असग़र वजाहत (जन्म – 5 जुलाई 1946) – हिन्दी साहित्य में महत्त्वपूर्ण कहानीकार एवं नाटककार के रूप में सम्मानित नाम हैं। इन्होंने कहानी, नाटक, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, फिल्म तथा चित्रकला आदि विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण रचनात्मक योगदान किया है। इन्होने दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया में लगभग 40 वर्षों तक अध्यापन किया एवं हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे । हम उनके जामिया से जुड़े संस्मरण धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं । ( संपादक)
मथुरा रोड से आश्रम चौराहे के बाद एक पतली सी सड़क जमुना के किनारे तक आती थी। इस सड़क पर सबसे पहले जसोला नाम का एक दबा-दबा सा गाँव था। इसके बारे में कहा जाता था कि इस गाँव का नाम वास्तव में ‘जूल्याना’ था। ये इलाका किसी अंग्रेज़ की जागीर का हिस्सा था। उसने अपने बेटी जूल्या के नाम से यह गाँव बसाया था और इसका नाम जूल्याना रखा था जो बिगड़ते-बिगड़ते जुलैना हो गया था। जुलैना के बाद ‘होली फैमली’अस्पताल की इमारत थी और उसके बाद सड़क के दोनों तरफ कुछ मैदान और खेत दिखाई पड़ते थे जिनके बाद, सड़क के बाँएं तरफ जामिया कॉलेज की इमारत थी। इसके और आगे जामिया नगर की बस्ती थी जहाँ आमतौर पर जामिया के अध्यापक रहा करते थे। जामिया नगर से भी मिली हुई टीचर्स टे्रनिंग कॉलेज की इमारत थी। जामिया नगर के दूसरे तरफ पुराना ओखला गाँव था।
जामिया आने वाली पतली सड़क पर गाँव वालों की रेडियाँ, साइकिलें और कभी-कभार दो-चार बसें और दो कारें गुजरती थीं। पूरे जामिया नगर और ओखले के इलाके में सिर्फ दो कारें थीं जिन्हें लोग पहचानते थे और उन्हें देख कर यह कह दिया करते थे कि फलां-फलां दिल्ली जा रहे हैं। जामिया और ओखला तक दो बसें आती थी । एक 18 नम्बर की बस थी जो फव्वारे से (चाँदनी चौक) ओखला आती थी और दूसरी 24 ए थी जो लाजपत नगर से ओखला आती थी। एक दूसरी बस 18ए भी थी। यह बस ओखला नहीं आती थी बल्कि ओखला मोड़ से सीधी आगे बदरपुर निकल जाती थी और ओखला जाने वाले ओखला मोड़ पर उतर कर या तो पैदल ओखला आते थे या 18 नम्बर बस का इंतज् ाार करते थे।
ये तो नहीं कहता कि जामिया में उस दौर का जो माहौल था उसने मुझे लापरवाह बना दिया था, क्योंकि उस जमाने में जामिया कॉलेज में ऐसे टीचर थे जो पढ़ाने के मामले और क्लास लेने के संदर्भ में बहुत गंभीर थे। मैं धीरे-धीरे शायद इसलिए लापरवाह होना शुरु हो गया था कि कोई सख्ती या सज् ाा न थी। मुजीब भाई छोटी-मोटी गलतियों को टाल जाया करते थे और दूसरे लोगों में किसी की यह हिम्मत न थी कि हिन्दी डिपार्टमेंट के किसी मामले में कुछ बोले। पढ़ाने में कोताही की एक वजह यह भी थी कि कभी-कभी मुझे मध्यकालीन कविता पढ़ाने को दे दी जाती थी। मैंने चूंकि बी.ए. नहीं किया था बल्कि बी.एस.सी. किया था इसलिए ‘ग्रेजुएशन लेवल’ पर मध्यकालीन कविता न पढ़ी थी। सिर्फ एम.ए. में बहुत अरुचि के साथ मध्यकालीन कविता से आमना-सामना हुआ था और फिर ब्रज या पुरानी अवधी भी मेरी समझ के बाहर थी। इसलिए इस तरह के काव्य को पढ़ाना मुश्किल और अरुचिकर हुआ करता था।
