असग़र वजाहत (जन्म – 5 जुलाई 1946) – हिन्दी साहित्य में कहानीकार एवं नाटककार के रूप में सम्मानित नाम है । कहानी, नाटक, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, फिल्म तथा चित्रकला आदि विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण रचनात्मक योगदान किया है। इन्होने दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया में लगभग 40 वर्षों तक अध्यापन किया एवं हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष रहे । हम उनके जामिया से जुड़े संस्मरण धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं । (संपादक)
सन् 1968 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. करने के बाद इसकी संभावना थी कि मुझे विश्वविद्यालय में ही नौकरी मिल जाती। लेकिन उन दिनों कुछ नया, बड़ा और महत्वपूर्ण काम करने की लगन थी। विश्वविद्यालय में अध्यापक बन जाना एक बहुत साधारण और नीरस काम लगता था। ये भी लगता था कि पढ़ाई के काम में न तो कोई नयापन है और न कोई चुनौती है। इसलिए किसी चुनौती भरे काम की तलाश थी और आखिरकार पत्रकारिता का क्षेत्र ऐसा लगा जहाँ नित्य नयी चुनौतियाँ हो सकती थीं। यह तय कर लिया कि अब पत्रकारिता ही करनी है। अलीगढ़ से सामान उठाया और सीधा दिल्ली आ गया। मैं दिल्ली में किसी को न जानता था। मेरी जेब में ‘लिंक’ और ‘पैट्रियट समाचार समूह’ की मैंनेजिंग डाइरेक्टर श्रीमती अरुणा आसिफ अली के नाम प्रो. नूरूल हसन का एक सिफारशी पत्र था। अरुणा आसिफ अली ने मुझसे पूछा था कि क्या हिन्दी में फर्स्ट क्लास एम.ए. पास अच्छा पत्रकार भी हो सकता है? उन्होंने कहा था कि वे उसी समय, वहीं, मेरा टेस्ट लेना चाहती हैं। उनके यह कहने पर मैंने सोचा था कि इतनी व्यस्त और महत्वपूर्ण महिला उसी समय अपने कमरे में टेस्ट लेने की बात कर रही हैं, जो मेरी समझ में नहीं आ रहा। शायद वे मुझे डराना चाहती हैं या यह चाहती हैं कि मैं टेस्ट देने के लिए कुछ समय माँगू और वे समय दे दें। इस तरह नौकरी की बात आई गई हो जायेगी। दूसरी बात यह थी कि अगर वे टेस्ट लेतीं भी और मैं टेस्ट में फेल भी हो जाता, तो यह कोई नयी बात न होती। इसलिए मैंने उसी समय, उन्हीं के कमरे में टेस्ट देने की हामी भर दी। अब उनके लिए समस्या पैदा हो गई। उन्होंने एक परचे पर एक नाम लिखा और कहा कि आप इनके पास चले जाइये। ये आपका टेस्ट लेंगे। परचे पर गिरीश माथुर लिखा हुआ था। मैं कैबिनों के चक्कर लगता गिरीश माथुर जी के कैबिन तक पहुंचा और उन्हें पर्चा दे दिया। गिरीश माथुर जी ने मुझसे पूछा कि ‘यस’ का मतलब जानते हो? उसके बाद उन्होंने पूछा, ‘नो’ का मतलब पता है? मैं उनके सवाल समझ नहीं पाया। मैंने कहा आप यस-नो का मतलब तो नहीं