना
मगर अब तो जो कुछ भी हैं उम्मीदें बस वो तुमसे हैं,
जबां तुम हो, लबे-बाम आ चुका है आफताब अपना।
अशफ़ाक़ उल्ला खान

वर्ष 1922 में असहयोग आन्दोलन के दौरान रामप्रसाद बिस्मिल ने शाहजहाँपुर में एक बैठक का आयोजन किया। उस बैठक के दौरान बिस्मिल ने एक कविता पढ़ी थी जिस पर अशफ़ाक़ उल्ला खान ने आमीन कहकर उस कविता की तारीफ की। बाद में रामप्रसाद बिस्मिल ने उन्हें बुलाकर परिचय पूछा, जिसके बाद अशफ़ाक़ उल्ला खान ने बताया कि वह रियासत खान जी के छोटे सगे भाई और उर्दू शायर भी हैं। कुछ समय बाद वे दोनों बहुत ही अच्छे दोस्त बन गए, जिसके बाद अशफ़ाक़ उल्ला खान ने रामप्रसाद बिस्मिल के संगठन मातृवेदीके सक्रि‍य सदस्य के रूप में कार्य करना शुरू कर दिया। इस तरह से वे क्रांतिकारी जीवन में आ गए।

अशफाक पर महात्मा गांधी का काफी प्रभाव था, लेकिन चौरी-चौरा कांड के बाद जब महात्मा गांधी ने अपना असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था, तब हजारों की संख्या में युवा खुद को धोखे का शिकार समझ रहे थे। अशफ़ाक उल्ला खान उन्हीं में से एक थे। उन्हें लगा अब जल्द से जल्द भारत को अंग्रेज़ों की गुलामी से मुक्ति मिलनी चाहिए। इस उद्देश्य के साथ वह शाहजहांपुर के प्रतिष्ठित और समर्पित क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल और चंद्रशेखर आज़ाद के साथ जुड़ गए। आर्य समाज के एक सक्रिय सदस्य और समर्पित हिंदू राम प्रसाद बिस्मिल अन्य धर्मों के लोगों को भी बराबर सम्मान देते थे। वहीं दूसरी ओर एक कट्टर मुसलमान परिवार से संबंधित अशफ़ाक उल्ला खान भी ऐसे ही स्वभाव वाले थे। धर्मों में भिन्नता होने के बावजूद दोनों का मकसद सिर्फ देश को स्वराज दिलवाना था। यही कारण है कि जल्द ही अशफ़ाक़, राम प्रसाद बिस्मिल के विश्वासपात्र बन गए। धीरे-धीरे इनकी दोस्ती भी गहरी होती गई। इन दोनों क्रांतिकारियों की दोस्ती आज भी हिन्दू मुस्लिम-एकता की एक बेहतरीन मिसाल है।

जब क्रांतिकारियों को यह लगने लगा कि अंग्रेजों से विनम्रता से बात करना या किसी भी प्रकार का आग्रह करना फ़िज़ूल है तो उन्होंने विस्फोटकों और गोलीबारी का प्रयोग करने की योजना बनाई। इन सब सामग्रियों के लिए अधिकाधिक धन की आवश्यकता थी। इसीलिए राम प्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेज़ी सरकार के धन को लूटने का निश्चय किया।

बिस्मिल और चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में क्रांतिकारियों की 8 अगस्त 1925 को शाहजहांपुर में एक बैठक हुई और हथियारों के लिए धन जुटाने के उद्देश्य से उन्होंने सहारनपुर-लखनऊ 8 डाउन पैसेंजर ट्रेन में जाने वाले सरकारी ख़ज़ाने को लूटने की योजना बनाई। क्रांतिकारी जिस ख़ज़ाने को हासिल करना चाहते थे, दरअसल वह अंग्रेजों ने भारतीयों से ही लूटा था। 9 अगस्त 1925 को रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, अशफ़ाक़ उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह, सचिंद्र बख्शी, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल मुकुंद और मन्मथ लाल गुप्त ने लखनऊ के नजदीक काकोरी में ट्रेन में ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया। इस घटना से ब्रिटिश हुकूमत तिलमिला उठी।

क्रांतिकारियों की तलाश में जगहजगह छापे मारे जाने लगे। एकएक कर काकोरी कांड में शामिल सभी क्रांतिकारी पकड़े गए लेकिन चंद्रशेखर आज़ाद और अशफ़ाक़ उल्ला खान हाथ नहीं आए। इतिहास में यह घटना काकोरी कांड के रूप में दर्ज हुई।

अशफ़ाक़ शाहजहांपुर छोड़कर बनारस चले गए। इसके बाद वो बिहार चले गए और वहां एक इंजीनियरिंग कंपनी में 10 महीने तक काम किया। इसके बाद उन्होंने विदेश जाने की योजना बनाई ताकि क्रांति को जारी रखने के लिए बाहर से मदद करते रहें। इसके लिए वह दिल्ली आकर अपने एक मित्र के संपर्क में आए लेकिन इस मित्र ने अंग्रेजों द्वारा घोषित इनाम के लालच में आकर पुलिस को सूचना दे दी। यार की गद्दारी से अशफ़ाक़ पकड़े गए। अशफाक को फैजाबाद जेल भेज दिया गया। जेल में रखकर अशफ़ाक़ को कड़ी यातनाएं दी गईं। अशफ़ाक़ के वकील भाई रियासतुल्लाह ने बड़ी मज़बूती से अशफ़ाक़ का मुक़द्दमा लड़ा लेकिन अंग्रेज़ उन्हें फांसी पर चढ़ाने पर आमादा थे और आखिरकार अंग्रेज़ जज ने डकैती जैसे मामले में काकोरी कांड में चार लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई जिनमें राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला खां शामिल थे।

19 दिसंबर, 1927 को एक ही दिन एक ही समय लेकिन अलग-अलग जेलों (फैजाबाद और गोरखपुर) में दोनों दोस्तों, राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ उल्ला खान को फांसी दे दी गई। मरते दम तक दोनों ने अपनी दोस्ती की एक बेहतरीन मिसाल कायम की और एक साथ इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

बहुत ही जल्द टूटेंगी गुलामी की ये जंजीरें
किसी दिन देखना आजाद ये हिन्दोस्ताँ होगा

लेखिका सेन्टर फ़ॉर हार्मोनी एंड पीस की निदेशक हैं। ये उनके निजि विचार हैं। सोज- जनपथः लिंक नीचे दी गई है-

https://junputh.com/blog/remembering-ashfaqulla-khan-on-his-birth-anniversary/

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *