दिल्ली दंगों की चार्जशीट में साज़िशकर्ता के रूप में हर्ष मंदर का नाम जोड़नाएक प्रयोग है, एक जाँच है कि क्या अभी भी इस देश में जनतांत्रिक संवदेनातंत्र ज़िंदा है या मार डाला गया? बता रहे हैं लेखक अपूर्वानंद।
‘इस देश का भविष्य क्या होगा? आप सब नौजवान हैं। आप अपने बच्चों के लिए किस क़िस्म का मुल्क छोड़कर जाना चाहेंगे? यह फ़ैसला करना होगा? एक तो यह सड़कों पर होगा, हम सब सड़कों पर हैं। लेकिन सड़कों से भी आगे एक और जगह है जहाँ यह सब कुछ तय होगा। वह कौन सी जगह है जहाँ आख़िरकार इस संघर्ष का निर्णय होगा? वह हमारे दिलों में है, आपके दिलों में। हमें जवाब देना होगा। वे हमारे दिलों को नफ़रत से मार डालना चाहते हैं। अगर हम भी नफ़रत से जवाब देंगे तो वह और गहरी ही होगी।’
‘अगर वे हिंसा करते हैं, वे हमें भी हिंसा के लिए उकसाएँगे लेकिन हम कभी हिंसा का रास्ता नहीं चुनेंगे। आपको समझना ही चाहिए कि उनकी साज़िश आपको हिंसा के लिए उकसाना है, ताकि अगर आप 2% हिंसा करें तो वे 100% से जवाब दें। हमने गाँधीजी से सीखा है कि हिंसा और नाइंसाफ़ी का जवाब कैसे दिया जाता है। हम अहिंसा के सहारे लड़ेंगे। जो भी आपको हिंसा या नफ़रत के लिए उकसाता है, वह आपका दोस्त नहीं है।’
‘अगर कोई इस मुल्क को अँधेरा करना चाहता है और हम भी उससे मुक़ाबला करने को वही करें तो अँधेरा और गहरा ही होगा। अँधेरा हो तो उससे मुक़ाबला दिया जलाकर ही किया जा सकता है। उनकी नफ़रत का हमारे पास एक ही जवाब है मुहब्बत।’
इन शब्दों में क्या आपको हिंसा का भड़कावा सुनाई देता है? आपको न देता हो, दिल्ली पुलिस को इनमें हिंसा की साज़िश की बू आ रही है।
यह वह भाषण है जो हर्ष मंदर ने 16 दिसंबर, 2019 को जामिया मिल्लिया इसलामिया के छात्रों के सामने दिया था। माहौल तनाव भरा था। छात्र ग़ुस्से में थे। 15 दिसंबर को पुलिस ने उनपर भीषण हमला किया था। हम सब अगले रोज़ जामिया पहुँचे थे। टूटे हुए काँच, ज़ख़्मी छात्र-छात्राओं और खून के धब्बों को देखकर मन तकलीफ़ और ग़ुस्से से भर गया था। इस मौक़े पर हर्ष ने छात्रों से मुहब्बत, हिम्मत और अहिंसा के रास्ते पर टिके रहने का आह्वान किया। लेकिन सरकारी एजेंसियाँ इस भाषण को हिंसा का प्रचार बता रही हैं।
मामला क्या है?
अगर हम दिल्ली पुलिस की बात मानें तो हर्ष मंदर फ़रवरी महीने के आख़िरी दिनों में दिल्ली में की और करवाई गई हिंसा की साज़िश में शामिल थे।
इस भाषण को हर्ष मंदर के ख़िलाफ़ सबूत के तौर पर पेश किया जा रहा है। इस बात के अगर गंभीर क़ानूनी नतीजे न होते तो इसे हास्यास्पद कहकर चुप रहा जा सकता था।
हर्ष और हिंसा में सिर्फ़ एक ही चीज़ समान रूप से मौजूद है, वह यह कि दोनों शब्द ‘ह’ से शुरू होते हैं। वरना हर्ष मंदर का अब तक का जीवन, जो एक प्रशासनिक अधिकारी, एक अंतरराष्ट्रीय संस्था के भारतीय प्रमुख और फिर ख़ुद स्थापित की हुई संस्थाओं और अभियानों के मुखिया का रहा है, समाज में हिंसा की अलग अलग शक्लों को पहचानने, जो उसे देखने से कतराते हैं, उन्हें मजबूर करने कि वे उन शक्लों को देखें और फिर उनके ख़िलाफ़ राजकीय सांस्थानिक प्रक्रियाओं का प्रस्ताव करने और उन्हें प्रभावी बनाने के लिए क़ानूनी और सामाजिक चेतना को जगाने का रहा है। वह प्रत्येक प्रकार की हिंसा के ख़िलाफ़ सक्रियता का जीवन है।
अल्पसंख्यक समर्थक?
