कुछ वाकई में मनोरोगी जैसे दिख रहे थे। लोगों का बहुलांश चिथड़े लपेटे और निरक्षर किसानों का था, जो तुत्सी के प्रति नफरत की भावना से आसानी से उन्माद में आ सकते थे। मैं जिनसे मिला उनमें शायद सबसे भयावह लोग थे शिक्षित राजनीतिक अभिजात, आकर्षक व्यक्तित्व वाले और नफासत भरे स्त्री और पुरुष, जो दोषरहित फ्रेंच बोलते थे और जो युद्ध और जनतंत्र पर लम्बी दार्शनिक बहस में आसानी से शामिल हो सकते थे, लेकिन सिपाहियों और किसानों के साथ वह एक चीज़ साझा कर रहे थे: वे अपने देशवासियों के खून में डूबे हुए थे। सीज़न आफ ब्लड (ए रवांडन जर्नी)
बीबीसी पत्रकार फरगाल काने द्वारा अपनी किताब ‘सीज़न आफ ब्लड (ए रवांडन जर्नी) में लिखी इन बातों को पढ़ते हुए मुमकिन है कि आप अन्दर ही अन्दर सहम जाएं। वर्ष 1994 में रवांडा में हुए संगठित और सुनियोजित कत्लेआम में 8 लाख तुत्सी मार दिए गए थे। बीसवीं सदी की आखरी दहाई के सबसे विचलित करने वाले प्रसंगों में से वह घटना थी।
सुना है कि रवांडा अब एक नया पन्ना पलटने की कोशिश में मुब्तिला है, लेकिन उस जनसंहार की स्मृतियां आज भी लोगों के दिलोदिमाग में गहराई से अंकित हैं।
इसे एक विचित्र संयोग कहा जाना चाहिए कि इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के महज डेढ़ साल पहले दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले इस मुल्क को भी अपने समय के एक प्रलयकारी कहे जा सकने वाले दौर से गुजरना पड़ा था जब हिन्दुत्व की वर्चस्ववादी ताकतें एक लम्बे एवं खूनी अभियान के बाद पांच सौ सदी पुरानी एक मस्जिद को तबाह करने में कामयाब हुई थीं। मस्जिद के इस विध्वंस के पश्चात पूरे मुल्क में बड़े पैमाने पर दंगे हुए थे- जो बंटवारे के बाद अब तक के सबसे बड़े दंगे थे- जब हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी और उसने ऐसे घाव किए थे जो आज तक भर नहीं सके हैं।
रवांडा को जिस भयानक दौर से गुजरना पड़ा और हम लोगों ने अपने यहां जो देखा, इसमें एक विचित्र समानता दिखती है।
दोनों त्रासदियों ने इस बात को उजागर किया कि मीडिया- जिसके बारे में यह सोचा जाता है कि वह लोगों को सशक्त कर रहा है- वह किस तरह अपने विपरीत में तब्दील हो सकता है। उसने हमें बताया कि किस तरह वह साधारण लोगों को जंगली पशुओं में तब्दील कर सकता है और उन्हें अपने पड़ोसियों पर ही कहर बरपा करने के लिए तैयार कर सकता है।
इतिहासकारों ने इस बात को रेखांकित किया है कि किस तरह मीडिया- खासकर रेडियो ने रवांडा के जनसंहार में एक विभाजनकारी और हिंसक भूमिका अदा की, किस तरह कुख्यात आरटीएलएम रेडियो पर चलने वाले कार्यक्रमों में ‘तिलचट्टों को खतम करने’ का आवाहन किया जाता था, किस तरह आने वाले खूनी हमलों की जमीन तैयार की जा रही थी और किस तरह हुतू हथियारबन्दों को उकसाया जाता था कि वे तुत्सी अल्पसंख्यकों हमले करें।
दक्षिण एशिया के एक शायर ने साधारण लोगों को दंगाई बनाने या हथियारबन्द गिरोह का हिस्सा बनाने की इस प्रक्रिया का एक छोटे शेर में बखूबी वर्णन किया है: ‘आग मुसलसल जेहन में लगी होगी, यूं ही कोई आग में जला नहीं होगा।’
