सुप्रीम कोर्ट की कमेटी में वो ही लोग क्यों जो कृषि क़ानून के पक्षधर हैं?

प्रीति सिंह

क्या यह महज संयोग है कि सुप्रीम कोर्ट गठित कमेटी के चारों सदस्य कृषि क़ानूनों के पक्षधर हैं? सुप्रीम कोर्ट ने कमेटी के सदस्यों का चयन करते समय दूसरे पक्ष के लोगों को न सही, निष्पक्ष लोगों पर भी विचार नहीं किया। किसान आन्दोलन के नेताओं ने कमेटी को खारिज करने का मुख्य आधार सदस्यों का निष्पक्ष नहीं होना ही बनाया है। ऐसे में कई सवाल खड़े होते हैं। 

कृषि क़ानून के घोर समर्थक

उच्चतम न्यायालय ने कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे किसानों व सरकार के बीच जारी गतिरोध ख़त्म करने के लिए 4 सदस्यों की एक कमेटी का गठन किया है। कमेटी को पहली बैठक के दो महीने के भीतर रिपोर्ट सौंपनी है। इस कमेटी ने एक नया विवाद पैदा कर दिया है, जिसमें सभी सदस्य सरकार के कृषि क़ानून के घोर समर्थक रहे हैं।

कौन हैं कमेटी में?

कमेटी में भारतीय किसान यूनियन (मान) और ऑल इंडिया किसान कोऑर्डिनेशन कमेटी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भूपिंदर सिंह मान, इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई) में दक्षिण एशिया में पूर्व निदेशक डॉ. प्रमोद कुमार जोशी, कृषि अर्थशास्त्री और कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कॉस्ट ऐंड प्राइस के पूर्व चेयरमैन अशोक गुलाटी और शेतकारी संगठन के अध्यक्ष अनिल घनावत शामिल हैं।

कृषि क़ानूनों पर कमेटी के इन चारों सदस्यों के पहले दिए गए बयान पढ़ें, जो इस कमेटी का चरित्र समझने के लिए अहम है।

अशोक गुलाटी

अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संबंधों पर भारतीय अनुसंधान परिषद (इक्रियर)  में कृषि क्षेत्र के लिए इन्फोसिस के चेयर प्रोफेसर अशोक गुलाटी ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में 18 मई 2020 को एक लेख में लिखा, नरेंद्र मोदी सरकार देश के कृषि विपणन व्यवस्था में सुधार पेश करने के लिए प्रशंसा की पात्र है। इन सुधारों से प्रभावी मूल्य श्रृंखला तैयार होगी और किसानों को बेहतर दाम मिल सकेंगे।

उन्होंने आगे कहा, “ग्राहकों को भी जेब पर बोझ डाले बगैर बेहतर उत्पाद मिल सकेंगे। कृषि क्षेत्र के लिए यह 1991 वाला क्षण है। कृषि विपणन क़ानूनों में प्रस्तावित सुधार किसानों की पुरानी लंबित जरूरतों को पूरा करते हैं।” 

प्रमोद कुमार जोशी

कमेटी के दूसरे प्रमुख सदस्य प्रमोद कुमार जोशी, गुलाटी से कहीं ज़्यादा क़ानून के समर्थक नज़र आते हैं। वह तो परोक्ष रूप से यह भी आरोप लगाते हैं कि पंजाब-हरियाणा के प्रदर्शनकारी किसान नहीं, बिचौलिए हैं, जिन्हें कृषि क़ानूनों से नुक़सान होने जा रहा है। जोशी ने अरविंद के. पाधी के साथ एक संयुक्त लेख में 15 दिसंबर 2020  को लिखा, आंदोलनकारी किसानों का यह कहना कि क़ानून बनाने के पहले किसानों से बात नहीं की गई, अनुचित है। इन क़ानूनों पर दो दशक से चर्चा हो रही है। कृषि क़ानूनों को वापस लिया जाना कृषि क्षेत्र और किसानों के लिए घातक होगा।”

भूपिंदर सिंह मान

भूपिंदर सिंह मान भी तीन कृषि क़ानून को रद्द किए जाने के पक्ष में नहीं हैं। मान पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के समर्थक हैं और उनके किसान संगठन ने चुनाव में अमरिंदर सिंह का समर्थन किया था। वह कुछ ना नुकुर के साथ इन क़ानूनों को स्वीकार करते नज़र आते हैं।

कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को लिखे पत्र में मान ने कृषि क़ानूनों का समर्थन किया, लेकिन कहा कि इसे कुछ समर्थन के साथ लागू किया जाना चाहिए। 14 दिसंबर को सरकार को क़ानूनों के समर्थन में अखिल भारतीय किसान समन्वय कमेटी द्वारा दिए गए ज्ञापन में उन्होंने कहा,

तीनों क़ानूनों में संशोधन किया जाना चाहिए ताकि न्यायिक कदम सुनिश्चित किया जा सके। इसके अलावा निजी और राज्य संचालित बाज़ारों के बीच एक समान अवसर की स्थिति बनाई जाए और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) जारी रखने के लिए एक लिखित गारंटी दी जाए।

अनिल घनावत

महाराष्ट्र के शेतकरी संगठन के अध्यक्ष अनिल घनावत किसानों के आंदोलन के खिलाफ सख्त बयान देने के लिए जाने जाते रहे हैं। उन्होंने 21 दिसंबर 2020 को कहा, “अगर केंद्र सरकार पंजाब के किसानों के दबाव के आगे झुकती है तो भविष्य में कोई भी सरकार कृषि सुधारों को लागू करने की हिम्मत नहीं करेगी।” 

घनावत सदस्य बनने के बाद काफी खुश नज़र आए और उन्होंने सरकार के कृषि क़ानूनों का थोड़ा बहुत विरोध भी किया। घनावत ने अपने बयान में कहा, ”हम केंद्र के इन तीन कृषि क़ानूनों की सराहना नहीं कर रहे हैं, जिन्हें किसानों को आजादी देने वाला बताया गया है।” 

“सरकार ने कृषि क़ानूनों में उनके संगठन की तमाम मांगें मानी हैं, हम पहले भी और अब भी इस बात पर कायम रहे हैं कि किसानों को अपनी उपज बेचने की आजादी और तकनीक तक पहुंच मिलनी चाहिए।”

आंदोलन कर रहे किसानों ने ऐसी स्थिति में कमेटी और उच्चतम न्यायालय के फैसले को लेकर वही किया, जो उन्हें करना चाहिए। किसान नेताओं ने कमेटी को खारिज कर दिया और प्रदर्शन जारी रखने का फ़ैसला किया।

अगर हम क़ानून के स्थगनादेश को लेकर न्यायालय के फैसले को देखें तो उसमें कुछ खास नहीं है। यह आदेश एक निश्चित अवधि के लिए होता है और अगली सुनवाई में फ़ैसले बदल जाते हैं। किसानों की माँग है कि कृषि क़ानून वापस लिए जाएं और क़ानून वापस लेने को लेकर न्यायालय ने कुछ भी नहीं कहा है।

कमेटी गठन का मक़सद

कमेटी का गठन किसानों को थकाने की कवायद से ज्यादा कुछ नजर नहीं आती। पहली बैठक के 2 महीने के भीतर कमेटी को रिपोर्ट देनी है। ऐसे में यह माना जा सकता है कि कमेटी को रिपोर्ट देने में कम से कम 70 दिन लगेंगे।

इस कमेटी की शक्तियां क्या हैं? क्या कमेटी की सिफारिशें उच्चतम न्यायालय सरकार से लागू करवाएगी? क्या कृषि क़ानूनों के समर्थन में खड़े कमेटी के चारों सदस्य प्रदर्शनकारी किसानों के तर्क सुनकर पहले से बनी अपनी राय को बदलेंगे?

और क्या इस कमेटी के सदस्य नरेंद्र मोदी सरकार के कैबिनेट मंत्रियों से ज्यादा ताकतवर हैं, जो किसान संगठनों से करीब दो महीने से बाचतीत में लगे हैं?

ऐसे में कमेटी गठित करने की पूरी कवायद और उसके संभावित परिणाम अर्थहीन नज़र आते हैं। उच्चतम न्यायालय को कमेटी गठित की सलाह देने वालों ने थोड़ा सा भी उचित नहीं समझा कि कृषि क़ानून का विरोध कर रहे अर्थशास्त्रियों, किसानों, सेना के अधिकारियों व वरिष्ठ नौकरशाहों, कृषि संगठनों में से भी सदस्य शामिल कर लिया जाए, जो कमेटी में विरोध के स्वर को रख पाएं। यह अजीब विडंबना है। 

सौज- सत्यहिन्दी

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