पूछ रहे हैं या आप का सवाल कुछ और है जो मैं समझ नहीं पा रहा? उन्होंने कहा मैं यस-नो का मतलब ही पूछ रहा हूँ और अगर आपको इन दो शब्दों के अर्थ आते हैं तो आप पत्रकार बन जाने लायक भाषा जानते हैं। उनके यह कहने पर मेरी समझ में आया कि वे पत्रकारों के भाषा-ज्ञान पर व्यंग्य कर रहे हैं। उन्होंने परचे पर लिखा कि मेरा टेस्ट लिया गया और मैं पास हो गया। पर्चा लेकर मैं फिर अरुणा जी के पास गया। उन्होंने पर्चा देखकर कहा कि मैं तीन महीने बाद उनसे मिलूँ। मैं समझ गया कि ये टालने वाली बात है। सोचा गिरीश माथुर जी से मिलना चाहिए जिन्होंने यह ‘यस’ और ‘नो’ पूछ कर पास कर दिया है। मैं उनके पास फिर गया और बताया कि अरुणा जी कह रही हैं कि नौकरी के लिए मैं तीन महीने बाद आऊॅं । उन्होंने कहा अरुणा जी तो वैसे भी आपको नौकरी नहीं दे सकतीं। अंखबार में नौकरी देना तो मेरा काम है। मैंने उनसे कहा तो मुझे नौकरी दे दीजिए। उन्होंने कहा मिल गयी। मैं बहुत खुश और हैरान हुआ। मैंने कहा सर कोई एपोइन्टमेंट लैटर वगैरह मिलेगा। उन्होंने कहा नौकरी चाहिए या एपोइन्टमेंट लैटर चाहिए? उनमें से केवल एक ही चीज मिल सकती है। यह भी मेरे लिए एक रहस्य ही था। मैंने कहा ठीक है तो नौकरी दे दीजिए। उन्होंने फौरन हिन्दी ‘पैट्रियट’ के सम्पादक को बुलाया और कहा मुझे बैठने की जगह बतायी जाए।
मैं अंखबार में काम करने लगा। दरअसल गिरीश माथुर जी ने कृपापूर्वक मुझे केवल बैठने की जगह दी थी। मैं जितना काम करता था उतने काम के पैसे मिलते थे जो काफी कम हुआ करते थे। इसलिए धीरे-धीरे फ्री लांसिंग शुरू कर दी । उस समय हिन्दी की जो बड़ी पत्रिकाएं दिल्ली से निकलती थीं उनके लिए लिखा करता था। पर यह गाड़ी भी बहुत दूर तक न चली। पत्रकार बनने का सपना जल्दी ही टूट गया। मैं अपने घर फतेहपुर वापस चला गया। वहाँ भी पाँव नहीं जमा सका।
इस बीच अलीगढ़ से प्रो. के.पी. सिंह की चिट्ठी आयी कि ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ (डीम टु बी यूनीवर्सिटी) के हिन्दी विभाग में एक लेक्चरर की जरूरत है और इस संबंध में मैं मुजीब रिज्वी साहब से जा कर मिलूँ। जिस समय मुझे यह चिट्ठी मिली, मैं चुंगी का चुनाव लड़ रहा था और पूरी तरह राजनीति में जाने का इरादा था। सौभाग्य से मैं चुनाव हार गया था क्योंकि चुनाव क्षेत्र में मेरे प्रतिद्वंद्वी की जाति के अधिक वोट थे। चुनाव में हारने के बाद कुछ ऐसे हालात बने कि नौकरी करने के लिए जामिया पहुँच गया। मैं मुजीब भाई के पास जब पहली बार गया तब वे क्लास ले रहे थे। क्लास के बाद उन्होंने मुझसे कहा- ”कहाँ लुप्त हो गये थे। अब तो पोस्ट ‘एडवरटाइज् ‘ हो गई है। अब तुम्हें सेलेक्शन कमेटी फेस करना पड़ेगी।” पहली मुलाकात में मुजीब भाई बुध्दिमान, संवेदनशील, सरल और सहज आदमी लगे थे। उनसे मिलने के बाद मैं अलीगढ़ चला गया था और वहाँ अपनी रिसर्च के काम में लग गया था।