अगर हम भारत की ओर लौटें तो देख सकते हैं कि किस तरह यहां के भाषायी अख़बाारों के बड़े हिस्से ने अस्सी के दशक तथा नब्बे के पूर्वार्द्ध में बेहद आक्रामकता के साथ बहुसंख्यकवादी एजेण्डा को आगे बढ़ाने का काम किया। हिन्दी अख़बाारों के हिन्दू अख़बारों में रूपांतरण के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। हम याद कर सकते हैं कि किस तरह हिन्दी अख़बारों के अच्छे खासे हिस्से की इस एकांगी भूमिका को लेकर जो जबरदस्त हंगामा मचा तो प्रेस काउन्सिल आफ इंडिया की तरफ से प्रख्यात कवि पत्रकार रघुवीर सहाय की अगुवाई में एक तथ्यान्वेषी टीम बनायी गयी जिसने उत्तर भारत के प्रमुख शहरों में जाकर आम जनों तथा मीडिया के नुमाइन्दों से बात की थी। एक किस्म की जनसुनवाई का आयोजन हुआ था और अपनी रिपोर्ट में इस आयोग ने हिन्दी अख़बारों के मालिकान एवं सम्पादकों की इस घृणित कार्रवाई को लेकर तीखी टिप्पणियां की थीं।
आज़ाद भारत के इतिहास में यह पहला ऐसा मौका था जब हम बड़े पैमाने पर ख़बरों के हथियारीकरण को देख रहे थे। कहा जा सकता है कि गनीमत इसी बात की थी कि उन दिनों टीवी पर अधिकतर सरकारी नियंत्राण था और कई प्राइवेट चैनलों का अस्तित्व तक नहीं था।
वक्त़ अब बदल गया है।
आज हम इस बात को देख रहे हैं कि किस तरह न्यू मीडिया- इंटरनेट, सोशल मीडिया आदि- ने इस परिस्थिति को और गंभीर बनाया है। यह साफ होता जा रहा है कि रूपांतरकारी दिखने वाली डिजिटल टेक्नोलॉजी को अगर अनैतिक ढंग से इस्तेमाल किया गया तो वह आसानी से एक धोखादायी राजनीतिक एजेण्डा को आगे बढ़ा सकती है और वह किस तरह निरंकुश सरकारों एवं जनविरोधी हुकूमतों को मजबूती दे सकती है।
मिसाल के तौर पर हम केनिया के चुनावों पर गौर कर सकते हैं- जिनके नतीजे विवादास्पद माने गये जहां ‘न्यू मीडिया टेक्नोलॉजी का प्रयोग करके 2017 के चुनावों में जनतंत्र का अपहरण किया गया था और जहां फेक न्यूज़, गलत सूचनाओं और ऑनलाइन मीडिया प्लेटफार्म पर सरकारी प्रचार के माध्यम से राष्ट्रपति चुनावों के लिए सहमति बना ली गयी थी। (पृष्ठ 127-128,Propaganda in the Information Age : Still Manufacturing Consent Edited by Alan Macleod, Routledge 2019)
टेक्नोलॉजी में तरक्की और इंटरनेट की आसान सुविधा ने अब एक साधारण व्यक्ति के लिए भी यह मुमकिन बनाया है कि वह अपने अदद स्मार्टफेान के जरिये ऐसी कोई शरारतपूर्ण ख़बर चला दे या ऐसी कोई तस्वीर शाया करे जो तुरंत वायरल हो जाय और देखते ही देखते पूरे शहर, इलाके को आगजनी और हिंसा के हवाले कर दे।
यह आशंका- जो हाल के समय में बार-बार हक़ीकत होती दिख रही है- इस बात के लिए अवश्यम्भावी बनाती है कि ऐसी सूचनाओं के प्रोसेसर्स या उनके वाहक- जो विशालकाय डाटा कार्पोरेशन्स हैं- वे अधिक चुस्त रहें, सावधानी बरतें। वे न केवल 24 घंटे और सातों दिन चुस्त रहें बल्कि वे ऐसे फिल्टर्स भी कायम करें ताकि नफरत और दुर्भावना की बातों को फैलने से रोका जा सके या अगर ऐसी ख़बरें, सूचनाएं आती ही हैं तो उन्हें फैलने से रोका जाए।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस मामले में वे बुरी तरह असफल साबित हुए हैं।
