जब सारा हिंदुस्तान हमारा है तो खालिस्तान की बात क्यों?

पवन उप्रेती

आज़ादी के बाद शायद ही कभी ऐसा हुआ होगा कि लाखों लोग अपनी मांगों को लेकर दिल्ली के बॉर्डर्स पर आकर बैठ गए हों और हालात सरकार के क़ाबू से बाहर चले गए हों। जम्हूरियत होने के चलते इस मुल्क़ में जेपी आंदोलन से लेकर अन्ना आंदोलन तक हुए हैं, जिनमें नेताओं के अलावा आम लोगों की भी भागीदारी रही लेकिन किसान आंदोलन ने जिस तरह देश की राजधानी को चारों ओर से घेर लिया है, वैसा शायद नहीं हुआ होगा। 

मुख्य आंदोलन स्थल सिंघु बॉर्डर पर जब आप पहुंचेंगे तो आपको पुलिस के अलावा रैपिड एक्शन फ़ोर्स के जवानों की तैनाती भी दिखेगी। लेकिन इस शांतिपूर्ण आंदोलन से पुलिस को अब तक किसी तरह की परेशानी नहीं हुई है। आंदोलन में आए लाखों लोगों में से अधिकतर पंजाब से हैं। कई स्थानीय लोगों ने सड़क पर ही छोटी-छोटी दुकानें भी सजा ली हैं। जैसे- सस्ते गर्म कपड़ों से लेकर मोबाइल चार्जर और मोजे से लेकर कुछ खाने-पीने के सामान की। 

सिंघु बॉर्डर पर पुलिस के बीच से और चाय-नाश्ते के लंगर से आगे बढ़ते हुए लगभग शुरुआत में ही मंच बनाया गया है। इस मंच पर वक्ताओं को बारी-बारी से बुलाया जाता है, इसमें अधिकतर लोग पंजाब से होते हैं और स्वाभाविक रूप से उनका संबोधन पंजाबी में होता है।

मंच पर संबोधन 

मंच पर आने वाले लोग जल्दी-जल्दी अपनी बात ख़त्म करते हैं क्योंकि वक्ताओं की लंबी कतार होती है। वे मोदी सरकार को कोसते हैं और इन कृषि क़ानूनों के लागू होने के बाद उनकी खेती पर कॉरपोरेट्स का कब्जा होने का डर ज़ाहिर करते हैं। साथ ही बुलंद हौसलों के साथ कृषि क़ानूनों के रद्द होने तक यहीं बैठे रहने के अपने संकल्प को दोहराते हैं। कोई ज़रूरी सूचना जैसे- किसी की तबीयत बिगड़ गई हो तो उसे अस्पताल ले जाने से लेकर किसी का मोबाइल-पर्स गुम हो गया हो या आंदोलन से जुड़ी कोई घोषणा हो, यहीं से की जाती है। लाउडस्पीकरों के जरिये ये आवाज़ पीछे मौजूद लाखों लोगों तक पहुंचती है। 

पंजाबी गीत बढ़ा रहे जोश 

सिंघु बॉर्डर पर आपको पंजाब के किसानों के शानदार और ताक़तवर ट्रक जिनमें बेहतर म्यूजिक सिस्टम लगा है, चौड़े टायर हैं, ये भी देखने को मिलेंगे। म्यूजिक सिस्टम जब ऊंची आवाज़ में बजता है और इनमें किसानों की हौसला अफ़जाई के लिए हाल ही में कई गायकों द्वारा बनाए गए गाने चलते हैं तो लोगों का जोश और हाई हो जाता है। 

लंगर ही लंगर 

आंदोलन स्थल पर कई तरह के लंगर लगाए हैं, जिनमें नाश्ते से लेकर खाना तक लोगों को दिया जा रहा है। नाश्ते में ही कई तरह की वैरायटी हैं। चाय के साथ पराठे, पकौड़ियां, ब्रेड, बिस्किट से लेकर कई चीजें हैं। मक्के की रोटी-सरसों का साग और उसके ऊपर मक्खन रखकर खिलाया जा रहा है। खीर से लेकर मीठे चावल और जलेबी से लेकर गर्म दूध तक आप जी भरकर खा और पी सकते हैं।

खाने का मेन्यू बनाने वालों की तारीफ़ करनी होगी। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर चल रहे लंगरों में व्यवस्था देखने वाले लोगों से जब मैंने बात की तो उन्होंने बताया कि उनकी कोशिश हर दिन नाश्ते, लंच और डिनर के मेन्यू को और बढ़िया बनाने और इसे पहले दिन से अलग करने की होती है। कई जगहों पर दवाइयों के लिए फ्री मेडिकल कैम्प भी लगाए गए हैं। 