मुजीब रिज्वी साहब से पहली मुलांकात का मेरे ऊपर काफी असर पड़ा था। उस ज़माने में रोज् ा डायरी लिखा करता था। अचानक बहुत साल बाद पुरानी डायरियों में कहीं मुझे मुजीब रिज् ावी साहब से पहली मुलाकात का जिक्र लिखा हुआ मिला। मैंने लिखा था कि नौकरी चाहे मिले या ना मिले, लेकिन यह दिन मेरे जीवन में इसलिए यादगार रहेगा कि इस दिन मैं मुजीब रिज् ावी साहब से मिला।
इन्टरव्यू देने के लिए मैं जामिया आया तो सीधा मुजीब भाई के घर चला गया। उन्होंने चाय-वाय पिलायी और कहा कि इन्टरव्यू में अगर मैंने प्रो. मोहम्मद मुजीब (उस समय जामिया के उप-कुलपति, इतिहासकार और उर्दू साहित्य के प्रकाण्ड पंडित) के सवाल का जवाब दे दिया तो मुझे नौकरी मिलेगी और अगर नहीं दे सका तो नहीं मिलेगी। मैं क्या कह सकता था।
इन्टरव्यू वी.सी. ऑफिस में होना था । हम दोनों एक साथ वी.सी. ऑफिस के लिए निकले। मैं मुजीब भाई के साथ-साथ चल रहा था, वे कुछ बता रहे थे। जब हम रजिस्ट्रार और वी.सी. ऑफिस के नज़दीक पहुँचने लगे तो मुजीब भाई ने धीरे से कहा- ”तुम जरा पीछे हो जाओ।” मैं फौरन पीछे हट गया । ख्याल आया कि मैं इतनी बेवकूफी का काम क्यों कर रहा था। सेलेक्शन कमेटी में ‘हैड ऑफ दी डिपाटमेंट और कन्डीडेट’ का साथ-साथ जाना कितना अशोभनीय और आपत्तिजनक लगता।
इन्टरव्यू में प्रो. मोहम्मद मुजीब ने मुझसे एक सवाल पूछा। उन्होंने कहा कि मैं प्रगतिशील हिन्दी-उर्दू कविता पर पी-एच.डी. कर रहा हूँ। मैं उन्हें किसी प्रगतिशील उर्दू कवि का कोई एक शेर सुनाऊँ और वे मुझे उसी तरह का ‘ग़ालिब’ का शेर सुनायेंगे। तब मैं ये कैसे कह पाऊँ गा कि ‘ग़ालिब’ प्रगतिशील कवि नहीं हैं।
मैं जानता था कि प्रो. मुजीब ‘ग़ालिब’ के विशेषज्ञ हैं और उन्होंने ‘साहित्य अकादेमी’ के लिए ‘ग़ालिब’ पर एक पुस्तक भी लिखी है। ये भी सुनने में आ चुका था कि वे जब जर्मनी में पढ़ रहे थे तब उन्होंने वहाँ ”ग़ालिब’ की कुछ ंगज्लों का जर्मन में अनुवाद भी किया था और एक संस्था बनाई थी जिसका नाम ‘शू शाइनर्स ऑफ ‘ग़ालिब’ था। यही वजह थी कि प्रो. मुजीब का सवाल मुझे बहुत टेढ़ा लगा था। मुझे विश्वास था कि मैं किसी भी प्रगतिशील शायर का जो भी शेर सुनाऊँगा, प्रो. मुजीब मुझे वैसा ही या उससे मिलता-जुलता, ‘ग़ालिब’ का कोई शेर सुना देंगे और फिर मुझसे पूछेंगे कि ‘ंगालिब’ को मैं प्रगतिशील कवि क्यों नहीं मानता और मैं फँस जाऊँगा। मैंने प्रो. मुजीब से कहा कि सर, मैं इस सवाल में थोड़ी-सी छूट चाहता हूँ…
– क्या छूट चाहते हो। उन्होंने पूछा।
– क्या मैं कोई नज् म सुना सकता हूँ?