एक बार ऐसा हुआ कि मुज़फ्फ़र अली की फिल्म ‘जूनी’ की पटकथा लिखने के चक्कर में मुझे श्रीनगर जाना पड़ा। ऐसा नहीं था कि यह प्लान अचानक बना था। पहले से तय था। पर मैंने पता नहीं क्यों छुट्टी लेने या मुजीब भाई से बताने की जरूरत न समझी और श्रीनगर चला गया। अब लगता है यह माफ न करने वाली गलती थी। पर उस ज़माने में ऐसा कर दिया था। कोई दस-बारह दिन के बाद मैं जब कॉलेज गया और मुजीब भाई से आमना-सामना हुआ तो वे बेहद नाराज् ा थे। लेकिन नाराज् ागी में कुछ बोले नहीं। उसके चेहरे और हाव-भाव से लग रहा था कि गुस्सा पीने में मुश्किल हो रही है।
एक दिन कमरे पर लौट कर आया तो पता चला कि मेरे कमरे पर पुलिस ने छापा मारा था। दो-तीन लड़कों को, जो जुआ खेल रहे थे पुलिस पकड़ कर कोतवाली ले गयी। दरअसल मेरे कमरे में ये सब हुआ इसलिए था कि मैंने अपने कमरे की एक चाबी इन लड़कों को दे दी थी जो पास के दूसरे कमरों में रहा करते थे। लड़कों ने मुझसे कहा था कि मैं तो पूरे दिन कमरे में रहता नहीं। कमरा खाली पड़ा रहता है। अगर मैं उनको कमरे की चाबी दे दूँ तो वे उठ-बैठ लिया करेंगे। मैं लड़कों की चालाकी को समझ नहीं पाया था और मैंने उन्हें एक चाबी दे दी थी। लड़कों ने मेरे कमरे को कुछ सुरक्षित जानकर वहाँ जुआ खेलना शुरू कर दिया था। दूसरी तरफ मालिक मकान ये चाहता था कि लड़के कमरा छोड़ कर चले जाएं ताकि वह ऊँचे किराये में कमरों को उठा सके। मकान मालिक के दिमांग में लड़कों से कमरा खाली कराने का यह तरीका आया कि वह ऐसा पुलिस के जरिए करा सकता है। मकान मालिक जानता था कि लड़के जुआ खेलते हैं। लड़के जब मेरे कमरे में जुआ खेल रहे थे तो मालिक मकान पुलिस लेकर आ गया था।
ऐसी हालत में मैंने यह ठीक समझा कि नम्बरदार का कमरा छोड़ दूँ। यह कमरा छोड़ कर मैं ओखला गाँव के एक छोटे से मकान में आ गया। उस मकान में एक कमरा, छोटा सा बरामदा, छोटा सा ऑंगन और लैट्रिन-बाथरूम था। इस मकान से मिला हुआ इसी तरह का एक दूसरा मकान भी था जिसमें कोई बंगाली परिवार रहता था। इस मकान में एक विशेष बात यह थी कि इसका दरवाजा पूरे-का-पूरा चौखट समेत उखड़ जाता था। मतलब यह कि ताला बंद रहता था लेकिन दरवाजा हटाकर कोई भी जानकार अंदर जा सकता था। इसलिए मैं कमरे में भी एक ताला लगाता था। पड़ोस के बंगाली परिवार में रहने वाला एक आठ-दस साल का लड़का अक्सर मेरे पास चला आता था। मैं उससे बातचीत करता था और कुछ खिला-पीला दिया करता था। एक दिन वह मुझसे यह कहकर सौ रुपये उधार ले गया था कि उसके अब्बा ने मंगाये हैं।