ऐसा नहीं है कि वे टेक्नोलॉजिकल पैमानों पर इसे कर नहीं सकते, बखूबी कर सकते हैं, मगर उन्हें ऐसा करने में कोई दिलचस्पी नहीं है।
पिछले साल के क्राइस्ट चर्च आतंकी हमले को ही देखें, जब न्यूजीलैण्ड में एक श्वेत आतंकवादी ने दो मस्जिदों पर गोलियां चला कर पचास लोगों को मार डाला था और पचास से अधिक लोगों को जख्मी किया था। वह आतंकवादी, जिसने अपने नफ़रत भरे वक्तव्य को- जिसमें मुस्लिम अप्रवासियों के खिलाफ ज़हर उगला गया था- ऑनलाइन जारी किया था। उसने अपने इस हत्याकाण्ड को फेसबुक पर बाकायदा लाइव किया था। यह देखना विचलित करने वाला था कि इस लाइव/सीधे प्रसारण को लेकर फेसबुक कुछ भी नहीं कर सका। हत्या एवं हिंसा के इस लाइव प्रसारण को लेकर गोया उसने अपने हाथ-पांव खुद बांध दिये थे। हम कल्पना कर सकते हैं कि ऐसी घटनाओं का पूरे समाज पर कितना गहरा विपरीत असर पड़ता होगा।
हम म्यांमा में रोहिंग्याओं के खिलाफ हिंसा को सुगम बनाने में फेसबुक की निभायी भूमिका की बात कर सकते हैं, जिसे लेकर उसे पश्चिमी देशों की ही नहीं बल्कि संयुक्त राष्ट्र संघ की आलोचना का शिकार होना पड़ा था।
संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिकारियों ने नोट किया था कि किस तरह फेसबुक प्लेटफार्म ने वर्ष 2017 में बर्मा/म्यांमा में रोहिंग्या समुदाय के खिलाफ हिंसा भड़काने में ‘‘निर्धारक भूमिका’’ अदा की थी, जिसके चलते जनता पर जबरदस्त अत्याचार ढहाये गये और सात लाख से अधिक लोगों को जबरन उनके घरों से विस्थापित किया गया। कम्पनी ने हालांकि कदम उठाये हैं ताकि ऐसे बर्मी लोगों/अधिकारियों को चिह्नित किया जाये, मगर अंतरराष्ट्रीय और बर्मा के निरीक्षकों ने फेसबुक की प्रणाली को प्रश्नांकित किया है और यह भी जोड़ा है कि नफरत भरे बयानों को रोकने के लिए बर्मी नागरिक समाज के साथ समन्वय स्थापित करने में भी वह असफल रहा है।
यूं तो फेसबुक के इस म्यांमा प्रसंग पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, लेकिन यहां यह बताना समीचीन होगा कि फेसबुक के इस व्यवहार के लिए उसे अमेरिकी सीनेट के सामने भी माफी मांगनी पड़ी और माफी के बावजूद म्यांमा में नफ़रत भरे वक्तव्य फेसबुक पर चार माह बाद भी पाये जाते रहे।
फेसबुक, जिसने अपनी सालाना आय को लगभग 16 बिलियन डॉलर घोषित किया है, उसने वर्षों तक म्यांमा में नफ़रती वक्तव्यों को रोकने के लिए बहुत कम संसाधन खर्च किये। यह एक ऐसा बाज़ार था जहां सिर्फ उसी का बोलबाला था और जहां नस्ली हिंसा की घटनाएं आम हो चली थीं। आलम यह था कि 2015 की शुरुआत में फेसबुक में सिर्फ दो ऐसे लोग नियुक्त थे जो विवादास्पद पोस्ट की समीक्षा करते थे तथा बर्मी भाषा भी बोलते थे। इसके पहले बर्मी सामग्री को जांचने वाले लोग सभी इंग्लिश बोलते थे।
शायद यह उनके मुनाफा केन्द्रित मॉडल का कमाल है और जगह-जगह सत्ताधारियों के साथ रब्त-ज़ब्त बढ़ाने का मामला है कि जहां उन्हें सरकार से असहमति रखने वाले लेखकों, विद्वानों और कार्यकर्ताओं के खाते ब्लॉक करने में या सरकार का विरोध करने वाले पोस्ट हटाने में कोई वक्त नहीं लगता, वहीं दक्षिणपंथी पोस्ट को हटाने में वे संकोच करते हैं, जहां वह हिंसा की बात करते हैं और जनता को नुकसान पहुंचता है।