पता नहीं कैसे वे यह छूट देने को तैयार हो गये। मैंने उन्हें 15 अगस्त पर लिखी, फैज् ा अहमद फैज् ा की कविता ‘आज् ाादी’ के कुछ अंश सुनाये और कहा कि अगर ‘ंगालिब’ ने 15 अगस्त पर कुछ लिखा हो तो बताया जाए।
मेरी बात सुनने के बाद प्रो. मुजीब कहने लगे कि उन्हें उनके सवाल का जवाब मिल गया है। उन्होंने सेलेक्शन कमेटी के दूसरे सदस्यों से कहा कि अब वे जो सवाल चाहें, पूछें। कई सवाल पूछे गये और मैंने उनके संतोषजनक उत्तर दे दिए।
इन्टरव्यू देने के बाद मैं किसी चाय के ढाबे में बैठ गया था। मुजीब भाई ने कहा था कि मैं रात नौ बजे के करीब उनके घर आ कर उनसे मिलूँ। मैं जब उनसे मिला तो उन्होंने मुझे यह खुशखबरी सुनाई कि मेरा सेलेक्शन हो गया। उनसे मिलने के बाद जब मैं बाहर निकला तब मुझे, ‘ ज़मीन पर पैर नहीं पड़ते’-मुहावरे का अर्थ समझ में आया।
जो लोग ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ के इतिहास और उसके उद्देश्यों से परिचित नहीं हैं, वे जामिया को कोई बड़ा ‘मदरसा’ समझते हैं। उन्हें यह नहीं मालूम कि ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ की स्थापना 1920 में राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान महात्मा गाँधी के कहने पर की गई थी और जामिया के पहले ‘ट्रस्टी’ महात्मा गाँधी थे। राष्ट्रीय स्तर के अन्य कांग्रेसी नेता जैसे पं. जवाहरलाल नेहरु, डॉ. अंसारी, हकीम अजमल ंखाँ, सरोजनी नायडू आदि का जामिया से बड़ा गहरा संबंध था। असहयोग आंदोलन के दौरान महात्मा गाँधी ने ‘अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय’ में भाषण देते हुए अंग्रेजों द्वारा दी जाने वाली शिक्षा के बहिष्कार पर बल दिया था और राष्ट्रीय संस्थाएं बनाने की बात कही थी। गाँधी जी और अली बंधुओं की इस आवाज् ा पर ‘अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय’ से कुछ छात्र और अध्यापक बाहर आ गये थे और उन्होंने 29 अक्टूबर, 1920 को ‘जामिया’ की नींव रखी थी। पाँच साल बाद हकीम अजमल ंखाँ के सहयोग से जामिया अलीगढ़ से दिल्ली ‘शिफ्ट’ कर दी गयी थी।
महात्मा गाँधी मानते थे कि राष्ट्रीय आंदोलन को सशक्त बनाने के लिए ही कुछ नौजवानों ने अपने पूरे जीवन को दाँव पर लगा कर जामिया की स्थापना की है। गाँधी जी बराबर जामिया आते रहते थे। जामिया के दिल्ली आ जाने के बाद गाँधी जी के पहली बार जामिया आने का बड़ा दृश्यात्मक वर्णन अब्दुल ंगफ्फ़ार मदहोली साहब ने अपनी किताब ‘जामिया की कहानी’ में किया है-”दिल्ली मुन्तकिल होने के बाद गाँधी जी जामिया में पहली दफा तशरींफ लाए तो तोल्बा (छात्र) और असातेज़ा (अध्यापक) ने ंखद्दर के काम के लिए सत्तर रुपये की थैली नज़्र (भेंट) की और सिपासनामा (कृतज्ञता पत्र) पेश किया। आपके हमराह (साथ) मौलाना मोहम्मद अली, मौलाना शौक़त अली, हकीम अजमल खाँ, डॉ. अंसारी, सेठ जमना लाल बजाज और महादेव देसाई भी थे। डायस तक पहुँचने के लिए जो रास्ता बनाया गया था उसके दोनों तरंफ कतार (पंक्ति) में तोल्बा (छात्र) तकली चला रहे थे। गाँधी जी ने हर एक के काम को ंग़ौर से देखा और खुश हुए।”
जामिया आंदोलन को समर्थन देने के कारण ही गाँधी जी ने अपने बेटे देवदास गाँधी को हिन्दी पढ़ाने और चरखे का काम सिखाने के लिए जामिया भेजा था। देवदास गाँधी जामिया में हिन्दी के पहले अध्यापक थे। देवदास गाँधी की याद को बनाये रखने के लिए पिछले कुछ वर्षों से जामिया के हिन्दी विभाग में ‘देवदास गाँधी व्याख्यान माला’ शुरू की गयी है।
गाँधी जी ने अपने पोते रसिक लाल को पढ़ने के लिए जामिया भेजा था। जब एक जान लेवा बीमारी के कारण जामिया में उसकी मृत्यु हुई तो गाँधी जी जामिया आये थे और लड़कों को देखकर उन्होंने कहा था – ”मेरा ग़म दूर करने के लिए ये बच्चे बहुत हैं।”
‘अकार’ से साभार – आगे जारी…..