आप आगे बढ़ते चलेंगे तो आपको ट्रालियों में बैठे बुजुर्ग सिख मिलेंगे, जिनके चेहरे पर किसी तरह की शिकन नहीं दिखाई देती बल्कि इनके हौसले देखकर तो किसी निराश व्यक्ति का सामर्थ्य जाग जाए। इनमें से अधिकतर सिख किसी किसान यूनियन से भी जुड़े हैं। 

भयंकर सर्दी में ट्रालियों में किस तरह बुजुर्गों की रात कट रही होगी, इसे देखकर मन विचलित होता है। लेकिन बावजूद इसके वे आंदोलन में शामिल और बाहर से आने वाले हर शख़्स के खाने-पीने का ध्यान रखते हैं और इसकी तैयारियों में जुटे रहते हैं।

बच्चों-महिलाओं को दिखा रहे आंदोलन 

कई लोगों से यह भी पता चला कि आंदोलन में पंजाब के हर घर और गांव से लोगों को बुलाया जा रहा है ताकि वे देख सकें कि पंजाब के सिखों ने दिल्ली के बॉर्डर पर कितना बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया है। पंजाब के स्कूलों से बच्चों को भी यहां लाकर आंदोलन से रूबरू करवाया जा रहा है और महिलाएं भी बड़ी संख्या में सिंघु बॉर्डर आ रही हैं। 

इस बार भी जीतेगा पंजाब!

कुछ नौजवानों से बात करने पर उनके जोश का पता चलता है। वे कहते हैं कि पंजाब ने पहले भी 17 बार दिल्ली को हराया है और इस बार भी पंजाब ही जीतेगा। कृषि क़ानूनों के लागू होने से क्या नुक़सान है, इस पर वे ज़्यादा न बोलकर किसान यूनियन के नेताओं का हवाला देते हैं और कहते हैं कि वे अपने नेताओं के साथ खड़े हैं। 

नौजवानों के साथ ही कई बुजुर्ग सिख एक बात ज़रूर कहते हैं। वह यह कि उन्हें कोई शौक नहीं है कि वे अपना घर-बार काम-काज छोड़कर ठंड में यहां बैठे रहें। वे चाहते हैं कि ये कृषि क़ानून रद्द हों और वे जीत की ख़ुशी के साथ अपने घर को जा सकें। 

कुछ किसान कहते हैं कि उन्होंने फैशनेबल होती और विदेशों की ओर भाग रही पंजाब की युवा पीढ़ी को इस आंदोलन के जरिये दिखा और समझा दिया है कि भविष्य में अगर आंदोलन की ज़रूरत पड़े तो उसके लिए बुलंद इरादों और ठंडे दिमाग की ज़रूरत है।

भीषण ठंड में बैठे 60 से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। आने वाले दिनों में ठंड के और ज़्यादा बढ़ने के आसार हैं लेकिन इसके बाद भी बुजुर्ग सिख जरा भी चिंतित नहीं होते। उनका एक लाइन में कहना है- या तो जीतेंगे या मरेंगे। जीतने से क्या मतलब है, इसे आप बेहतर समझते हैं। 

लाखों लोग सिंघु बॉर्डर पर जमा हैं तो जाहिर है कि वाशरूम, टॉयलेट ज़रूरी होगा। इसके लिए मोबाइल वॉशरूम और टॉयलेट बनाए गए हैं। कपड़े धोने का काम कुछ सिख युवा कर रहे हैं। कई वाशिंग मशीनों से यह काम किया जा रहा है। 

किसान आंदोलन में आए निहंग सिंह लोगों के आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं। निहंग सिखों के पहनावे, उनके अस्त्र-शस्त्र, उनके घोड़ों को लोग बड़ी विस्मय भरी नज़रों से देखते हैं और उनकी फ़ोटो भी खीचते हैं। 

किसान आंदोलन की ये तसवीरें सैकड़ों साल तक जीवंत रहेंगी जिनमें किसान नेशनल हाईवे पर अपने कपड़े सुखा रहे हैं या फिर नौजवान क्रिकेट या कोई दूसरा गेम खेल रहे हैं। 

कमेटी बनने से नाराज़गी 

दो दिन तक लगातार सिंघु बॉर्डर पर जाने के दौरान मैंने कई बुजुर्ग सिखों से ऑफ़ द रिकॉर्ड भी बात की। उन्होंने कहा किसरकार ने कमेटी का बहाना बनाकर अपना ही नुक़सान किया है, इससे उनका सुप्रीम कोर्ट और सरकार पर भरोसा कम हुआ है। उन्हें भरोसा है कि कृषि क़ानून रद्द होंगे और सरकार को ही इन्हें रद्द करना होगा। वे इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के दख़ल पर नाराज़गी का इजहार करते हैं। 