इरादा हर्ष मंदर की प्रशस्ति का नहीं है। लेकिन जिसने चुनाव ही यह किया हो कि वह भारतीय संविधान के सबसे अधिक नज़रअंदाज़ किए गए लक्ष्य या उद्देश्य को हासिल करने के लिए काम करेगा, जो बंधुत्व, एकजुटता या मित्रता का मूल्य है और संविधान की प्रस्तावना में न्याय, समानता, स्वतंत्रता के साथ ही आता है, अगर राज्य की हिंसा का निशाना बनता है तो मामला सिर्फ़ उस तक सीमित नहीं रहता।
पिछले दो दशक में हर्ष मंदर की छवि अल्पसंख्यक समर्थक की बन गई है। ख़ासकर गुजरात जनसंहार के समय से बहुसंख्यकवादी हिंसा के शिकार मुसलमानों के लिए और उनके साथ उन्होंने जो काम किया है, उसके कारण उनके ख़िलाफ़ घृणा का प्रचार हिंदुओं के बीच किया गया है।
अल्पसंख्यकों को इंसाफ़ मिले, इसके लिए हर्ष ने अदालतों का सहारा लिया है। लेकिन साथ ही साथ उनका विश्वास सामाजिक संवाद की प्रक्रिया को चलाते रहने में भी है। यह शत्रुता या विरोध की भाषा में नहीं हो सकता। दोनों ही समुदायों को एक दूसरे से समझदारी और मित्रता की भाषा में बात करना सीखना होगा।
न्यायपालिका पर भरोसा
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि जुर्म माफ़ कर दिए जाएँ और इंसाफ़ को दरकिनार कर दिया जाए। इसलिए गुजरात में हिंसा के मामलों में हर्ष ने अदालतों का पीछा नहीं छोड़ा।
प्रशासनिक अधिकारी रह चुके होने की वजह से ही हर्ष को पता है कि जिसे सांप्रदायिक हिंसा या दंगा कहते हैं वह अगर कुछ घंटों के बाद भी जारी रहता है तो इसका एक ही अर्थ है कि राज्य या सरकार या प्रशासन उसे होने देना चाहता है। फिर वह राज्य समर्थित या प्रायोजित हिंसा है। इसलिए राज्य को जवाबदेह ठहराना ही पड़ेगा। 1984 में एक युवा अधिकारी हर्ष मंदर ने अपने क्षेत्र में सिखों पर हिंसा नहीं होने दी थी। उन्हें पता है कि इच्छा और इरादा होने पर हिंसा रोकी जा सकती है।
जब भी अल्पसंख्यक विरोधी हिंसा को स्वतःस्फूर्त कहकर उसे किसी तरह स्वाभाविक और जायज़ भी बताया जाता है तो हर्ष जैसे लोग उस झूठ के रास्ते में आ जाते हैं। इसलिए हर्ष और उन जैसों के ख़िलाफ़ इतनी नफ़रत है।
रास्ते का काँटा?
सूचना के अधिकार का क़ानून या रोटी के अधिकार का क़ानूनी हक़ या रोज़गार की न्यूनतम गारंटी का क़ानून सरकार से लड़कर, उसे समझाकर हर्ष मंदर और उनके मित्रों ने हासिल किया। इसके कारण भी उनपर हमला हुआ। उन्हें राज्य के मामलों में बिना अधिकार टांग अड़ानेवाला, या झोलावाला कहा गया। भारत के अभिजन में, जो देश के प्रत्येक संसाधन पर क़ब्ज़ा कर लेना चाहते हैं, उनकी निगाह में हर्ष जैसे लोग काँटे की तरह हैं।
पिछले 6 साल भारत में मुसलमानों, ईसाइयों और दलितों पर हिंसा के लगातार बढ़ते जाने के साल रहे हैं। इस अवधि में भारत के मीडिया ने इस हिंसा को अदृश्य बनाने का ही काम किया है।
हर्ष ने और साथियों ने उस हिंसा को जनता की निगाह से ओझल नहीं हो जाने दिया। साथ ही उन्होंने उन सबको हौसला भी दिया कि इस हिंसा के ख़िलाफ़ तब भी बोला और लड़ा जा सकता है जब एक बहुसंख्यकवादी राजनीतिक दल सत्तासीन हो।
हर्ष अप्रिय क्यों?