फेसबुक की इंडिया स्टोरी यही बताती है कि उसने वही किया जो कम्पनी अंतरराष्ट्रीय स्तर करती आयी है। वॉल स्ट्रीट जर्नल की ताज़ा रिपोर्ट ने नफ़रती वक्तव्यों को लेकर फेसबुक की पॉलिसी और भारतीय राजनीति में परस्पर टकराव पर लिखा है। इस हक़ीकत से आंख नहीं मोड़ा जा सकता कि ‘फेसबुक की कम्पनी एक्जिक्युटिव ने राजनेताओं के विवादास्पद पोस्ट हटाने का विरोध किया था’ और सत्ताधारी पार्टी के प्रति अपना पक्षपाती रवैया पेश किया था।
पुराना मीडिया- रेडियो, अख़बार और टीवी- अब भले ही रफ्ता-रफ्ता हट रहा हो, प्रभावहीन हो रहा हो और नये मीडिया- इंटरनेट, सोशल मीडिया- ने भले ही धमाके के साथ एंट्री ली हो, यह बात अधिकाधिक स्पष्ट होती जा रही है कि फेक न्यूज़, हिंसा के लिए उकसाने और सूचनाओं को हथियारबन्द करने तथा नफ़रत फैलाने से कोई तत्काल मुक्ति मुमकिन नहीं है।
यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि विशालकाय सोशल मीडिया कार्पोरेशन्स की तरफ से ऐसे पूर्वाग्रही कदमों के पीछे आर्थिक कारण होते हैं, मगर वह उनके अपने विश्व नज़रिये को भी उजागर करता है।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ जब ब्लैक लाइव्ज़ मैटर आन्दोलन उरूज पर था, तब फेसबुक की इस बात के लिए जबरदस्त भर्त्सना हुई थी कि उसने राष्टपति ट्रम्प का विवादास्पद वक्तव्य बिना किसी टिप्पणी के प्रकाशित किया जिसमें वह हिंसा भड़काने का समर्थन करते दिख रहे थे- ‘वेन लूटिंग स्टार्ट्स, शूटिंग स्टार्ट्स’ अर्थात जब लूटपाट शुरू होगी तब गोली भी चलेगी। टि्वटर ने इस वक्तव्य को जारी करते हुए अपने नियमों का पालन किया और इस बात पर जोर दिया कि यह वक्तव्य हिंसा को बढ़ावा देता है। यह अकारण नहीं है कि नस्ली सम्बन्धों को लेकर फेसबुक का समझौतापरस्ती का रवैया ही जिम्मेदार रहा है कि एक हजार से अधिक कम्पनियों ने जुलाई 2000 में उसका बहिष्कार किया।
अब विश्व नज़रिया किस तरह फेसबुक के व्यवहार को प्रभावित करता है, यह इस बात से भी प्रमाणित होता है जो उसने जर्मनी के पिछले चुनावों में किया। वह ऐसा दौर था जब एक मीडिया कम्पनी ने फेसबुक के साथ जुड़ कर जर्मन वोटरों के बारे में विस्तृत जानकारी हासिल की और मतदाताओं को खास ढंग से प्रभावित करने के लिए उन्हें केन्द्रित करके प्रचार सामग्री चलायी। याद कर सकते हैं कि इस काम के लिए फेसबुक ने बर्लिन के अपने दफ्तर की जगह भी उस कम्पनी को उपलब्ध करायी थी। अमेरिका की सलाह और निर्देशन के अन्तर्गत जारी इस प्रोजेक्ट में उन दिनों वहां की नवोदित नवफासीवादी पार्टी ‘‘अल्टरनेटिव फार डायशलैण्ड’ को समर्थन दिया गया था। (Page 22, Propaganda in the Information Age : Still Manufacturing Consent Edited by Alan Macleod, Routledge 2019)
फेसबुक- जिसका सबसे बड़ा मार्केट यहां है- जहां तीस करोड़ से अधिक उसके सबस्क्राइबर्स हैं, वह इन दिनों अपने ही नियमों का उल्लंघन करने के लिए तथा बहुसंख्यकवादी एजेण्डा को आगे बढ़ाने के लिए बचावात्मक पैंतरा अपनाता दिख रहा है।