खालिस्तान के बयान पर नाराज़गी 

जब मैंने किसानों से पूछा कि इस आंदोलन में विदेशी ताक़तों और खालिस्तानियों का हाथ होने के बयानों पर उनका क्या कहना है तो वे नाराज़ हुए। उन्होंने कहा कि सरकार उनके आंदोलन को बदनाम करने के लिए इस तरह के बयान जारी करवा रही है। कई सिखों ने जोर देकर कहा कि पूरा हिंदुस्तान उनका है, ऐसे में वे खालिस्तान के नाम पर एक टुकड़ा क्यों स्वीकार करेंगे। 

सिंघु के जैसे ही हालात टिकरी बॉर्डर पर भी हैं। लेकिन यहां पंजाब के साथ ही हरियाणा के भी किसान मौजूद हैं। यहां पर भी तमाम तरह के लंगर चल रहे हैं और टैंटों में बैठे लोग आंदोलन को आगे किस तरह बढ़ाना है, इसकी तैयारी कर रहे हैं। 

किसान ट्रैक्टर परेड की तैयारी

इस सबके बीच, सभी किसान, नौजवान और तमाम यूनियनों से जुड़े लोग 26 जनवरी को होने वाली किसान ट्रैक्टर परेडकी तैयारियों में जुटे हुए हैं। पंजाब-हरियाणा के हर गांव से बड़ी संख्या में ट्रैक्टर-ट्रालियों को दिल्ली लाने के लिए तैयार किया जा रहा है। इनमें महिलाएं और बच्चे भी दिल्ली आएंगे। केएमपी एक्सप्रेस वे पर किसान ट्रैक्टर रैली निकालकर अपनी ताक़त का इजहार कर चुके हैं और 26 तारीख़ को लेकर सरकार को चेता चुके हैं कि वह इन क़ानूनों को किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं करेंगे। 

वामपंथी संगठनों की सक्रियता

किसान आंदोलन में वामपंथी दलों से जुड़े मजदूर संगठन भी अपना सियासी जोर दिखा रहे हैं। ऑल इंडिया किसान सभा व कई अन्य संगठन इन कृषि क़ानूनों का विरोध करने के साथ ही हर क्षेत्र में बढ़ रहे कॉरपोरेट के दख़ल के ख़िलाफ़ लोगों को जागरूक कर रहे हैं। आंदोलन स्थल पर शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की विचारधारा वाली पुस्तकों को भी बांटा जा रहा है। 

अंत में बात सरकार की। शायद सरकार हठ पर अड़ गई है। क्या ख़ुफ़िया एजेंसियों के अफ़सरों ने या दिल्ली पुलिस के लोगों ने गृह मंत्रालय तक ये बात नहीं पहुंचाई होगी कि आंदोलन में हर दिन हज़ारों नये लोग जुड़ रहे हैं। किसान अपने परमानेंट तंबू गाड़कर बैठ गए हैं और कहते हैं कि यह आंदोलन 2-4 साल चल जाए तो भी कोई बात नहीं। 

26 से पहले लेना होगा फ़ैसला  

अब गेंद मोदी सरकार के पाले में है। किसानों की मांग है कि सरकार इन क़ानूनों को रद्द करे क्योंकि उसी ने ये क़ानून बनाए हैं। पिछले सात साल में पहली बार मोदी सरकार का किसी जनांदोलन से सामना हुआ है, देखना होगा कि वह इससे कैसे पार पाती है। लेकिन उसे कोई फ़ैसला 26 जनवरी से पहले ही लेना होगा क्योंकि उस दिन जवान और किसान आमने-सामने होंगे और इनके बीच अगर टकराव हुआ तो हालात और बिगड़ जाएंगे। 

सौज-सत्यहिन्दी

One thought on “जब सारा हिंदुस्तान हमारा है तो खालिस्तान की बात क्यों?”

  1. बहुत अच्छा विश्लेषण। इससे पहले कई कानून रद्द कर दिए और कोई नहीं बोला।‌‌इस प्रयोग की सफलता पर सरकार की सोच बन गई कि वह कुछ भी कर सकती है। विचारणीय यह है कि कानून पास कैसे हो गए। विपक्ष क्या कर रहा था। सड़कों पर क्यों नहीं उतरा। इस आंदोलन में के पंजाब हरियाणा के ही किसान क्यों हैं। अन्य प्रांतों के किसानों को क्या ये कानून स्वीकार हैं या इनका प्रभाव उन पर नहीं पड़ने वाला। अपनी पुष्टि के लिए सरकार सर्वोच्च न्यायालय से निर्णय करा लेती है और विरोध को दबाने के लिए किसी को भी सर्वोच्च न्यायालय भेज देती है। आम जनता तो तमाशा देख रही है। महाराष्ट्र में क्या हो रहा है।

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