प्रेम और मुहब्बत की बात तब सबको अच्छी लगती है जब इंसाफ़ की चर्चा न की जाए। इंसाफ़ कड़वा लगता है। हर्ष सिर्फ़ रामधुन गाते रहते तो कोई समस्या न थी। ऐसे गाँधीवादी टोकरी टोकरी मिलेंगे। हर्ष चूँकि इंसाफ़ की टेक कभी नहीं छोड़ते, अप्रिय लगते हैं।
पिछले साल जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के विभाजन और उसके अपमान और उसके बाद नागरिकता के एक रास्ते को मुसलमानों के लिए वर्जित बनाने के लिए ‘क़ानूनी’ राह अपनाई तो भी हर्ष अदालत पहुँचे। वे असम में डिटेंशन कैम्प में सड़ रहे लोगों की तरफ़ से सर्वोच्च न्यायालय गए ही नहीं, एक तरह से उससे टकराए भी। फिर दिल्ली में फ़रवरी में जब हिंसा भड़काई गई और पुलिस और प्रशासन ने हमेशा की तरह मुसलमान विरोधी रवैया अख़्तियार किया तो हर्ष फिर अदालत पहुँचे।
अदालत जाने का अर्थ यह नहीं कि आप आंदोलन से मुँह मोड़ लें। नागरिकता के नए क़ानून की नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ जब मुसलमान और नौजवान सड़क पर आए तो हर्ष अन्य लोगों के साथ उनकी एकजुटता में खड़े हुए। वे जामिया मिल्लिया इसलामिया के छात्रों पर हमले के ख़िलाफ़ बोले और जामिया गए भी।
जामिया में हर्ष ने एक छोटी तक़रीर भी की जिसमें अहिंसा के सहारे संवैधानिक तरीक़े से अपने हक़ की लड़ाई जारी रखने का आह्वान उन्होंने किया।
हिंसा और घृणा अभियान
यह दिसंबर की बात है। यह तक़रीर हिंसा के ख़िलाफ़ है। उसके बाद हमने दिल्ली में एक सुनियोजित घृणा अभियान देखा। यह उनके ख़िलाफ़ था जो जगह-जगह हफ़्तों से नागरिकता के क़ानून की मुख़ालिफ़त करते धरने पर बैठे थे।
इस घृणा अभियान में प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, वित्त राज्य मंत्री और शासक दल के दिल्ली के सांसद शामिल थे। यह घृणा प्रचार चुनाव अभियान की आड़ में चलाया गया। आंदोलनकारियों के ख़िलाफ़ हिंसा भड़काने की योजना कारगर हुई। शाहीन बाग़ और जामिया मिल्लिया इसलामिया के बाहर गोलियाँ चलीं। और फिर उत्तर पूर्वी दिल्ली में हिंसा हुई। क़त्ल हुए, लूटपाट हुई, घर जलाए और तबाह किए गए।
अब हमें समझाने की कोशिश की जा रही है कि यह हिंसा मुसलमानों और उनके समर्थकों ने भड़काई थी। उसकी साज़िश की थी, यह कहानी गढ़ी जा रही है। हर्ष मंदर को उस साज़िश में शामिल दिखलाने का झूठा किस्सा बनाया जा रहा है।
निशाने पर हर्ष मंदर
हर्ष का आज तक का सारा काम खुला, पारदर्शी और अहिंसक रहा है। गोपनीयता, गुप्त षड्यंत्र उनके काम की शैली नहीं रही है। वह खुले तौर पर नागरिकता क़ानून और नागरिकता सूची के विरोधी रहे हैं। उन्होंने ऐसे संविधान विरोधी सरकारी क़दम से असहयोग की बात भी खुलेआम की है। हर्ष मंदर किसी हिंसा की साज़िश कर रहे थे, यह वही एजेंसी कह सकती है जिसकी निगरानी में जेएनयू में गुंडे छात्रों और शिक्षकों पर हमला करके, खुलेआम हिंसा करके निकल जाएँ, जिसका प्रमुख कन्हैया पर सरेआम हमले को गंभीर न माने और उसपर मज़ाक़ करता रहे और जो हिंसा के शिकार लोगों को ही हिंसा का षड्यंत्रकारी बतलाए।
यह सवाल ज़रूर किया जाना चाहिए कि जिन राजनीतिक नेताओं ने शांतिपूर्ण आंदोलनकारियों के ख़िलाफ़ खुलेआम घृणा का प्रचार किया और हिंसा का उकसावा किया, उनके नाम जाँच एजेंसियों की चार्जशीट में क्यों नहीं हैं।
लेकिन उसके पहले यह समझ लेना चाहिए कि हर्ष मंदर का नाम चार्जशीट में अगर षड्यंत्रकर्ता के तौर पर दर्ज करने का क़दम उठाया जा सकता है तो देश एक गहरे खड्डे में गिर चुका है। यह क़दम एक प्रयोग है, एक जाँच है कि अभी भी इस देश में जनतांत्रिक संवदेनातंत्र ज़िंदा है या मार डाला गया।
अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं। सौज- सत्यहिन्दी
बिल्कुल साफ है उनका षड़यंत्र,हर जनपक्षधर,न्याय, अधिकारों की बात करनेवालों पर शिकंजा कसो।
अपूर्वानंद जी का गंभीर,स्पष्ट, चिंतनीय विश्लेषण। हमें लोकतंत्र पर मंडराते गहरे संकटों से आगाह करता।