क्या अपने अतीत के व्यवहार को लेकर संगठन के अन्दर कोई आत्ममंथन होगा और कोई सुधारात्मक कार्रवाई हाथ में ली जाएगी, इस बात को देखना अभी बाकी है। वैसे फेसबुक के इस एकांगी व्यवहार को लेकर तथा वॉल स्ट्रीट जर्नल में इस सम्बन्ध में दस्तावेजी प्रमाणों के साथ प्रकाशित आलेख के बाद तीन किस्म की प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं।
निश्चित ही संगठन के अन्दर विचारमंथन जारी है जहां फेसबुक के कर्मचारियों ने इंडिया कन्टेन्ट को लेकर उठे विवाद के बाद आन्तरिक तौर पर कम्पनी से सवाल किए हैं। यहां इस बात को भी रेखांकित करना जरूरी है कि जहां फेसबुक इंडिया की हेड अंखी दास ने दक्षिणपंथी पोस्ट को लेकर कोई कार्रवाई करने का विरोध किया था, वहीं संस्था के कर्मचारियों ने उहापोह के उन दिनों में भी आन्तरिक तौर पर उन्हें सलाह दी थी कि उन्हें कम्पनी के नियमों का पालन करना चाहिए।
दूसरे, कांग्रेस पार्टी की तरफ से फेसबुक के कर्णधार मार्क जुकरबर्ग को पत्र लिखा गया है और पूछा गया है कि क्या भारत में कम्पनी के नियमों के खिलाफ सक्रिय रहे कम्पनी के अधिकारियों के खिलाफ वह कार्रवाई करेगी।
तीसरे, कांग्रेस ने कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया (मार्क्सवादी) के साथ मिल कर इस मामले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति बनाने की मांग की है। यह भी ख़बर मिली है कि दिल्ली सरकार ने भी फेसबुक के भारत प्रमुख को तलब किया है और उनसे स्पष्टीकरण चाहा है।
अब इस सारी सरगर्मी का कोई सार्थक नतीजा निकलेगा कि नहीं यह कहना मुश्किल है।
अब दुनिया भर में फेसबुक की जितनी आलोचना हो रही है, उससे यह मुमकिन भी है कि वह अपने अन्दर के दक्षिणपंथी तत्वों पर लगाम लगाने का प्रयास करे, लेकिन यह मान लेना बेवकूफी की इन्तहा होगी कि कहानी का यही अन्त है।
दक्षिणपंथी तत्व जो राजनीतिक तौर पर वर्चस्वशाली हैं और जिन्होंने व्यापक सामाजिक आधार हासिल किया है और अपने विश्व नज़रिये को वैधता हासिल की है- वे अन्य रास्तों एवं तरीकों को ढूंढ सकते हैं ताकि जनता के सामाजिक जीवन में ज़हर घोलने का काम जारी रहे। इस विष को नियंत्रित करने का काम चन्द सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर अंकुश लगाने से समाप्त नहीं होगा।
जनता के बीच जागरूकता पैदा करने की जरूरत है ताकि लोग सत्य को फ़रेब से अलग करना सीख लें।
दूसरे, ‘’डिजिटल टेक्नोलॉजी की अपनी पहुंच और सम्मोहन के चलते ’राजनीतिक दायरों में फैली जड़ता को भी तोड़ने की जरूरत है जो वातावरण पर फिलहाल तारी दिखती है और जनता तक सत्य को पहुंचाने के लिए उन तक पहुंचने की जरूरत है।‘’
क्या आज़ादी के आन्दोलन की उस गौरवशाली विरासत को हमें भूल जाना चाहिए जिसने हमें शिक्षा दी थी कि उस पथ पर चल पड़ना, भले ही उस पर तुम अकेले हो, जो रास्ता बंधनों से मुक्ति की तरफ, अंधेरे से उजाले की तरफ ले जा रहा हो।
सुभाष गाताड़े वरिष्ठ पत्रकार ,अनुवादक और वामपंथी कार्यकर्ता हैं। ये उनके निजि विचार हैं। सौज- जनपथ