इस मकान में सब कुछ अच्छा चल रहा था कि एक दिन जब मैं लौट कर आया तो मैंने देखा वे कपड़े अलगनी पर सूख रहे हैं जिन्हें मैं बाल्टी में भिगो कर गया था। मुझे बड़ी हैरत हुई। कुछ देर बाद वह बंगाली लड़का आया तो मैंने उससे पूछा कि ये कपड़े किसने धोये हैं? उसने कहा कि बाजी ने कपड़े धोये हैं। यह सुनकर मैं थोड़ा घबरा गया कि लड़के की बहन ने आकर कपड़े धोये हैं। मुझे लगा कि यह कोई खतरे की घंटी है और मुझे होशियार हो जाना चाहिए। मैं यह तय नहीं कर पा रहा था कि क्या करूँ। इसके बाद एक घटना और घट गयी। एक दोपहर में कमरे में सो रहा था कि अचानक मैंने देखा कि कोई कमरे के अंदर आ गया है। मैं उठा तो सामने एक लड़की खड़ी थी। वह मुझे देखकर खिलखिला कर हँसी और फिर भाग गयी। मैं और अधिक डर गया। कुछ देर बाद लड़का आया तो मैंने उससे कहा कि मैं यह मकान छोड़ कर कहीं और चला जाऊँगा । मेरी बात सुनते ही लड़का तेजी से उठा और अपने घर चला गया। कुछ देर बाद लड़का लौटा और बोला-‘बाजी कह रही हैं, देखें यह मकान छोड़कर वे कैसे जाते हैं।’
अब तो मुझे यह लगा कि मामला बिल्कुल साफ है। मैं यह कमरा छोड़ कर जब जाने लगूंगा तब ये लड़की और उसका परिवार शोर मचायेंगे की ये आदमी हमारी लड़की के साथ ऐसा-ऐसा करके भाग रहा है। लड़की उसके भाई और पिता तीनों के व्यवहार से साफ जाहिर था कि वे पूरे मामले को बहुत गंभीर बना देंगे।
ओखला गाँव में ही अंग्रेज़ी के एक लेक्चरर आंफांक साहब अपने परिवार के साथ रहा करते थे। मुझे यह मालूम था कि वे अपने घर का एक कमरा किराये पर उठाना चाहते हैं। मैंने उनसे बातचीत कर ली। उन्हें लड़की वाले प्रसंग की पूरी जानकारी दे दी और कहा कि मैं रात में आपके यहाँ शिफ्ट हो जाऊँगा। उन्होंने मुझे कमरे की चाबी दे दी और उन्होंने कहा कि रात में जब चाहो आ सकते हो।
मैंने सोचा बारह-एक बजे रात जब बिल्कुल सन्नाटा हो जाता है और सब सो जाते हैं तब मैं घर से निकलूंगा। उस जमाने में सामान भी इतना हुआ करता था कि एक चादर में आराम से बाँधा जा सकता था। मैंने गट्ठा तैयार कर लिया और बारह-एक बजने का इंतज़ार करने लगा। फिर मुझे ध्यान आया कि गाँव में कुत्ते बहुत हैं और रात में पीठ पर गट्ठर लाद कर जाते मुझे देखेंगे तो घेर लेंगे, भौंकेंगे और इधर-उधर सोते लोग उठ जायेंगे। हो सकता है बंगाली परिवार भी उठ जाए। कुत्तों से बचने के लिए मैंने कहीं से एक डंडे का बंदोबस्त कर लिया और एक बजे रात को गट्ठर लादे, अंधेरी गलियों से गुजरता, कुत्तों को डंडा दिखाता, हाँपता-काँपता आंफांक साहब के घर पहुँचा।
यह तीन मंज़िला इमारत ओखला गाँव में नयी बनी थी और उस ज् ामाने में शायद सबसे अच्छी और ऊँची इमारत थी। इसके ग्राउण्ड फ्लोर में दो कमरे थे जिसमें से एक छोटा कमरा आंफांक साहब ने मुझे दे दिया था। पूरे मकान का किराया 250- रुपया था और मैं आधा किराया दिया करता था। यहाँ मैं बहुत साल रहा। आंफांक साहब के चले जाने के बाद पूरा मकान ही मैंने ले लिया था।
अकार’ से साभार – आगे जारी…..